आधार कार्ड और निजता का अधिकार संतुलन की आवश्यकता

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आधार कार्ड और निजता का अधिकार संतुलन की आवश्यकता भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में आधार कार्ड एक क्रांतिकारी पहल के रूप में उभरा है। सन् 2009 मे

आधार कार्ड और निजता का अधिकार संतुलन की आवश्यकता

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में आधार कार्ड एक क्रांतिकारी पहल के रूप में उभरा है। सन् 2009 में भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) द्वारा शुरू की गई यह योजना दुनिया की सबसे बड़ी बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली बन चुकी है। आज लगभग १३० करोड़ से अधिक भारतीयों के पास १२ अंकों का यह विशिष्ट नंबर है, जो उंगलियों के निशान, आंखों की आईरिस और चेहरे की तस्वीर जैसी बायोमेट्रिक जानकारी से जुड़ा हुआ है। सरकार इसे “डिजिटल इंडिया” की रीढ़ मानती है क्योंकि इसके माध्यम से सब्सिडी, पेंशन, बैंक खाते, मोबाइल सिम, राशन कार्ड और अनेक सरकारी योजनाओं का लाभ सीधे जरूरतमंद तक पहुंचाया जा सकता है। यह दोहराव को रोकता है, भ्रष्टाचार को कम करता है और प्रशासनिक कार्यक्षमता को अभूतपूर्व ऊंचाई प्रदान करता है। लेकिन इसी आधार योजना ने निजता के अधिकार को लेकर देश के सामने सबसे बड़ा संवैधानिक और नैतिक सवाल खड़ा कर दिया है।

निजता का अधिकार भारत में अब मूल अधिकार का हिस्सा है। सन् २०१७ में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संवैधानिक पीठ ने के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ मामले में सर्वसम्मति से घोषणा की कि निजता का अधिकार अनुच्छेद २१ के अंतर्गत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का अभिन्न अंग है। अदालत ने माना कि व्यक्ति का अपना शरीर, उसकी बायोमेट्रिक जानकारी, उसकी निजी पसंद और उसका डेटा उसके निजी क्षेत्र का हिस्सा है। राज्य इस क्षेत्र में तभी दखल दे सकता है जब उसका उद्देश्य Legitimate हो, कानूनी आधार हो और वह आनुपातिक (proportionate) हो। आधार योजना के शुरुआती दिनों में कोई अलग से कानून नहीं था; इसे केवल कार्यकारी आदेश से चलाया जा रहा था। इससे निजता का खतरा और भी गंभीर हो गया था।

आधार के पक्ष में तर्क

आधार कार्ड और निजता का अधिकार संतुलन की आवश्यकता
आधार के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क यह है कि यह गरीबों और वंचितों को मुख्यधारा में लाता है। जिस व्यक्ति के पास कोई पहचान पत्र नहीं था, वह बैंक खाता नहीं खोल पाता था, मोबाइल सिम नहीं ले पाता था, उसे सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता था। आधार ने लाखों ऐसे लोगों को एक झटके में पहचान दे दी। डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) के जरिए सैकड़ों हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी सीधे लाभार्थी के खाते में पहुंची और बीच के बिचौलियों का खेल खत्म हुआ। सरकार का दावा है कि केवल एलपीजी सब्सिडी में ही १ लाख करोड़ रुपये से अधिक की बचत हुई है। यह डिजिटल अर्थव्यवस्था की आधारशिला भी है; बिना मजबूत पहचान के फिनटेक क्रांति संभव नहीं थी। परंतु इस सुविधा की भारी कीमत निजता के रूप में चुकाई जा रही है। आधार में एकत्रित बायोमेट्रिक डेटा “अपरिवर्तनीय” होता है—यदि पासवर्ड चोरी हो जाए तो उसे बदला जा सकता है, लेकिन उंगलियों के निशान या आईरिस स्कैन कभी नहीं बदले जा सकते। यदि यह डेटा कभी लीक हुआ या दुरुपयोग हुआ तो व्यक्ति आजीवन खतरे में रहेगा। पिछले कुछ वर्षों में कई बार आधार डेटा की लीकेज की खबरें आईं; कुछ वेबसाइट्स पर तो मात्र एक रुपया देकर किसी का भी आधार नंबर प्राप्त किया जा सकता था। सेंट्रलाइज्ड डेटाबेस का मतलब है एक ही जगह पर पूरे देश की बायोमेट्रिक जानकारी जमा होना—यह हैकर्स के लिए स्वर्ग के समान है।सबसे खतरनाक पहलू है “प्रोफाइलिंग” और सर्विलांस की संभावना। आधार को हर जगह अनिवार्य बनाने की कोशिश (बैंक खाता, मोबाइल, स्कूल प्रवेश, यहां तक कि श्मशान घाट में अंतिम संस्कार तक) से व्यक्ति के जीवन का हर लेन-देन एक ही नंबर से जुड़ जाता है। इससे राज्य या कोई निजी कंपनी व्यक्ति की पूरी जिंदगी का नक्शा तैयार कर सकती है—वह कहां गया, क्या खरीदा, किससे मिला, कब अस्पताल गया, कितना टैक्स दिया। यह “बिग ब्रदर इज वॉचिंग यू” वाली स्थिति पैदा करता है। न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने पुट्टस्वामी मामले में चेतावनी दी थी कि आधार जैसी व्यवस्था तानाशाही के लिए सबसे उपयोगी हथियार सिद्ध हो सकती है क्योंकि यह असहमति रखने वालों को आसानी से चिह्नित किया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने सन् २०१८ में आधार मामले के अंतिम फैसले में कुछ राहत दी। उसने आधार को बैंक खातों, मोबाइल सिम और स्कूल प्रवेश से जोड़ने को असंवैधानिक घोषित किया। केवल सरकारी कल्याणकारी योजनाओं, पैन कार्ड और आयकर रिटर्न के लिए ही इसे अनिवार्य रखा। साथ ही अदालत ने कहा कि निजी कंपनियां आधार का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। लेकिन इसके बावजूद कई क्षेत्रों में आधार का दबाव बना हुआ है और डेटा संरक्षण का मजबूत कानून अभी भी कमजोर है। व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक वर्षों से लटका हुआ है और जो प्रस्तावित है उसमें सरकारी एजेंसियों को व्यापक छूट दी गई है।इसलिए अब प्रश्न यह नहीं है कि आधार अच्छा है या बुरा, बल्कि यह है कि हम इसके लाभों को बनाए रखते हुए निजता के अधिकार की रक्षा कैसे करें। इसके लिए कुछ ठोस कदम जरूरी हैं। सबसे पहले तो मजबूत, स्वतंत्र और आधुनिक डेटा संरक्षण कानून बनना चाहिए जिसमें सरकारी और गैर-सरकारी दोनों क्षेत्रों पर समान रूप से लागू हो। यूरोप का जीडीपीआर इसका अच्छा उदाहरण है। दूसरे, आधार का डेटा न्यूनतम (minimal) रखा जाए—जितनी जरूरत हो उतना ही। तीसरे, बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण को हमेशा वैकल्पिक रखा जाए; जहां संभव हो वहां स्मार्ट कार्ड या वर्चुअल आईडी जैसे विकल्प दिए जाएं। चौथे, डेटाबेस को पूरी तरह सेंट्रलाइज्ड रखने के बजाय फेडरेटेड मॉडल अपनाया जाए जिसमें हर विभाग का अपना अलग डेटाबेस हो और केवल जरूरत पड़ने पर ही क्रॉस-रेफरेंसिंग हो। पांचवें, यूआईडीएआई को पूरी तरह स्वायत्त और पारदर्शी बनाया जाए तथा उसके ऊपर एक स्वतंत्र निगरानी संस्था हो।

आधार और निजता के बीच संतुलन

आधार और निजता के बीच संतुलन असंभव नहीं है। तकनीक ही समस्या है तो तकनीक ही समाधान भी है। यदि हम ब्लॉकचेन, जीरो-नॉलेज प्रूफ और एन्क्रिप्शन जैसी नई तकनीकों का इस्तेमाल करें तो पहचान सत्यापित करते हुए भी निजी जानकारी गोपनीय रखी जा सकती है। एस्टोनिया जैसे छोटे देश ने ई-गवर्नेंस में यह सफलता प्राप्त की है जहां नागरिक का डेटा पूरी तरह सुरक्षित है और वह खुद तय करता है कि उसका डेटा कौन देख सकता है। भारत जैसे बड़े देश के लिए चुनौती ज्यादा है, लेकिन इच्छाशक्ति और दूरदर्शिता से इसे पार किया जा सकता है।अंत में यही कहा जा सकता है कि आधार जैसी योजनाएं विकास का सशक्त माध्यम बन सकती हैं बशर्ते हम यह न भूलें कि किसी भी राज्य की सबसे बड़ी जिम्मेदारी अपने नागरिकों की गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा करना है। जब तक हम निजता के अधिकार को केवल एक बाधा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा मानेंगे, तब तक आधार और निजता के बीच सही संतुलन स्थापित नहीं हो सकता। यह संतुलन केवल कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक भी होना चाहिए। तभी हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर पाएंगे जहां तकनीक नागरिक को सशक्त बनाए, गुलाम नहीं।

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