समय प्रीटा ने अपनी जन्म भूमि का वीडियो खोला। पिछले तीन दशक से बेटे के साथ न्यू यार्क रहती हैं। लोग बहुत हैं, अकेलापन भी उतना ही है।बच्चे बहुत ख्याल
समय
प्रीटा ने अपनी जन्म भूमि का वीडियो खोला। पिछले तीन दशक से बेटे के साथ न्यू यार्क रहती हैं। लोग बहुत हैं, अकेलापन भी उतना ही है।बच्चे बहुत ख्याल रखते हैं पर फिर भी कभी कभी अकेले बैठ कर बचपन की याद ताजा कर लेती हैं।
कैसा है ये शहर, पहाड़ी शहर, भीड़ भाड़ गाड़ी ही गाड़ी। टकराती, हॉर्न बजाती गाड़ीयां। सड़क किनारे खड़ी गाड़ी। स्थानीय लोग परेशान, घूमने वाले सैलानी परेशान। गर्मी बढ़ती जा रही है, वातावरण गरम लोग गरम, चिल्ला चिल्ली। सड़क पर गाड़ीयां स्थिर हैं, “जाम” लग गया। चने, बुढ़िया के रंग बिरंगे बाल, काफल, पुलम, चिल्यू के दोने बेचते बच्चे। जलती क्लच प्लेट की बदबु, नाली से सडे कचरे की महक से त्रस्त पर्यटक बहस कर रहे हैं। ऐसा तो नहीं था ये पहाड़ी शहर। किसी जमाने में पहाडों की रानी कहलाता था। राजा रानी गये, ये पहाडों की रानी भी बर्बाद हो गयी।
दोनों विश्व युद्ध के बीच, इस इलाके के सुनहरे दिन थे, पढ़े लिखे संभ्रांत लोग, राजनीति में रुचि रखने वाले लोग यहाँ पूरे छ: माह का “सीजन” गुजारते। फिर “क्लोज़ड फॉर विंटर” बोर्ड लग जाते दुकानों पर। परिवार देहरादून, दिल्ली, बाम्बे, कलकता, अमृतसर, लाहौर चले जाते।
अंग्रेज़ माल रोड पर घूमते, अपने कल्ब में नाचते, ताश खेलते, खाते पीते।
हिंदुस्तानी साउथ रोड पर अपने रिक्शे में चलते। रिक्शा चालक नंगे पैर रहते, कहीं चप्पल न फिसल जाए और साब लोग को चोट लग जाएं। पतली सड़क पर डाँडी कंडी पर लोगों को फालटू कुली ले जाते। मेम साब, उन का पेट डॉगग् छतरी के नीचे रहते।
घुड़सवार अंग्रेज़ अफसर, अपने अपने दौरे पर जाते। शहर में बिजली, पानी, सिनेमा की सुविधा थी। दो बजे “फटीग” का समय, पूरा शहर साफ, चार बजे साब घूमने आयेंगे, फिर क्लब जायेंगे। विदेशी मिशनरी स्कूल भी चलते थे।
इन्ही में से एक स्कूल में मिस रोसैलीन वाज़ेनबर्ग आयीं। वो आस्ट्रिया से थीं सो हिंदुस्तानियों से मिलने जुलने में परहेज़ नहीं था। अपना मिशन का कार्य अच्छे से करने के लिए रोसैलीन ने यहाँ के प्रसिद्ध लंगुएज स्कूल में प्रवेश ले लिया। वो बंगाली सीख कर बंगाल में कार्य करना चाहती थीं। कलकता भारत की राजधानी थी। रोसैलीन ने सोचा, वहाँ कार्य करना एक विशेष अनुभव रहेगा।
बंगाली सिखाने का कार्य मिस्टर श्रावण घोष करते थे। घोष सर अपने विद्यार्थियों के साथ ठंडी चक्कर की सड़क पर निकल जाते। ऐसा सप्ताह में दो बार होता । पर आज विशेष था। मिस्टर घोष का बेटा रोबिन, अर्थात रोबिंद्र चंद्र भी साथ चल कर बंगाली का अभ्यास करा रहा था।रोबिन, जर्मनी से ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग पढ़ कर छुट्टी मनाने आया था।
रोबिन और रोसैलीन की दोस्ती, दो माह मे प्रगाढ़ हो गयी। रोबिन ने चार दुकान में पहाड़ी मीठी चाय पीते पीते, अपने मन की बात कह दी।
“मेरे साथ जीवन बिताओगी?”
सन्त पॉल कैथेड्रल की बुर्ज देखते हुए, रोसैलीन ने हामी भर दी। रोसैलीन की विदाई स्कूल मे कार्यरत मास्टरजी रावत जी ने खुशी खुशी कर दी।
रोबिन को कलकता मे अंबासडर कंपनी में काम मिल गया। पहाड़ छोड़ कलकता आ गए। रोसैलीन और रोबिन, समय के साथ, तीन बेटों और एक बेटी के माता पिता बने। बेटी के जन्म के समय वो छुट्टी मनाने पहाड़ आये थे। बेटी प्रीटा को अपनी जन्म भूमि बहुत प्रिय थी। हर वर्ष वो यहाँ आती। उसे आश्चर्य होता की एक ऑस्ट्रियाई महिला ने भारतीय रहन सेहन इतनी आसानी से कैसे अपना लिया।
“माँ, तुम ऐसा कैसे कर पाईं?”
“तुम्हारी दादी एक दयालु व प्यारी महिला थीं। उन्होंने ने मुझे सब कुछ सिखा दिया।”
“आप का मन अपने देश जाने को नहीं हुआ?”
“युदध के कारण मेरा परिवार नष्ट हो गया था। मेरा दुःख बहुत था। तुम्हारे पिता और उन के परिवार ने मुझे बिना झिझक अपना लिया। तुम्हारे पिता कई बार कहते कि चलो अपना बचपन का शहर देख लो, पर मेरा मन नहीं माना। तुम सौभाग्यशाली हो कि अपनी जन्मभूमि से तुम्हारा लगाव है।”
प्रीटा ने पढ़ते पढ़ते, दस वर्ष की कम उमर में एक उपन्यास अपनी माँ की जीवनी पर लिखा। इसी वर्ष देश आज़ाद हुआ और विभाजन भी हुआ। इन घटनाओं का गहरा असर प्रीटा के कोमल मन पर पड़ा। वो अपने विचार काग़ज़ पर उतारने लगी। कालेज मिरांडा हाउस, दिल्ली में मिस ठाकुरदास ने प्रोत्सहन दे कर, लंदन लेखन की कला की शिक्षा लेने भेज दिया।
प्रीटा को अपनी जन्मभूमि रह रह कर याद आती। जब भी प्रीटा को कोई साहित्यिक पुरुस्कार मिलता, वो कुछ राशि इस पहाड़ी की साहित्यिक गतिविधि के लिए अपनी माँ के सम्मान में रोसैलीन सोसाइटी को भेज देती।
लेखक सुमित दोषी ने प्रीटा को अपना जीवन साथी बना लिया। अपने दो बेटीयों और दो बेटों के साथ वो न्यू यॉर्क चले गए। बड़े बड़े पुरुस्कार जैसे बुकेर, कैंटिर्बौरी, वर्ल्ड वाईड ऑथोर अवार्ड, चिल्डरेन फिक्शन अवार्ड, पद्म भूषण, ज्ञानपीठ पुरस्कार, यू एन अवार्ड प्रीटा को सम्मानित करते रहे। उन की कहानी, कविता, उपन्यास बहुत लोक प्रिय हैं। बहुत से प्रशंसक हैं पर मन का एक कोना सूना है।
अब नब्बे से दो वर्ष दूर प्रीटा का मन अपनी जन्म भूमि की बदहाली देख दुखी हो जाता है। उन का प्रथम घर कोहिनूर, खन्डहर बन गया। उसी में सैय्रे बुना, कुल्पन कृति का साथ, गांधीजी और रुस्तम जी का आना याद है।
इस शहर में सब सरकारी अफसर लबसना मे प्रशिक्षित होते हैं पर कभी भी यहाँ के विकास में कोई विशेष रुचि नहीं लेते। क्यों?
सोचते सोचते प्रीटा ने वीडियो बंद कर दिया। अपने शहर का हाल देख आँख की कोर से एक बूंद बह गयी।
टी वी खोला तो युद्ध ही युद्ध के समाचार, रूस यक्रैन, ग़ज़ा इस्रेल, ईरान इस्रल। युद्ध ने उन की माँ को देश से अलग करा। वो कभी वापस नहीं गयीं। एक आँसू बह निकला।
अगर एक बार हिम्मत हुई तो अपना नबेवें जन्म दिवस पर अपनी जन्मभूमि जाऊँगी। वहीं बंगाली स्वीट शॉप की रसमलाई खा कर जन्म दिवस मनाऊंगी। शायद शहर के प्रसिद्ध लेखक रुस्टी, उन के मित्र गणेश और अनमोल से भेंट हो जाये।
समय और दुनिया बदल गयी है।
- मधु मेहरोत्रा
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