१२ सितंबर एक तारीख, दो जिंदगियां हर इंसान की ज़िंदगी में कोई न कोई तारीख ऐसी होती है जो जाने-अनजाने उसके दिल की दीवार पर हमेशा के लिए छप जाती है.
१२ सितंबर एक तारीख, दो जिंदगियां
हर इंसान की ज़िंदगी में कोई न कोई तारीख ऐसी होती है जो जाने-अनजाने उसके दिल की दीवार पर हमेशा के लिए छप जाती है. मेरी ज़िंदगी में वह तारीख—१२ सितम्बर है. तब शायद मुझे अंदाज़ा भी नहीं था कि यह तारीख हम दो अजनबियों की ज़िंदगी की दिशा ही बदल देगी, हमें हमारी-हमारी नियति की ओर धकेल देगी.
इसी १२ सितम्बर को मैंने उसे पहली बार देखा था। वह मुझसे कुछ साल बड़ी रही होगी। उस समय मैं नौवीं कक्षा में था। वह वहाँ मेरे हमउम्र लड़के-लड़कियों के साथ बड़ी सहजता से घुलमिलकर बातें कर रही थी.
उसकी सहजता… उसका आत्मविश्वास… अपने से छोटे लड़के-लड़कियों के बीच बिना झिझक घुल जाना—यह सब मेरे लिए अनसुना, अनदेखा, और लगभग अविश्वसनीय था. उन दिनों किसी बड़ी उम्र के लडके लडकियों से बात करते समय एक तय दूरी को बनाए रखना पड़ता था—और अगर वह लड़की हो तो वह दूरी और भी चौड़ी हो जाती थी. पर उसमें ऐसा कोई बनावटी संकोच नहीं था.मैं दूर खड़ा, मंत्रमुग्ध-सा उसे देखता रहा.
मेरे जैसा शर्मीला, दब्बू, साँवला और साधारण सा लड़का—जिसकी कोई खास पहचान न हो—ऐसे लड़के के लिए उन बच्चों के बीच जाकर किसी बड़ी लड़की से बात करना, तब जब उसका उस लड़की से कोई रिश्ता न हो, लगभग असंभव और मूर्खतापूर्ण लग रहा था.
पर न जाने कहाँ से थोड़ी-सी हिम्मत जुटाकर मैं धीरे-धीरे उनके पास जाकर खड़ा हो गया। बस इतना पास कि उसकी आवाज़ मेरे कानों तक पहुँच सके. और तभी—मेरे भीतर जैसे कोई घंटी-सी बज उठी।
उसकी कोमल, नाज़ुक आवाज़ ने पहली बार मुझे संबोधित किया —
“क्या तुम हमारे साथ बात करना पसंद करोगे? आ जाओ। तुम्हारा नाम क्या है?”
और वो मुस्कुराते हुए बोली—
“मेरा नाम कविता है.”
बाकी लड़के-लड़कियों ने भी अपना परिचय दिया। यह मेरे जीवन का पहला अवसर था जब बिना किसी झिझक के किसी ने मुझे इतनी सहजता से अपने ग्रुप में शामिल किया था.
हम देर तक बहुत सी बातें करते रहे—पर हर बात का केंद्र था मित्रता, आज़ादी, अपनी पहचान और बराबरी. यह सब उस उम्र में मेरी समझ से परे था, फिर भी उसके साथ बैठकर लगा था कि जैसे मैं भी इस बातचीत का हिस्सा हूँ—जैसे मेरी भी कोई पहचान है.
धीरे-धीरे सूरज ढलने लगा. शाम रात की गोद में सिमटने को बेताब थी. मैं चाहता था कि यह क्षण यहीं ठहर जाए—पर प्रकृति को शायद यह मंजूर न था.
अँधेरा बढ़ने लगा। अब सब अपने घरों की ओर चल पड़े थे.
मेरे पैर जैसे मिट्टी में धँस गए थे—मैं हिलना ही नहीं चाहता था.
कविता ने जैसे मेरे मन को पढ़ लिया.
वह कुछ कदम आगे जाकर मुड़ी और बोली—
“क्या तुम घर नहीं जाओगे? कोई तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर रहा होगा? हम फिर मिलेंगे…”
ये कहकर वो मुस्कुराते हुए चली गई.
मैं भी अनमने मन से घर की ओर निकल पड़ा.
मुझे क्या पता था कि यह मुलाक़ात मेरे भीतर कैसी उथल-पुथल मचाने वाली है.
रात भर मैं उस अनोखे अनुभव को समझने की कोशिश करता रहा। कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.
अगले कई दिनों तक मैं उसी जगह जाता रहा, इस उम्मीद में कि शायद वे सब फिर दिख जाएँ—पर न वे लड़के-लड़कियाँ दिखे, न कविता.
कविता की सहजता, उसकी स्त्री-पुरुष बराबरी की बातें—यह सब मेरी समझ से परे था. पर न जाने क्यों, मैं उससे बात करना चाहता था, उसे समझना चाहता था, उसके बारे में और जानना चाहता था. कविता का व्यक्तित्व मुझे उसकी और बस खिंच रहा था।
यह भारत का वह दशक था जब नई विचारधाराओं की लहर उठ रही थी. युवा अपने माता-पिता की दकियानूसी सोच से मुक्त होना चाहते थे. बिहार में बंधुआ मज़दूरों का आंदोलन चरम पर था. कॉलेज कैंपस हों या गाँव की गलियाँ—हर जगह बदलाव की हवा थी.
खादी की बंगाली शर्ट, जीन्स, चेहरों पर दाढ़ी, और कंधे पर शबनम बैग—प्रगतिशील होने की पहचान बन चुके थे.
एक शाम मैं रोज़ की तरह सब्ज़ी लेने बाज़ार गया था. पास ही एक भीड़ जुटी थी—बिहार के बंधुआ मज़दूरों की मुक्ति पर सभा हो रही थी. महाराष्ट्र के एक छोटे से कस्बे में ऐसे आंदोलन का क्या अर्थ? मुझे कुछ समझ नहीं आया, फिर भी मैं भीड़ में शामिल हो गया.
मेरी नज़र भीड़ में परिचित चेहरोंको ढूँढ रही थी—और तभी मुझे वह दिखाई पड़ी – कविता.
इतने दिनों बाद उसे देखकर मेरा मन खिल उठा था.
कविता भी शायद उसी भीड़ में किसी परिचित को ढूँढ रही थी—उसने मुझे दूर से ही पहचान लिया था. कविता ने मुझे इशारो से अपने पास बुलाया और में किसी तरह भीड़ को चीरकर उस तक जा पहुंचा.
कविता ने बड़ी गर्मजोशी से मुझे अपने दोस्तों से मिलवाया—उनमे लड़के भी थे, और लड़कियाँ भी.
दूसरी बार भी उसने मुझे उतनी ही सहजता से अपने ग्रुप में शामिल कर लिया। उस दिन मैंने इन नए दोस्तों के साथ काफी समय बिताया, उम्र के अंतर के बावजूद किसी ने मुझे मैं उनसे उम्र में छोटा हु, या अलग हु, इस बात का अहसास नहीं कराया था. इस दिन पहली बार मुझे एहसास हुआ था कि लड़के-लड़कियों में स्वस्थ दोस्ती हो सकती है—और यह किसी तरह गलत नहीं है. यह मेरे भीतर आने वाले परिवर्तन की पहली चिंगारी थी।
सब्ज़ी लेना मैं पूरी तरह भूल चुका था—माँ की डाँट के डर पर कविता से मिलने की खुशी भारी हो गयी थी।
धीरे-धीरे मैं इस मंडली का हिस्सा बन गया.
मैं हर संभव बहाना ढूँढता—कविता से मिलने का, उससे बातें करने का।
वह भी शायद यह महसूस करने लगी थी.
उन दिनों हम कई सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने लगे. इन दिनों मैं भी कविता के साथ काफी समय बिताने लगा था. आनंद—कविता का पुराना और बहोत करीबी दोस्त—हमेशा उसके साथ दिखता था.
मैंने एक-दो बार उसकी तरफ़ से अपने प्रति हल्की-सी ईर्ष्या महसूस की, पर कविता के कारण शायद वह इसे कभी खुलकर नहीं दिखा पाया, या कह पाया था. इन्हीं दोस्तों की वजह से मैं समाजवाद, जेंडर इक्वलिटी, मार्क्सवाद, तर्कवाद—इन विचारों से परिचित हुआ.
यह सब मेरे लिए नया भी था, और कहीं-कहीं रोमांटिक भी. सत्ता-विरोध का उनका गुस्सा, प्रगतिशील सोच, सामाजिक बंधनों से लड़ने का साहस किसी को भी चुंबक की तरह उनकी और आकर्षित कर सकता था.
समय बीतता गया. नए चेहरे आते गए.
कविता की सोच किसी भी ‘इज़्म’ में कैद नहीं होना चाहती थी —वह तो बस मानवता और बराबरी में विश्वास करती थी. बड़ी बड़ी अकादमिक बहसों से दूर, वह काम करने में विश्वास रखती थी.
कविता एक आज़ाद पंछी की तरह जीना चाहती थी—बिना बंधन, बिना रोक-टोक के. वो किसी भी बंधन के बोझ तले दबना नहीं चाहती थी, फिर वो बोझ चाहे दोस्ती, प्यार या शादी का ही क्यों न हो.
पर हमारा समाज तब शायद इतनी ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाया था.
उसने कई बार “अमृता प्रीतम” का नाम लिया था—पर उसका अर्थ मुझे कई वर्षों बाद “रसीदी टिकट” पढ़ने पर समझ आया। तब कही जाकर शायद मैं कविता को थोड़ा समझ पाया था.
समय आगे बढ़ता गया। पढ़ाई के लिए सब अलग दिशाओं में चले गए.
मुझे गाँव छोड़ना था। कविता भी किसी दूसरे शहर जा रही थी.
मुझे नहीं पता था कि अब उससे मिलना कितना मुश्किल हो जाएगा.
नई जगह नए दोस्त बने, उनमे कुछ लड़कियाँ भी थी.
मैं उनका उतनाही सम्मान करता—जो कविता हमसे करवाती थी.
जब भी मैं छुट्टियोमे घर आता तो कविता की खबर लेने की कोशिश करता—
दोस्तों ने बताया कि कविता और आनंद की दोस्ती अब टूट चुकी है. उनके बीच झगड़े होने लगे थे—आनंद, कविता और मेरे रिश्ते को लेकर काफी नाराज था. कविता ने बहोत कोशिश की थी उसे समझाने की हम दोनों में एक अच्छे दोस्ती के अलावा कुछ भी नहीं है. पर आनंद समझना ही नहीं चाहता था. इन मनमुटाव के चलते, आनंद ने दोस्ती और प्रेम की के बिच की वो नाज़ुक लकीर लांध दी थी.
कविता ने बहुत कोशिश की थी, पर इस तूफ़ान से ना वो दोस्ती को बचा पायी, ना अपने आप को.
वह अपना दोस्त भी खो बैठी, और अपना विश्वास भी.
शायद इसी वजह से उसने हम सब से अब दूरी बना ली थी.
पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी की तलाश में मैं महानगर आ गया था.
कॉलेज के दिनों में मेरी मुलाकात “सुहाना” से हुई—जिसके व्यक्तित्व में मुझे कई बार कविता की छवि दिख जाती थी. शायद इसी कारण मैं उसकी ओर आकर्षित हुआ था.
हम दोनोने मिलकर अब महानगर को अपना घर बना लिया था. विश्वविद्यालय में अध्यापन की स्वतंत्रता ने हमें अपनी दुनिया अपने तरीके से जीने का अवसर दिया.
कविता अब किसी छोटे से गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ाती है. इन वर्षों में उसके कई तबादले हो चुके हैं. इन तबादलों की वजह किसी हद तक शायद उसका वही व्यक्तित्व रहा होगा.
बाकी दोस्त भी अपनी-अपनी जद्दोजहद में उलझ गए—कुछ ठीक-ठाक जीवन जी रहे हैं, कुछ निराशा के चलते नशे में डूब गये । दो-तीन दोस्तों ने अपने विचारों को अब राजनीतिक चोला पहना दिया है.
फिर एक दिन अचानक कविता की शादी का निमंत्रण मिला.
यह खबर काफी चौंकाने वाली थी—कविता वही विवाह-बंधन को स्वीकार कर रही थी जिससे वह हमेशा ही मुक्ति चाहती थी. पता चला है उसका पति बेहद शक्की और रूढ़िवादी विचारों वाला है.
अब बहुत समय बीत चुका है. बच्चे बड़े होकर अपनी-अपनी दुनिया में स्थापित हो चुके हैं.
ढलती उम्र में, बीती यादों को संजोकर जीने के अलावा बचता भी क्या है?
आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है—कैसे उस १२ सितम्बर ने दो अजनबियों की ज़िंदगी बदल दी.
अगर मैं और कविता उस दिन नहीं मिले होते — तो न जाने हमारी ज़िंदगियाँ किस राह पर जातीं, कौन सा मोड़ ले चुकी होतीं. मैं नहीं जानता.
- डॉ. प्रशांत साखरकर
मायामी, फ्लोरिडा, अमेरिका
psakharkar@gmail.com
संक्षिप्त परिचय
डॉ. प्रशांत साखरकर, अमेरिका में स्थित “लार्किन यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ फ़ार्मेसी” में असिस्टेंट डीन हैं। उन्हें मराठी और हिंदी साहित्य का गहरा शौक है और वे इन दोनों भाषाओं में लेखन भी करते हैं। उनकी रचनाएँ सामाजिक व्यवस्था, मानवीय संवेदनाओं और जीवन की जटिलताओं को नए दृष्टिकोण से उजागर करती हैं। उनके लेख और कहानियाँ क्षेत्रीय मराठी और हिंदी समाचारपत्रों तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।


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