उषा प्रियंवदा की कहानी वापसी का मूल्यांकन

SHARE:

उषा प्रियंवदा की कहानी वापसी का मूल्यांकन मूल्यों का विघटन मानवीय सम्बन्धों की जिन इकाइयों में बड़ी तीव्रता से महसूस होने लगा है, उनमें परिवार एक ऐसी

उषा प्रियंवदा की कहानी वापसी का मूल्यांकन


स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी एक अर्थ में परंपरागत मूल्यों के विघटन की कहानी है। इन मूल्यों का विघटन मानवीय सम्बन्धों की जिन इकाइयों में बड़ी तीव्रता से महसूस होने लगा है, उनमें परिवार एक ऐसी इकाई है, जहाँ स्थापित नैतिकता के कई मूल्य खोखले प्रमाणित हुए हैं। परिवार सामूहिक संस्थाओं की आखिरी कड़ी है, जहाँ व्यक्ति और उससे सम्बन्धित व्यक्तियों के आर्थिक, मानसिक एवं शारीरिक सम्बन्ध जुड़े हुए होते हैं, जिनमें दिन-ब-दिन दरारें पड़ती जाती हैं। उषा प्रियंवदा की प्रस्तुत कहानी 'वापसी' लगभग इसी थीम पर रची गयी है।
 
यह कहानी एक रिटायर्ड आदमी की है। गजाधर बाबू रेलवे विभाग में एक छोटे स्टेशन मास्टर थे। पैतीस वर्ष की लम्बी नौकरी के बाद वे घर लौटे। उन्होंने नौकरी का अधिकांश समय परिवार से दूर अलग गुजारा था। अब आशा थी कि अन्तिम समय घर के सदस्यों के बीच सुख तथा स्नेह से बीतेगा। घर में उनकी पत्नी, पुत्र, पुत्री तथा बहू सभी थे, किन्तु घर में वे अपने आपको 'एडजेस्ट' न कर सके। उनकी सभी आशाओं पर पानी फिर गया और वे निराश होकर कुछ ही दिनों में उस जगह नौकरी करने के लिए वापस लौट पड़े, जहाँ वे स्टेशन मास्टर थे। यहाँ इस बात को स्पष्ट करना आवश्यक मालूम होता है कि अपने घर तथा परिवार के सदस्यों में वे क्यों खप न सके ? इसके भिन्न-भिन्न कारण हैं, जिनकी ओर कहानी लेखिका ने संकेत दिये हैं। पहला संकेत तब मिलता है जब गजाधर बाबू घर में प्रविष्ट होते हैं। गजाधर बाबू के घर में प्रविष्ट होते समय बच्चों की स्थिति को देखकर स्पष्ट होता है कि उनमें परम्परागत मूल्यों को तोड़ने की छटपटाहट है, अनुशासन भंग करने की ललक है, किन्तु सभ्यता तथा वाह्य परदे के झीने आवरण में आकर वे अनुशासन भंग न करने का एक नाटक रचते हैं, जो कि बाद में आप-ही-आप भंग होता है।
 
उषा प्रियंवदा की कहानी वापसी का मूल्यांकन
नरेन्द्र, बसन्ती, बहू के मनो-विनोद में गजाधर बाबू भी भाग लेना चाहते थे, किंतु उनके आते ही जैसे सब ही कुंठित हो चुप हो गये, उससे उनके मन में थोड़ी-सी खिन्नता उपज आयी बैठते हुए बसन्ती से चाय के लिए अनुरोध किया, किन्तु वह भी फीकी ही मिली। पत्नी के आते-आते वे सभी गजाधर बाबू के कमरे से खिसक चुके थे और उन्हें अकेला छोड़ दिया गया था। इस प्रकार वे अपने ही घर में तथा अपने सदस्यों के बीच अकेलेपन तथा अजनबीपन की स्थिति का अनुभव करते हैं। गजाधर बाबू को अपने ही घर में अस्थायित्व का अनुभव होता है। उनकी चारपाई उस हीन स्थिति की प्रतीक है, जिससे वे गुजर रहे हैं। कुछ दिन तो बैठक में पड़ी रही, किन्तु शीघ्र ही पत्नी के छोटे से कमरे में डाल दी गयी जो कि घर के सामान से भरा हुआ गोदाम-सा था। घूमने के बाद जब गजाधर बाबू घर की बैठक में प्रविष्ट हुए तो अपनी चारपाई आचार, रजाइयों और कनस्तर के मध्य पत्नी की तंग कोठरी में पायी। यहाँ भी कहानीकार ने एक और संकेत किया है कि वयोवृद्ध रिटायर्ड व्यक्ति घर के दूसरे सदस्यों के लिए फालतू सामान के बराबर है और उसको फालतू सामान की तरह घर के गोदाम में रहना चाहिए।

गजाधर बाबू को लगा कि वे घर में फालतू या अनावश्यक सामान के बराबर हैं जो घर के किसी मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। उनका अपनी पुत्री बसन्ती पर कोई वश नहीं चलता, जो मना करने पर भी पराए घर में जाती रहती है। उनका पुत्र अमर अलग रहने की सोच रहा है, क्योंकि उसकी बहू की शिकायतें बहुत हैं। अमर का कहना था कि गजाधर हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैं, इसलिए आने-जाने वाले के लिए कोई जगह नहीं। यह चोट गजाधर बाबू को तब और असह्य लगी, जब उन्हें मालूम हुआ कि अमर के अलग रहने का ख्याल गजाधर बाबू के घर में प्रस्थान की वजह से है। इसलिए उनमें यह अहसास गहराता गया कि उनका अस्तित्व घर के वातावरण का कोई भाग न बन सका और उन्हें अपनी उपस्थिति घर में असंगत-सी लगी।
 
गजाधर बाबू को इस बात का बहुत दुःख हुआ कि उनकी पत्नी भी उनसे असम्बद्ध रही। यह वही पत्नी थी, जिसके कोमल स्पर्श तथा मुस्कान की याद में उन्होंने सम्पूर्ण जीवन काट लिया था, किंतु अब जिस बेरुखी से गजाधर बाबू से बातें करने लगी, उससे उन्हें जबर्दस्त ठेस पहुँची। उन्हें लगा कि, "वह लावण्यमयी युवती जीवन की राह में कहीं खो गयी और उसकी जगह आज जो स्त्री है, वह उनके मन और प्राणों के लिए नितान्त अपरिचिता है।" (श्री सुरेन्द्र) इसलिये स्वाभाविक था कि गजाधर बाबू अपने आपको पत्नी व बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन का निमित्त मात्र समझते। परिणामस्वरूप वे गहरा अकेलापन महसूस करने लगते थे, उषा प्रियंवदा ने गजाधर बाबू की अकेलेपन की स्थिति को उभारने के लिए एक-दो स्थानों पर व्यंग्य का सहारा भी लिया है। उदाहरणार्थ- “गजाधर बाबू को पटरी पर रेल के पहियों की खट्-खट् जो उनके लिए मधुर संगीत की तरह थी। तूफान और डाक गाड़ी के इंजनों की चिंघाड़ अकेली रातों की साथी थी।"
 
गजाधर बाबू की पत्नी भी घर में फालतू सामान के बराबर ही दिखाई गयी है। वह जिस तंग कोठरी में रहती है, उससे स्पष्ट होता है कि वह गोदाम के फालतू सामान के बराबर है। वह घर में दासी की तरह चौका-बर्तन तथा अन्य अनेक काम करती है, फिर भी उसकी कोई अहमियत नहीं हैं। चूँकि घर-गृहस्थी की चक्की में पिसती आयी है, इसलिये उसको अपनी स्थिति तथा अस्तित्व का कोई अहसास नहीं है। गजाधर बाबू की पत्नी के संदर्भ में कहानी-लेखिका का यह कथन कितना ठीक है- "वह घी और चीनी के डिब्बों में इतनी रमी हुई है कि अब वही उसकी सम्पूर्ण दुनिया बनी है।"
 
अपने आपको परिवार में अकेला तथा असम्बद्ध पाकर गजाधर बाबू उसी जगह वापस लौट पड़े, जहाँ वे स्टेशन मास्टर थे। वहीं उन्होंने एक चीनी मिल में नौकरी कर ली। 

प्रस्तुत कहानी का प्रभाव किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित नहीं है और न ही इसकी कोई चरम सीमा है। यह प्रभाव पूरी कहानी पर व्याप्त है। इसका कथानक प्रभाव बढ़ाने के लिए गढ़ा गया नहीं है। कहानी में जो घटनाएँ हमारे सामने आती हैं, वे स्वाभाविक लगती हैं। इस संदर्भ में डॉ० नामवर सिंह का यह कथन उचित है कि- “प्रस्तुत कहानी में छोटी-छोटी घटनाओं के दृश्य सामने आते हैं और सभी चित्र कुल मिलाकर एक जीवन मर्म का अर्थ ग्रहण कर लेते हैं। कहानी वर्णनात्मक से अधिक चित्रात्मक है, चरित्रों के क्रिया-कलापों पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ कम-से-कम हैं- क्रिया-कलापों का तथ्यपरक अंकन ही अधिक है।"
 
अपनी अन्य कहानियों की तरह कहानी-लेखिका ने वापसी कहानी की थीम को भावुक नहीं बनाया है, बल्कि इसको भावुक होने से बचाया है। यहाँ कोई भी पात्र गजाधर बाबू की दीन स्थिति के लिए आँसू की एक बूँद भी नहीं बहाता। गजाधर बाबू भी युग की आवाज तथा घर में अपनी स्थिति समझकर सहर्ष पुनः नौकरी के लिए वापस जाते हैं। वे देखते हैं कि परिवार के नवजवान सदस्यों में वे अपने आपकी एडजेस्ट करने में असमर्थ हैं। इसलिये जिस शीघ्रता से उन्होंने अवकाश प्राप्त करके घर में कदम रखे थे उसी जल्दबाजी में वे घर से वापस भी लौट पड़े। कहानी का शीर्षक 'वापसी' सांकेतिक है जो कि साधारणतः यह स्पष्ट करता है कि गजाधर बाबू नौकरी के लिए वापस लौट पड़े, किन्तु वे सारे परंपरागत आदर्श एवं मूल्य अपने साथ ले गये जो संयुक्त परिवार के बनाये हुए हैं। डॉ० धनंजय वर्मा के शब्दों में- “यह एक व्यक्ति की अपने ही द्वारा निर्मित अपने ही परिवार से वापसी की कहानी न होकर सारे पुराने मूल्यों से वापसी और एक नई दिशा और राह पर चलने की कहानी है।"

COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका