कुछ गाने रैंडम से ख़याल और तुम ! प्रिय संजीवनी, कैसी हो तुम? पता नहीं... या तो शायद ढेर सारी चीज़ों में उलझ गई होगी, या फिर यूँ ही खुद को व्यस्त रखने
कुछ गाने रैंडम से ख़याल और तुम !
गानों का कारवां चल पड़ा, और तभी रॉकस्टार फिल्म का वह गाना बजने लगा—इरशाद कामिल के लिखे लफ़्ज़ और मोहित चौहान की आवाज़। इस गाने के अल्फाजो ने मुझे थोड़ा-सा नॉस्टैल्जिक तो कर दिया, साथ साथ वो कुछ पुराणी यादे भी ताजा करा गया! ऐसा लग रहा था जैसे इरशाद कामिल ने इसकी कुछ पंक्तियाँ शायद तुम्हारे लिए ही लिखी हों!
कहाँ ऐसा होता है कि जो हम महसूस करते हैं, वो हम ठीक से कह भी पाते हैं? हम महसूस करते तो कुछ और हैं, और कह जाते कुछ और!
"जो भी मैं कहना चाहूँ, बर्बाद करें अल्फ़ाज़ मेरे..."
ये शायद तुम्हारे साथ अक्सर हुआ था... या फिर अब भी होता होगा!
कागज़ों पर तुम बेतहाशा खरी उतरी हो जब भी तुम्हारी कलम ने उनसे मुलाकात की होगी। लेकिन वही अल्फ़ाज़ जब किसी के रूबरू कहने की बारी आई होगी, तो शायद वो उतनी शिद्दत से नहीं निकल पाए होंगे।
क्या हर अहसास को कागज़ पर उतारा भी जा सकता है भला? ऐसा होता, तो अब तक हम सबकी कितनी ही किताबें छप चुकी होतीं! तुम्हारे ज़ेहन में चल रही वो कश्मकश, कभी तुम्हारी ख़ामोशियों में क़ैद हो जाती, तो कभी किसी ख़ामोश कोने में बहते आँसुओं के ज़रिए बाहर निकल आती। मैंने तुम्हारे लफ़्ज़ों में हमेशा एक रहस्य पाया है, जिसे डिकोड करना तब भी असंभव था... और अब भी है!
तुम बड़ी आसानी से दूसरों के अहसासों को बाहर निकाल लाती थी, मगर अपने जज़्बातों को बड़े संभालकर रखा है दिल के करीब! तुम्हारे अंदर दबी वो भावनाएँ, जिन्हें तुमसे जुदा करने की कोशिश तो की थी, मगर शायद मैं ही कहीं कम पड़ गया था... नहीं?शायद यही वो वजह थी जो हर मुश्किल की जड़ बन गई थी! जो बातें तुम इतनी आसानी से लिख पाती थी, वो अगर उतनी ही आसानी से कह पाती, तो कितना अच्छा होता! हम सबकी—और तुम्हारी भी—ज़िन्दगी थोड़ी आसान हो जाती, है ना? मैंने तुम्हें तुम्हारी लिखाई से ज़्यादा जाना है, बजाय तुम्हारे कहे हुए लफ़्ज़ों से। तुम्हारी बातें कभी-कभी तुम्हारी भावनाओं को ठीक से उजागर नहीं कर पाती थीं...
कई साल पहले, जब तुमने किसी वजह से अपनी राह बदल ली थी, हमारे बीच की दूरियाँ बढ़ती चली गईं। हमारी राहें अब बिल्कुल अलग हो चुकी थी। इन दूरियों के चलते तुम मुझसे शायद कुछ कहना चाहती थी, पर कभी कह नहीं पायी होगी...
"मैं तुम्हारा ज़िक्र शायद न करूँ अब, पर तुम मेरी फ़िक्र करना मत छोड़ना!"
तुम पूछोगी कि इन रैंडम ख्यालों का अब कोई मायने भी है या नहीं... तो मेरा जवाब भी तुम्हारी तरह ही होगा— "शायद!"
शायद यही बेतरतीब ख़याल हमारी ज़िन्दगी को थोड़ा-बहुत आगे बढ़ने की ऊर्जा देते हैं। वरना, ज़िन्दगी तो कब की सूखे पत्तों की तरह अफ़सोस और नाकामी की आग में जल चुकी होती!
अब जब तुम्हारा ख़याल दिल में आ ही गया है, तो जानना चाहता था— तुम किस मिट्टी की बनी हो?
और न जाने कितने ही लोग इसी मिट्टी के बने होंगे! मैं उस मिट्टी को करीब से देखना चाहता हूँ, परखना चाहता हूँ... और उसे सहेजकर रखना चाहता हूँ! नहीं जानता, ये अब मुमकिन भी है या नहीं। इतने सालों तक अजनबियों की तरह जीने के बाद... अब तुम्हें मिलकर, फिर से तुम्हें जानकर ऐसा महसूस होता है कि न जाने कितने टुकड़ों में बँट चुकी हो तुम! क्या तुम्हारे पास अब भी किसी को देने के लिए कुछ बचा भी है या नहीं...?
अब मौसम का मिज़ाज भी थोड़ा बदलने लगा है... धूप हल्के-हल्के बादलों के पीछे छुपने लगी है। गुलज़ार साहब का एक प्यारा-सा गाना यू-ट्यूब पर बजने लगा है—
"मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है... मुझे मेरा वो सामान लौटा दो..."
शायद तुम्हारा भी कुछ सामान मेरे पास अब भी पड़ा है। तुमने ज़िद करके अपनी लिखी हुई चिट्ठियाँ मुझसे वापस ले ली थीं, जो मैंने अनमने भाव से लौटा तो दी थीं, मगर तुमने उन्हें क्यों वापस माँगा था—ये मैं न तब समझ पाया था, न अब समझ सकता हूँ।
अब सोचता हूँ—अगर तुम्हें मुझसे अब कुछ वापस माँगना ही पड़े, तो तुम क्या माँगोगी? और मैं तुम्हें क्या लौटा पाऊँगा—ये भी नहीं जानता! लेकिन सच यही है... तुम्हारा कुछ सामान अब भी मेरे पास पड़ा है!
मौसम अब और भी नम हो गया है... बादलों ने धूप को कसकर अपनी बाहों में जकड़ लिया है। दिन भी धीरे-धीरे रात की आगोश में सिमट रहा है। गानों के सिलसिले में अब एक और गीत बज रहा है-“चुप तुम रहो, चुप हम रहे….”, इस रात की सुबह नहीं इस फिल्म का!
शायद यही गाना मुझे ये जताने की कोशिश कर रहा है कि मुझे अब बस यहीं रुक जाना चाहिए! लगता है, इस रात की भी कोई सुबह नहीं, इस फिल्म की टाइटल की तरह……….
इन गानों के चलते ये सारे रैंडम ख़याल मेरे ज़ेहन में आए, जो मैं तुमसे साझा करना चाहता था... बस, और कुछ नहीं !


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