इक्वालिटी रिश्ते और अनकहा सच मुंबई की ऊँची इमारतों में से एक, बारवीं मंज़िल पर स्थित उनके तीन-बेडरूम अपार्टमेंट की बालकनी से रात को दिखने वाली शहर की
इक्वालिटी रिश्ते और अनकहा सच
मुंबई की ऊँची इमारतों में से एक, बारवीं मंज़िल पर स्थित उनके तीन-बेडरूम अपार्टमेंट की बालकनी से रात को दिखने वाली शहर की रोशनियाँ कभी अनजाने ही अंजलि और रोहन के रिश्ते की कहानी कह देती थीं—चमकती, जीवंत, पर दूर-दूर बिखरी हुई. उनका बारवीं मंज़िल का अपार्टमेंट रात में शहर की रोशनियों से नहाया करता था। बालकनी में एक छोटा-सा टेबल, दो कुर्सियाँ, और एक दुनिया जो उन्होंने मिलकर बनाई थी उसकी याद दिलाती थी.
आज की शाम गर्म, हल्की उमस भरी शाम थी. साइबर टेक पार्क से लौटकर, शहर की गलियों में बिखरी रोशनी धीरे-धीरे जगने लगी थी. बारवीं मंज़िल की बालकनी पर, जहाँ से शहर किसी धड़कते हुए दिल की तरह चमकता नजर आता था — वहीं बैठा था रोहन, चुपचाप, अपनी हाथोमे पकड़े च्याय की प्याली में ठंडे होती चाय को देखते हुए. आज भी अंजलि देर से आने वाली थी.
मुंबई के एक व्यस्त कॉर्पोरेट हब में, आर टेक नाम की बहु-राष्ट्रीय कंपनी के बाइस वें फ़्लोर पर अंजलि और रोहन एक दूसरे के समांनातर केबिन बैठते थे. यही वो ऑफिस था जहाँ उनकी मुलाक़ात हुई थी, यही वो जगह थी जहाँ दोस्ती प्रेम में बदली, और यही से शुरू हुआ था उनके वैवाहिक जीवन का सफर.
अंजलि सिस्टम आर्किटेक्ट थी — तेज़, महत्वाकांक्षी, और प्रोग्रेसिव सोच वाली. रोहन उसी कंपनी में डेटा इंजीनियर था, शांत, संयमी, और दुनिया को सरल बनाने में यक़ीन रखने वाला.
दोनों आधुनिक, प्रगतिशील और ओपन माइंडेड थे. दोनों मानते थे कि “जेंडर इक्वलिटी” सिर्फ़ विचार नहीं, बल्कि सफल जीवन जीने का एक तरिका है. दोनों की दुनिया एक सी थी — पर दोनों के सपने बिल्कुल अलग.
अंजलि की दुनिया तेज़, महत्वाकांक्षी और आधुनिक थी. महिलाओं के अधिकार, बराबरी, करियर—वह इन सब को लेकर वो बहोत सव्वेदनशील थी. उसे लड़कियोके पारम्परिक काम करेने से बहोत नफरत थी. अंजलि प्रगतिशील परिवार से आती थी. उसकी दोनों छोटी बहनें टेक इंडस्ट्री में नाम कमा रहीं थीं. घर में बात-बात पर वुमन एम्पावरमेंट, एम्बिशन, इंडेपेंडेन्स … ये सब स्वाभाविक सा था. घर में लड़कियों की उड़ान को खुली मंज़ूरी थी — वह एक ऐसी दुनिया से आई थी जहाँ उसे बताया गया था कि “लड़कियाँ किसी से कम नहीं, और हर कदमपर पुरुष की बराबरी कर सकती है.” अंजलि को पार्टियों का शौक था, टेनिस खेलना, दोस्तों के साथ आउटिंग—जीवन को पूरा जीना जैसे उसका मंत्र था.
रोहन की दुनिया वैसी नहीं थी. वह एक छोटे शहर में बड़ा हुआ था. मध्यवर्गीय परिवार, माँ–पिता दोनों स्कूल टीचर। और बचपन में क़िताबों, साइकिल और शाम की ट्यूशन यही उसकी दुनिया थी. सिंपल जिंदगी, सरलता और विनम्रता.. यह उसके संस्कार थे. लेकिन कॉलेज की पढ़ाई रोहन ने एक बड़े, प्रगतिशील शहर में की थी — जहा लडके लड़किया काफी खुले विचारों की थी. यहाँ ही रोहन ने एक प्रगतिशील दुनिया की नई परिभाषाएँ सीखी थीं. यहाँ ही उसने सीखा था कि बराबरी या “इक्वालिटी” का मतलब सिर्फ़ काग़ज़ पर नहीं बल्कि जीवन में, आचरण में भी होता है. शायद यही वजह थी कि अंजलि से मिलने के बाद वह इतनी जल्दी उसकी दुनिया का हिस्सा बन गया था.
अंजलि और रोहन की शादी को छह साल हो चुके थे. उससे पहले दो साल की दोस्ती और प्यार… वही दो साल जिनमें अंजलि और रोहन को लगता था कि उनका रिश्ता आधुनिक भारत का सबसे सुंदर उदाहरण है — जहाँ बराबरी है, समझ है, और सम्मान भी.
रोहन को घर की शांति पसंद थी — कुकिंग करना, म्यूज़िक सुनना, वीकेंड पर मूवीज़ देखना.
शाम को दोनों पार्क के चारों चक्कर लगाते — हँसी-मज़ाक, तनाव साझा करना, साथ में दुनिया देखने के सपने… उनकी बालकनी में बैठकर शहर की रोशनी देखना, जैसे दो लोगों का मौन प्रेम-पत्र होता था.
रोहन बहोत अच्छा खाना बनता था — दिल लगाकर, जैसे प्यार को उबालकर परोसता हो.
अंजलि को बर्तन धोने से नफ़रत थी— तो वह भी रोहन कर लेता था. उसने उसकी कभी शिकायत नहीं की थी — प्यार में शिकायतें अक्सर निगलनी पड़ती है ऐसा उसे लगता था.
“तुम कितने स्मार्ट हो रोहन… और फिर, मुझे तो यह सब करना ही नहीं आता।” और रोहन बस मुस्कुरा देता.
अंजलि को जब भी ऑफिस के लिए प्रेजेंटेशन बनानी होती—वह रोहन के लैपटॉप के पास बैठ जाती। “रोहन, यह स्लाइड थोड़ी बोरिंग लग रही है… प्लीज ठीक कर दो ना, तुम तो एक्सपर्ट हो. रोहन देर रात तक उसके लिए प्रेजेंटेशन पर काम करता.
लेकिन जब रोहन ने एक दिन अंजलि से कहा—“अंजलि, मुझे अपने प्रोजेक्ट के डेटा सेट में दिक्कत आ रही है… क्या तुम प्लीज मेरी मदद करोगी. वह हँस पडी, “तुम्हे मेरी मदद की क्या ज़रूरत है” यार तुम तो बहोत स्मार्ट हो ये कहकर वो वहा से चली गयी. रोहन बस मुस्कुराया - पर अंदर ही अंदर उसे कुछ टूटने की आवाजे आ रही थी.
अंजलि तेज़ी से अपने विभाग की अहम शख़्सियत बनने लगी थी. उसकी पार्टियों, नाइट-आउट्स, टीम-अक्टिविटी और नेटवर्किंग का दायरा बढ़ता जा रहा था. अंजलि की प्राथमिकताएं बदलने लगीं थी। रोज़ की शामें अब उसकी सहेलियों और ऑफिस के ग्रुप में बीतने लगीं थी। अंजलि रात को अक्सर पार्टीज़, ऑफिस नेटवर्किंग इवेंट्स, और गर्ल्स-आउटिंग में व्यस्त रहती और रोहन जब भी उसे इस बारे में पूछता तो कहती — यार, रोहन तुम तो जानते हो “ये मेरे करियर के लिए कितना ज़रूरी है”, प्लीज समझने की कोशिश करो.
रोहन कभी शिकायत नहीं करता — वो तो हमेशा ही डरता था, की अंजलि कही इस बात को उसके मर्दानगी के अहंकार या असुरक्षा की भावना न मान ले. वह बराबरी को नकारने वाला “परंपरागत आदमी” नहीं कहलाना चाहता था.
शादी के शुरूआती वर्षों में सब कुछ संतुलित था. घर के कामों में बराबरी थी. कम से कम परिभाषा के अनुसार. पर धीरे-धीरे बाकी काम भी, कभी ऑफिस के प्रोजेक्ट, कभी दोस्त की पार्टी, कभी थकान, और कभी "मूड नहीं है" ये सब भी रोहन के हिस्से में आते चले गए. फिर भी रोहन कुछ नहीं कहता — उसे लगता था, शायद यही “इक्वालिटी” का नया रूप है.
समस्या सिर्फ़ कामों की नहीं थी. भावनाएँ भी अब असमान हो गईं थीं. अंजलि जब भी ऑफिस के तनाव से गुजरती, तो रोहन ही उसका सहारा बनता. वह उसके कंधे पर सिर रखकर रोती, बिलखती और रोहन उसे गले लगाकर, बातें करके संभाल लेता.
एक दिन रोहन काफी परेशान और दुखी था अपने काम को लेकर, वो काफी अकेलापन भी महसूस कर रहा था, ऐसा लग रहा था किसी भी पल उसके आंसू छलक पड़ेंगे. अंजलि ने उसकी ओर देखा ओर उसका हौसला बढ़ाने की बजाय उसने रोहन से कहा, क्यों लड़कियों की तरह रो रहे हो, रोहन?” कम ऑन, बी ए मैन, यू कैन हैंडल इट. इस एक वाक्य ने रोहन को भीतर तक तोड़ दिया। जिस लड़की के लिए उसने अपनी पूरी भावनात्मक दुनिया खोल दी थी —व ही उसे उसकी कमजोरी पर शर्मिंदा कर रही थी.
शारीरिक निकटता — जो कभी उनके रिश्ते की आत्मा हुआ करती थी — धीरे-धीरे गायब होने लगी थी. रोहन जब भी कोशिश करता — अंजलि मुस्कुराकर टाल देती, “थकी हूँ… बहुत काम था… अभी नहीं… रोहन हर बार पीछे हट जाता. पर हर बार उसकी आँखों में एक अदृश्य दरार उभर आती. वह अंजलि पर दबाव नहीं डालना चाहता था — वो डरता था कि कहीं अंजलि ये न समझ ले कि वह उसपर अपनी मर्दानगी थोप रहा है. इसलिए वह चुप रहता.
एक शुक्रवार की शाम अंजलि जब घर लौटी तो रोहन किचन में बर्तन धो रहा था.
सिंक में भरे हुए बर्तनों की आवाज़ कमरे में गूँज रही थी. टेबल पर रखा खाना ठंडा हो चुका था. “तुमने खाना खाया नहीं?” अंजलि ने पूछा. “तुम्हारे आने का इंतज़ार कर रहा था,” रोहन ने बिना उसकी तरफ देखे कहा. “रोहन, यार… मेरी टीम के साथ पार्टी थी. तुम जानते हो न कि मेरा प्रोजेक्ट—” “हाँ, हाँ…” रोहन ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “तुम्हारे प्रमोशन के लिए कितना ज़रूरी है.”
एक शाम अंजलि फिर पार्टी में थी. रोहन बालकनी में बैठा, नीचे बहती ट्रैफिक की रोशनी को देख रहा था और अपने भीतर टकराती भावनाओं को समझने की कोशिश कर रहा था. क्या “इक्वालिटी” का मतलब यह होता है जहाँ एक व्यक्ति का संघर्ष, भावनाएँ, ज़रूरतें — सब धीरे-धीरे मिट जाएँ? क्या रिश्तो मे “इक्वालिटी” सिर्फ एक “कांसेप्ट” ओर “हैशटैग्स” हो सकती है
रोहन बड़ी देर तक सोचता रहा — क्या गलती उसकी है? क्या वह बहुत "गिविंग" है? या अंजलि बहोत "टेकिंग" है? या दुनिया ही ऐसी हो गई है—जहाँ “इक्वालिटी” का अर्थ जिम्मेदारियोसे से ज्यादा अधिकार बन गया है? “शायद यह भी एक फेज़ है… निकल जाएगा,” वह खुद को समझाता रहा. पर भीतर ही भीतर उसका मन कुछ टूटने लगा था.
एक शाम, जब रोहन डिनर बनाकर बालकनी में बैठा था — दोनों प्लेटें सजी थीं पर सामने की कुर्सी खाली थी — तभी अंजलि का मैसेज आया: "गोइंग टू आफ्टर पार्टी, डोंट वेट". रोहन ने फोन स्क्रीन को थोड़ी देर तक देखा. उसने प्लेट हटाई और चुपचाप किचन में जाकर बर्तन धोने लगा. बर्तन से टकराते पानी की आवाज़ में उसे अपने भीतर का शोर भी सुनाई दे रहा था.
आज कई दिनों बाद, एक शाम, दोनों पार्क में जॉगिंग के बाद चुपचाप खड़े शहर की रोशनी देख रहे थे. हवा ठंडी थी, पर भीतर दोनों के दिलों में अजीब गर्मी थी — बहसों, अनकहे शब्दों, और थकान की. रोहन ने धीरे से कहा — “अंजलि… क्या हम ठीक हैं? अंजलि ने आसमान की तरफ देखा और बोली —“तुम ओवरथिंक कर रहे हो. सब ठीक है.” पर रोहन अब यह जवाब नहीं सुनना चाहता था. “तुम मुझसे दूर हो गई हो, अंजलि.” अंजलि झुंझला गई —“हम दोनों काम करते हैं. मेरा करियर भी मेरी तरह ही अहम है. मैं अगर आगे बढ़ना चाहती हूँ, तो तुम्हें इसमें प्रॉब्लम क्यों है?” रोहन चुप रहा. वह जानता था —उसकी समस्या अंजलि की महत्वाकांक्षा नहीं थी… समस्या उनके बीच की दूरी थी. एक ऐसी दूरी जो चुपचाप, रोज़ थोड़ी थोड़ी बढ़ रही थी.
कुछ देर बाद दोनों घर लौटे और बिना बोले अलग-अलग कमरों में चले गए. कुछ देर बाद रोहन किचन में पानी लेने गया और देखा—सिंक बर्तनों से भरा था. कुछ देर वह उन्हें देखता रहा. उसे याद आया — अंजलि ने कहा था, “हम “इक्वालिटी” में विश्वास करते हैं.” “इक्वालिटी” सिर्फ़ अधिकारों से नहीं, बल्कि एक-दूसरे को देख पाने की क्षमता से बनती है. पर इक्वालिटी अब तो सिर्फ़ शब्दों में रह गई थी. उस रात, रोहन ने पहली बार खुद को हारता हुआ महसूस किया — न किसी बहस में, न किसी मुकाबले में — बल्कि अपने आपसे, अपनी उम्मीदों से.
अगली सुबह, अंजलि जल्दी तैयार होकर निकलने लगी. तब रोहन दरवाज़े के पास खड़ा उसका इंतज़ार कर रहा था. “अंजलि… हमें बात करनी चाहिए।” वह रुकी, पर बिना भाव के बोली — “रोहन, मेरे पास अभी टाइम नहीं है। हम दोनों अलग-अलग दिशा में बढ़ रहे हैं… मुझे नहीं पता हम कहाँ जा रहे है, पर मैं अब थक चुकी हूँ” यह वह वाक्य था जिसने रोहन की दुनिया उलट दी, “मतलब… तुम अब इस रिश्ते में नहीं रहना चाहती?” अंजलि ने नज़रें झुका लीं — “मुझे स्पेस चाहिए… एक लंबी सी स्पेस…और वह चली गई. दरवाज़ा धीरे से बंद हुआ — और रोहन की दुनिया अब पूरी तरह से टूट चुकी थी.
कुछ हफ्तों बाद, दोनों ने बैठकर शांत मन से बात की. भावनाएँ, टूटन, थकान — सब मेज़ पर खुली पड़ी थी. अंजलि ने कहा—“मैं तुमसे प्यार करती हूँ… पर मैं वो ज़िंदगी नहीं जी सकती, जो मुझे छोटा महसूस कराए, सीमित कर दे.” रोहन ने धीमे से कहा — “और मैं तुमसे प्यार करता हूँ…पर मैं उस ज़िंदगी में नहीं रह सकता. जहाँ मैं सिर्फ़ एक सहारा बनकर रह जाऊँ, साथी नहीं.”
और वहीं, बारवी मंज़िल की बालकनी में खड़े होकर, शहर की टिमटिमाती रोशनी के बीच, दोनों ने स्वीकार किया के — उनका रिश्ता उस पॉइंट पर पहुँच चुका है, जहाँ “इक्वालिटी” बच गई थी, पर “हम” कही खो गया है. शायद दोनों के लिए अब “इक्वालिटी” के मायने अलग हो गए थे, या उनके संदर्भ अब बदल चुके थे. क्या हमें अब “इक्वालिटी” को भी एक "स्पेक्ट्रम" के रूप मे समझना होगा.
लोग बदलते हैं, जिंदगियाँ मोड़ लेती हैं. अब अंजलि ओर रोहन भी अलग हो गए है — किसी गुस्से, नफ़रत या कड़वाहट के कारण नहीं… बल्कि इसलिए कि कभी - कभी, दो अच्छे लोग भी एक साथ अच्छा जीवन नहीं जी पाते. ओर कभी-कभी, प्यार… बस प्यार ही काफी नहीं होता रिश्तो को ज़िंदा रखने के लिए…..
- डॉ प्रशांत साखरकर
मायामी, फ्लोरिडा, अमेरिका
psakharkar@gmail.com
सक्षिप्त परिचय
डॉ. प्रशांत साखरकर, अमेरिका में स्थित “लार्किन यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ फ़ार्मेसी” में असिस्टेंट डीन हैं. उन्हें मराठी और हिंदी साहित्य का गहरा शौक है और वे इन दोनों भाषाओं में लेखन भी करते हैं. उनकी रचनाएँ सामाजिक व्यवस्था, मानवीय संवेदनाओं और जीवन की जटिलताओं को नए दृष्टिकोण से उजागर करती हैं. उनके लेख और कहानियाँ क्षेत्रीय मराठी और हिंदी समाचारपत्रों तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.


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