कला और संस्कृति में सरकारी प्रोत्साहन: महत्व और आवश्यकता

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कला और संस्कृति में सरकारी प्रोत्साहन: महत्व और आवश्यकता कला और संस्कृति किसी राष्ट्र की साँस हैं। ये केवल मनोरंजन या सजावट नहीं हैं, बल्कि समाज की

कला और संस्कृति में सरकारी प्रोत्साहन: महत्व और आवश्यकता


ला और संस्कृति किसी राष्ट्र की साँस हैं। ये केवल मनोरंजन या सजावट नहीं हैं, बल्कि समाज की स्मृति, उसकी संवेदना, उसकी नैतिकता और उसकी कल्पनाशक्ति का सबसे जीवंत प्रमाण होती हैं। जब कोई विदेशी भारत आता है, तो वह ताजमहल, अजंता-एलोरा, कथक, भरतनाट्यम, रवीन्द्र संगीत, बैजू बावरा की रागदारी या राजस्थानी फड पढ़ने की परंपरा देखकर ही भारत को समझता है, न कि केवल जीडीपी के आँकड़ों या मिसाइलों की संख्या से। कला और संस्कृति राष्ट्र की सॉफ्ट पावर हैं, जो सदियों तक जीवित रहती हैं, जब राजनैतिक सीमाएँ, अर्थव्यवस्थाएँ और सत्ताएँ बहुत पहले मिट चुकी होती हैं।

बाजार केवल व्यावसायिक रूप से सफल कला को बचाता है

कला और संस्कृति में सरकारी प्रोत्साहन: महत्व और आवश्यकता
आज का समय बाजार का समय है। बाजार केवल वही बचाता है जो बिकता है। जो तुरंत नहीं बिकता, उसे वह कूड़ा समझता है। शास्त्रीय संगीत, लोक कथाओं की मौखिक परंपरा, हस्तशिल्प की पुरानी शैलियाँ, प्राचीन थिएटर फॉर्म, लुप्तप्राय भाषाओं का काव्य, आदिवासी चित्रकला—ये सब बाजार के लिए “अनउपयोगी” हैं। इनकी जगह ले रहे हैं तेज रफ्तार वाले गाने, रियलिटी शो और इंस्टाग्राम रील्स। यह प्राकृतिक चयन नहीं, सांस्कृतिक विनाश है। अगर सरकार इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप न करे, तो कुछ दशकों में हम अपने ही बच्चों को यह बताने में असमर्थ हो जाएँगे कि कभी हमारे गाँवों में डोरा-कठपुतली हुआ करती थी, कि मध्य प्रदेश के गोंड जनजाति के लोग दीवारों पर ऐसी पेंटिंग बनाते थे जो पिकासो को भी लज्जित कर देती थीं, या कि मणिपुर का लाई हरोबा नृत्य दुनिया का सबसे पुराना जीवित नाट्य रूप है।सरकार का प्रोत्साहन केवल पैसा देना नहीं है। यह एक संदेश भी है—कि राष्ट्र इन कलाओं को महत्वपूर्ण मानता है। जब सरकार साहित्य अकादमी पुरस्कार देती है, संगीत नाटक अकादमी बनाती है, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र चलाती है, त्योहारों को राष्ट्रीय अवकाश घोषित करती है, पुरातत्व सर्वेक्षण करती है, तो वह समाज को बता रही होती है कि ये चीजें हमारे होने का आधार हैं। यह आत्मविश्वास पैदा करता है। कलाकार को लगता है कि वह अकेला नहीं है।
 

कलाएँ राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण हैं

समाज को लगता है कि उसकी जड़ें अभी भी जिंदा हैं। दुनिया के कई देशों ने इस बात को बहुत पहले समझ लिया था। फ्रांस में राज्य कला को सब्सिडी देता है, थिएटर को टैक्स में छूट देता है, सिनेमा को संरक्षण देता है—नतीजा यह है कि फ्रेंच भाषा और फ्रेंच सिनेमा आज भी जीवित हैं। दक्षिण कोरिया ने 1990 के दशक में अपनी के-पॉप और कोरियन फिल्म इंडस्ट्री को भारी सरकारी सहायता दी, आज वह दुनिया की सांस्कृतिक राजधानी बन चुका है। जापान ने अपनी परंपरागत कलाओं को “राष्ट्रीय जीवित खजाना” घोषित किया और कलाकारों को जीवन भर पेंशन दी—फलस्वरूप बुनकाकू कठपुतली, नोह थिएटर और क्योटो की गीशा परंपरा आज भी जीवित हैं।

भारत में भी मुगल बादशाहों और दक्षिण के राजाओं ने कलाकारों को जागीरें दी थीं, गुरु-शिष्य परंपरा को संरक्षण दिया था—उसी का परिणाम है कि आज भी हम कथक, ध्रुपद, ओडिसी और कर्नाटक संगीत की बात कर पाते हैं।आज जरूरत इस बात की है कि सरकारी प्रोत्साहन केवल बड़े शहरों के एलीट कलाकारों तक सीमित न रहे। असली चुनौती गाँव-कस्बों में बची हुई लोक कलाओं को बचाने की है। बिहार का मधुबनी चित्र अब ज्यादातर टूरिस्ट आइटम बन चुका है, लेकिन गाँवों में अब नई पीढ़ी इसे नहीं सीख रही। गुजरात का पाटण का पटोला बुनाई का शिल्प सिर्फ चार-पाँच परिवारों में बचा है। मणिपुर का फी संग्राई थान्जा बुनाई लुप्त होने की कगार पर है। इन सबको बचाने के लिए सरकार को स्कूलों में अनिवार्य कला शिक्षा लागू करनी होगी, जीआई टैग से आगे बढ़कर वास्तविक प्रशिक्षण केंद्र बनाने होंगे, कलाकारों को न्यूनतम मासिक वजीफा देना होगा, और सबसे जरूरी—इन कलाओं को आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिक बनाना होगा।

कला संस्कृति सभ्यता का ऑक्सीजन है

कला को संग्रहालय में कैद करके नहीं बचाया जा सकता। उसे जीवित रहना है तो उसे साँस लेने देना होगा। सरकार का काम केवल पुराने को संरक्षित करना नहीं, नए को जन्म देने का माहौल बनाना भी है। आज का युवा अगर अपनी भाषा में रैप कर रहा है, अगर वह लोक कथाओं को एनिमेशन में बदल रहा है, अगर वह आदिवासी बीट्स पर इलेक्ट्रॉनिक संगीत बना रहा है—तो उसे भी उतना ही प्रोत्साहन मिलना चाहिए जितना शास्त्रीय गायक को मिलता है। संस्कृति कोई स्थिर चीज नहीं, वह सतत प्रवाह है। सरकार का दायित्व है कि वह इस प्रवाह को सूखने न दे और न ही उसे जबरन एक खाँचे में बाँध दे।

अंत में यही कहा जा सकता है कि अगर राष्ट्र को केवल आर्थिक विकास चाहिए तो कारखाने, सड़कें और बाँध काफी हैं। लेकिन अगर राष्ट्र को आत्मा चाहिए, अगर वह चाहता है कि उसकी आने वाली पीढ़ियाँ यह जान सकें कि वे कहाँ से आए हैं और वे कहाँ जा रहे हैं, तो कला और संस्कृति को सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन अनिवार्य है। यह कोई लग्जरी नहीं, यह हमारी सभ्यता का ऑक्सीजन है। जिस दिन यह बंद हुआ, हम जीवित तो रह जाएँगे, लेकिन भारत कहलाने के लायक नहीं रहेंगे।

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