शैक्षिक प्रशासन में सिद्धांत की आवश्यकता शैक्षिक प्रशासन में सिद्धांतों की आवश्यकता एक ऐसी आधारशिला है, जो शैक्षिक संस्थानों के सुचारु संचालन, प्रभाव
शैक्षिक प्रशासन में सिद्धांत की आवश्यकता
शैक्षिक प्रशासन में सिद्धांतों की आवश्यकता एक ऐसी आधारशिला है, जो शैक्षिक संस्थानों के सुचारु संचालन, प्रभावी प्रबंधन और दीर्घकालिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपरिहार्य है। सिद्धांत वह दिशानिर्देशक ढांचा प्रदान करते हैं, जो प्रशासकों को जटिल परिस्थितियों में तार्किक और व्यवस्थित निर्णय लेने में सहायता करते हैं। यह न केवल संस्थान की कार्यक्षमता को बढ़ाता है, बल्कि शिक्षकों, विद्यार्थियों और अन्य हितधारकों के बीच समन्वय स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
शैक्षिक प्रशासन का मुख्य उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करना और संसाधनों का इष्टतम उपयोग करना है। सिद्धांत इस प्रक्रिया को संरचित बनाते हैं, जिससे संसाधनों का प्रबंधन, शिक्षण पद्धतियों का विकास और विद्यार्थियों की प्रगति का मूल्यांकन व्यवस्थित रूप से हो सके। उदाहरण के लिए, संगठनात्मक सिद्धांत प्रशासकों को यह समझने में मदद करते हैं कि कैसे विभिन्न विभागों और कर्मचारियों के बीच प्रभावी संचार और सहयोग स्थापित किया जाए। इसी तरह, नेतृत्व सिद्धांत प्रेरणादायक और समावेशी नेतृत्व को बढ़ावा देते हैं, जो शिक्षकों और कर्मचारियों को उनके कार्यों में प्रोत्साहित करता है।
यह निर्विवाद सत्य है कि नये उदीयमान राष्ट्रों की शिक्षा प्रणाली काफी परिवर्तनों से गुजर रही है, यथा- शैक्षिक प्रणाली, विद्यालय प्रणाली, संगठन सेवाएँ, कार्यक्रम प्रणाली आदि । परिणामतः शिक्षा प्रशासन भी बदल रहा है। अस्तु, आज के प्रशासक को मात्र अनुभव से नहीं, किन्तु नवीन सिद्धान्तों से भी परिचित होना आवश्यक है, ताकि वह परिस्थिति के अनुसार सिद्धान्तों का प्रयोग कर सके। आज यह स्वीकार किया जाता है कि एक कुशल प्रशासक को प्रशिक्षण की अनिवार्यतः आवश्यकता है और इस प्रशिक्षण में सिद्धान्तों का अध्ययन करना आवश्यक समझा जाता है।
शिक्षा का स्वरूप विशेष रूप से विकासमान देशों में तेजी से बदलता है, जिसका विश्लेषण निम्नलिखित रूप से हैं -
- जहाँ पहले निश्चित छात्र, छात्राओं के अलग स्कूल, निश्चित कक्षा, निश्चित स्थान तथा शिक्षक के कार्य भी निश्चित थे, वहाँ आज मिश्रित विद्यालय हैं, लिंग भेद, उम्र भेद नहीं है तथा शिक्षक-विद्यार्थी परस्पर चर्चा करते हैं। अभिक्रमिक अध्ययन, लचीला समय चक्र, रात्रिकालीन कक्षाएँ, प्रहर पाठशालाएँ, पत्राचार पाठ्यक्रम आदि स्थान ले रहे हैं। अत: वर्तमान में प्रशासक की भूमिका और भी जटिल होती जा रही है।
- अब विद्यालय प्रशासक का नीति निर्धारण में एकाधिकार नहीं रहा। शिक्षक, विद्यार्थी तथा अन्य अभिकरण मिलकर निर्णय लेते हैं। उदाहरणार्थ- बोर्ड के पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय विद्यालय शिक्षक, प्रशिक्षण महाविद्यालय के प्रतिनिधि, विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि, छात्र- प्रतिनिधि तथा सरकारी प्रतिनिधि मिलकर निर्णय लेते हैं।
- प्रशासनिक कुशलता के लिए अनेक अन्तर्विरोधी नीतियाँ तथा सिद्धान्तों की निरन्तर वकालत सुनने को मिलती है, जिससे प्रशासक द्वन्द्व की स्थिति से गुजरता है।
यही नहीं कुछ अन्य राजनीतिक तथा सामाजिक कारक भी शिक्षा तथा उसके प्रशासन पर असर डाल रहे हैं। ओटावे के अनुसार ये कारक हैं-
- आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियाँ
- तकनीकी विकास तथा
- दर्शन व उसके मूल्य ।
भारत के सन्दर्भ में भी ये सभी कारक शिक्षा व उसके प्रशासन पर प्रभाव डालते दृष्टिगोचर होते हैं।शिक्षा विभाग ने जीविकोपार्जन को शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य स्वीकार किया। शिक्षा अर्थकारी व उपयोगी हो ताकि राष्ट्र की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो । प्रशासन ने भी आज शिक्षा बजट की न्यायसंगतता, मूल्य विश्लेषण (Cost analysis) मूल्य का प्रभावी उपयोग (Cost affectiveness) आदि पर प्रशासन का ध्यान केन्द्रित है। अब शिक्षा केवल विलासिता या शोभा या दार्शनिक चिन्तन का विषय नहीं रहा।
देश के परिवर्तित राजनीतिक दर्शन का भी शिक्षा प्रशासन पर प्रभाव पड़ा है। आजादी के पूर्व प्रशासन का कर्त्तव्य अंग्रेजी राज्य के संचालन के लिए अनुशासित प्रजातन्त्र का निर्माण करना था। प्रशासन ऊपर से निकले आदेशों से होता था। उसके स्थान पर अब जनतंत्रीय दर्शन व जनतंत्रीय शासन की पद्धति के अनुरूप शिक्षा प्रशासन में योजना नीति निर्धारण से लेकर अन्य सभी क्षेत्रों में प्रशासक को सहयोग व सहकार का वातावरण बनाना आवश्यक हो गया है। अब वही केवल नीति निर्धारक व भाग्य विधाता नहीं रहा है।
तकनीकी विकास से विभिन्न तकनीकों का प्रयोग भी प्रशासन के क्षेत्र में अनिवार्य हो गया है। कम्प्यूटर एवं सांख्यिकी का प्रयोग रक्षा प्रतिष्ठानों की आधुनिक तकनीकों यथा- सिस्टम मेंटीनेन्स, सिस्टम एनालिसिस, सी. पी. एम. सिस्टम आदि का प्रयोग भी प्रशासन में होने लगा है।आधुनिक युग में, जहां शैक्षिक संस्थानों को बदलते सामाजिक, तकनीकी और आर्थिक परिदृश्यों का सामना करना पड़ता है, सिद्धांतों की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है। ये सिद्धांत प्रशासकों को नवाचारों को अपनाने, तकनीकी प्रगति को एकीकृत करने और विविधता को समायोजित करने में मार्गदर्शन करते हैं। उदाहरण के तौर पर, समावेशी शिक्षा के सिद्धांत यह सुनिश्चित करते हैं कि विभिन्न पृष्ठभूमियों और क्षमताओं के विद्यार्थियों को समान अवसर प्राप्त हों। साथ ही, परिवर्तन प्रबंधन के सिद्धांत प्रशासकों को तकनीकी बदलावों या नीतिगत सुधारों को प्रभावी ढंग से लागू करने में सहायता करते हैं।
सिद्धांतों की उपस्थिति से शैक्षिक प्रशासन में निरंतरता और स्थिरता आती है। यह सुनिश्चित करता है कि प्रशासनिक प्रक्रियाएं केवल व्यक्तिगत अनुभव या अंतर्जनन पर निर्भर न हों, बल्कि एक सुविचारित और सिद्ध ढांचे पर आधारित हों। इससे न केवल अल्पकालिक लक्ष्यों की प्राप्ति होती है, बल्कि दीर्घकालिक दृष्टिकोण को भी बल मिलता है, जो शैक्षिक संस्थानों को समाज की प्रगति में योगदान देने में सक्षम बनाता है। इस प्रकार, शैक्षिक प्रशासन में सिद्धांतों की आवश्यकता न केवल एक तकनीकी आवश्यकता है, बल्कि यह शिक्षा के उच्च उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक अनिवार्य साधन है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि आधुनिक सिद्धान्तों का ज्ञान प्रशासक को बदलती परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए व समस्याओं के समाधान में सहायक होता है। अब यह मात्र प्रयोग या सिद्धान्त या प्रशासनिक अधिकारियों के चिन्तन का विषय नहीं माना जाना चाहिए।


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