इस्कंदर हाल महल | हिन्दी कहानी

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इस्कंदर हाल महल राजे राजवाडे, नवाब हो गये ख्वाब। खत्म हुए मेहले, दो मेहले, पंच मेहले। एक समय महल से ही हुकुम चलता था। राजा, नवाब, महाराजा का, पर

इस्कंदर हाल महल


राजे राजवाडे, नवाब हो गये ख्वाब। खत्म हुए मेहले, दो मेहले, पंच मेहले। 

एक समय महल से ही हुकुम चलता था।

राजा, नवाब, महाराजा का, पर असली हुकुम दार थी घर की महिलाएँ। कह दिया सो कह दिया, किस की हिम्मत, किस की जुर्रत की बात काट दे, बात टाल दे। पर बोलती भी थी सोच समझ कर। बेवजीब अनर्गल बात जुबान पर ना आती, ना लाई जाती। 

हंसी ठठा, मज़ाक बस अपने जनानखाने तक सीमित था, रोज़ नहीं, गहे बगहे हफ्ता दस दिन में। कभी तो महिनों गुज़र जाते अपनी हंसी सुने। 

बचपन से सुना था “लड़कियों, मुह में कपड़ा ठूंस कर हंसो, ये खपटे क्या फोड़ रहीं?” मरी आदत ही पड़ गयी, कम बोलो, कम खाओ, कम हंसो, कम नाचो, कम गाओ। 

ऐसी ही एक रोबदार महिला, जीवरी बेन, जीवरी बाई, जीवरी बेगम, जीवरी अम्मी थी। 

जन्म हुआ, लिकाती मोल गाँव में। ढेर सारे भइयो की  इकलौती, सब से छोटी बहन। माँ बाप को कन्यादान का सुख, पुण्य कामना था। 

“हर बरस बेटा होता है, एक बेटी होती, कुछ पुण्य प्रताप हम को भी मिल जाता।”

गाँव भर, खेत खलिहान भाई के काँधे पर बैठ घूमती, पिता के कंधे काम कर कर  के झुक जो गए थे। 

इस्कंदर हाल महल
गाँव के बाहर, अंग्रेज़ साब, फेमअस विंनर का आना जाना था। जंगल में शिकार का शौक था। छ महीने में एक दो चक्कर लग ही जाते। हाथी हरकारे, ढोल, ड्रम, नगडे, मचान, बकरे, बकरी का इंतज़ाम करना, जीवरी के भइयो का था। अच्छा पैसा, दो चार खाल, पशु शीश मिल जाते, पंद्रह दिन खाना पीना मुफ्त में हो जाता। 

फेमअस विंनर कहने को अंग्रेज़ था, पर दिल से हिंदुस्तानी। उस का मन अपनी फौज के सिपाहियों में ही लगता था। दो हज़ार सिपाही, साब के वफादार। साब कहे रात तो रात, साब कहे दिन सो दिन। साब जहाँ चाहे वहाँ भेज दे लड़ने। कल जिस के साथ कंधा मिला कर लड़े, आज उस के खिलाफ़ लड़ लिए, सोचने का काम साब का। 

“हमें क्या? हमें तंख्वा मिलती है, लड़ना हमारा काम है, नये से नये हथियार, तलवार, बंदूक, संदूक भर गोला बरुद्। कोई मर मारा जाये, फट से बेटे-भाई को उस की जगह नौकरी। बहुत अच्छा साब है। नवाबों में उठना बैठना, साब खुद भी लड़ने जाता है।”

“पिछले युद्ध में, चार बड़े घाव लगे, हार नहीं मानी, हाँ, एक पैर कमजोर हो गया, पर शिकार नहीं छूटा।”

“दिल का धनि है साब, पैसा हाथ का मैल है, ज़ुबान का पक्का, सच्चा खरा सोना, सोलह टका, जब चाहो परख लो।”

ऐसे नामदार साब को जीवरी के भाई ना नहीं कह सके जब साब ने जीवरी का रिश्ता अपने लिए भेजा। 

जीवरी, मुहफट बोल पड़ी

“बुढ़ाऊ, टूटी लात, कांपते हाथ, आधा गंजा, टूटी पतंग का मांझा। करी कैसे ऐसी बात? मैं भाग रही, तुम जानो, तुम्हारी जुबान जाने, और कोई पकड़ा दो।” लहेंगा समेट, चुनरी सिर से डाल लड़की बाहर निकल गयी। बकरियों के बीच जा बैठी।

“ओ, मुनिया तू बता, ऐसा कैसे? कोई दीन धर्म है, कोई हमें पुण्य के लिए दान कर रहा, कोई साब से दोस्ती निभा रहा। जान हमारी, तुम्हारी तरह सब हमें भी काट रहे। खुशी त्यौहार इन का, जान जाये हमारी। बोल मुनिया।”

रस्सी से बंधी मुनिया मिमयाति रही। जीवरी बड़बड़ाती रही। सुबह से दोपहर हो गयी। भूख से मरोड़ उठने लगे। आम के पेड़ पर चढ़ कच्ची अमिया खाने लगी। 

बड़ी भाभी, बकरी को पानी देने आयी। 

“बाई सा, चलो अंदर, बहुत हुआ। आओ। राज करोगी, नंसण पहाड़ का महल बन रहा, साब के लिए, तुम्हे मिलेगा। सुदामा का घर छोड़, कांन्हा का राज महल तुम्हारा। आ जा लाडो। चल कदही भात, आम का ताज़ा अचार, खूब मिर्चा डाली है।”

जीवरी अचार का लोभ ना रोक सकी। 

खा पी, भाभियों की गुटूर गुइं सुनी अनसुनि कर खिड़की पर बैठ गयी।

“जब्बर लड़की है।”

“भइयो की नाक चढ़ी है।”

“भाई, हम भी जहाँ कहा शादी कर आ गयीं।”

“क्या फर्क, सब मर्द एक है।”

“बुढ़ाओ क्या, तीस से उपर नहीं।”

“ये कौन छोटी है, बारह की हो रही, मेरी कम्मो से तीन ही छोटी है।”

“दिक्कत क्या है, मेरी चिन्नी भी साब के भाई के पास है। बुआ भी वहीं। दोनों होशियारी से रहें, मिल कर रहें, हमारी भी, भाई भतीजे भी आगे बढ़े।”

“भाप्पो एक ना सुनना, जीतहु से कह दो दिन में बिदा करो।”

“मेहतारी बापू मानेंगे?”

“मानेंगे? रहने दो। भाई की जिम्मेवारी है, पुण्य मिलेगा, माँ बाप की बेटी विदा करवा दी। तर गए, गंगा नाहयें।”

“और, साब के साथ हर् की पौड़ी चले जाएँ।”

सुनते सुनते जीवरी सो गयी। 

सपने मैं सोने की पालकी श्वेत घोड़ी पर सवार दुल्हा, गाजे बाजे, पंडित फेरे, पवित्र अग्नि, आँसू बहाती माई। 

माई दिखी, जीवरी उठी, सर हिलाया और गुदडी में लेटी करहाती माँ से लिपट सो गयी। 

“ए जिवरी, क्या हुआ? दिन में सो गयी? इमली नहीं मिली?”

“ऊ, हूँ, सोने दे, पुण्य कमा।”

“केई का पुण्य?”

“मेरे कन्या दान का।” कह जीवरी ने अपनी पकड़ और मजबूत कर ली। माँ करहाती रही। धीरे धीरे बेटी का जिस्म सेहलाती रही। 

“इतनी बड़ी हो गयी? कब? कहाँ कर रही शादी? लड़का सुंदर है? आँख होती तो देखती, तू बता।”

भाभी की कही बात जीवरी ने दोहरा दी “सब मर्द एक है।”

“हैं तो, फिर भी, कैसा है?”

“साब है साब, भाई का दोस्त,  कम्मो का जेठ, पैर में लोचा है, पर पैर का क्या? मैं पालकी वाली, आठ उठाने वाले। खाओ, पियो मौज करो। साब को शिकार या युद्ध चाहिए।”

माँ, बेटी, लिपटी पड़ी रहीं। गुप्प चुप बात करती रहीं। 

“भाग्यवती, जीवरी नहीं दिख रही?” गुड्डे ने चेहरे को पोंछते हुआ पूछा। 

उस की पत्नी कंट्रि, पानी देते हुए बोली “आ य हाय, जीवरी कहाँ है? ये ना पूछा कंट्री कैसी है?”

“लग तो रही सही भाग्यवती, जीवरी दो चार दिन की मेहमान है, एक बार विदा हुई कब आयेगी? अपनी देख कभी आते बाप भाई?”

“हर बात में बाप भाई, ना आ सके खेती करें या मुझे देखें। विश्वास है तुम पर। तुम तो रोज़ मिलना जीवरी से ससुराल में।”

“देखेंगे, कहीँ बात ठेहरे तब बात हो।”

“ए, भोले बाबा, साधु महाराज, तुमे खबर नहीं, भइयो ने बताया नहीं, तुम से अच्छी हम औरतों की टोली, एक को पता सब को पता, दस घर से है पर सब को पता।”

“क्या पता? मुझे भी बता भाग्यवती, क्या बात है।”

“कम्मो के देवर साब, इसकन्दर साब ने पैग़ाम भेजा है, हाथ मांगा है तुम्हारी बेहनी का, हमारी लाडली नन्द का। राजी है बात से।”

“हाँ कर दी?”

“जीवरी ने, जीवरी के भइयो ने, एक मेरा भोला रह गया।”

बात सुन भोला, पानी पी कर, बाहर निकल गया। 

बापू अंदर आ गए। 

“जीवरी, ओ जीवरी एक डली गुड़ ला दे।”

“जीवरी के बापू, इधर आओ।” माई ने आवाज़ दी। 

“क्या हो गया? जीवरी की मैया?”

हाथ से टटोल माँ ने बापू को पहचान कर कहा “साब ले जा रहा जीवरी को। अब हो गया, सब दुःख दर्द खतम, हर की पैडी चलो। अब वही काट लेंगे दिन, दान का पुण्य, तीर्थ नहा, तुलसी गंगा जल मुँह में।”

बापू ने हाथ कस कर पकड़ लिया। 

“ऐसा ना बोल, जीवरी तुझे मालूम है?”

“सब मर्द एक है।” एक आवाज़ आई। “बापू, तू ना फिक्र कर। अपना अपना भाग्य, पुण्य तुम्हारा, साब हमारा। कम्मो और मैं हैं। तुम सब का देख लेंगे। सब कहते साब भला आदमी है, सब की सोचे है। देखा है मैंने।”

“सो जा बेटी, भली करे भवानी, भाग्य हमारा, भाई भतीजे का ख्याल रखना। बहन ही माँ  होती है।”

अंधेरा बढ़ गया, लम्प बुझ गया। तीन दिन  मे विदाई, मातम सब पुरा हुआ। 

***

शादी, निकाह, मैरिज सर्टिफिकेट बनते ही फेमअस विंनर, जीवरी बाई अब जीवरी बेगम को ले बंसीगढ़ आ गये। कम्मो भाभी, ‘सिस कमस’ ने खास आवभगत का इंतज़ाम करवाया था, पार्टी बड़ी थी। सब ही सिपाही, अफसर, दो चार जमींदार, दो नवाब, एक राजा आये, तोहफे का ढेर, सोना, चांदी, कपड़े लते, गहने, अनाज, घोड़े, कुत्ते, गाय, बकरी, भेड और साब की बहन ने दो सौ बीघा ज़मीन जीवरी के नाम कर दी। औरत जात ही औरत का दर्द और ज़रूरत जानती है। 

“ब्रोदर इज  गुड, पर कल कौन लेडी अपना ब्रो कैच कर ले। डंम वुमेन किसी का घर बिगार देती, फिर सिम्पैथी मांगती। आए हैव सीन इट। बिच, वो हमारा फादर इतना ज़मीन हमारे नाम करी, अब नो वुमन विल सफ्र अगेन, टिल आई लिव।”

जीवरी बेगम ने समझ लिया, है तो बांटो, अपना जैसा दुःख किसी को ना हो। 

सात साल में पांच बच्चे, तीन बेटे, दो बेटी। नौकर चाकर, खानसामान, मसल्चि, नेन्नी, बयेरा, बागवान और दो सौ बीघा की खेती संभलती जीवरी बेगम। 

“व्हाट अ वुमन!” सब फिरंगी कहते। जलते थे कि जीवरी को क्योइं बेगम बनाया, कोई, यानि कोई भी मेम पैग़ाम को ना नहीं करती। न जाने कितनी जान छिड़कती थी फ़मअस पर। इशारे भी करे, भइयो से कहलाया भी, पिता ने कोशिश भी करी पर साब ने हिंदुस्तानी बालिका ही पसंद करी। 

“व्हाट इज़ इट देट शी हास एंड वी डोंट? जस्ट आ शैड, वी कुड टेन, कॉलर द हेयर, पुट द कोल इन द आई, कवर द हेड।”

“नो, नो, शी वास विद् हिस सीड।”

“नौ, बी फेयर, डोंट मलाएन द चाईल्ड। शी ऐंट् नो बासटर्ड। ”

“यस मेरी, हू वुड नो बेटर?”

जीवरी बात समझ लेती, बोल नहीं पाती, सीख लेगी, और ना भी सीखी तो क्या। किच किच कम, साब बात की बात बोल लेते हैं। ज्यादा क्या करना? 

दस बारह साल के लड़के भेज दिया बोर्डिंग स्कूल में, लड़कियों के लिए ना कम्मो मानी ना जीवरी। धमकी दी, भेजो लड़की को बोर्डिंग, हम चले कुन्वे के ओर। घर आ कर गोवर्नेस रोजी पढ़ाने लगी। बहुत मन लगा कर पढ़ाती, मान से पढ़ती जैन, अईरिस, वॉयलेट और पैट्टी। 

जीवरी कभी भी पढ़ाई वाले कमरे में नहीं गयी, पर आवाज़ सुनती रहती, हंसी ठिटोली नहीं। 

कम्मो और जीवरी सब पर सख्त नज़र रखती। पाई पाई दांत से भींच कर रखती। एक एक कौड़ी का हिसाब मुहज़बानी याद, लिया दिया याद। कोई फिज़ूल खर्ची नहीं। बेटे, एंड्रयू, चार्ली बाबा, ओस्वल्ड बड़े हो  विलायत चले गये। 

दो वर्ष पश्चात् चार्ली बाबा पिता की फ़ौज संभालने वापस आ गया। लंबा चौडा गोरा मर्द। हर पार्टी में ‘मिस्सी’, अविवाहित लड़किया साथ नाचने को तत्पर। 

चार्ली बाबा को युध्द में ही सुकून मिलने लगा। 

चेनाब पार वाले, विंनर के घुड़ स्वारो पर बहुत विश्वास रखते थे। बार बार बुलवा लेते, कभी टेहरी, कभी बलोच, कभी अफगान युद्ध। एक बार निज़ाम का साथ देना पड़ा। बहुत दूर देश, गर्मी बरसात में घोड़े परेशान, सवार भी कुछ बुझे मन से लड़े। थक कर लौट आये, जीत होते होते हाथ से निकल गयी। घुड़ स्वारो की साख पर बट्टा लग गया। 

“क्या? विंनर के घुड़ सवार हार की कगार पर? मुँह मोड़ आये?बाबा, तौबा, शर्म आती है कहते हुए कि जीवरी अम्मी की औलाद हो, थू, थू। ऐसा सुनने से पहले ही चल बसते। हाय, बाबा तुम अपनी बहनों को देखो। क्या घुड़ सवार हैं!! तुम को मालूम है। क्या फौज की अगवाई जैन को सौंपी जाए?”

“जीवरी अम्मी, आई आम सॉर्री। नेवर अगेंन।”

“शर्म कर बाबा। ये फौज तुम्हारे पिता, अब्बा, अब्बा जान की शान है। एक ही टुकड़ी है। साब सुनेंगे तो दम निकल जायेगा। इस उमर में क्या मैदान जाएँ साख लौटाने। आस होती है औलाद से की नाम बढ़ाये, बाबा तुम क्या कर आये? राजे, नवाब, हँसते होंगे। विंनर, विंनर हार गए। नाम विंनर।” कहते कहते, जीवरी अम्मी हांफने लगी। बेदम। 

चार्ल्स बाबा ने पानी का छींटा दिया, पानी पिलाया। पाँव सेहलाया, साँस में साँस आया।

“जैन, जैन।”

“जी अम्मी।”

“कल सुबह से चार्ल्स बाबा को घुड़ सवारी कराओ। एक एक बारीकी बताओ। घोड़े से दोस्ती कराओ। ऐसा की घोड़ा और सवार एक रहे। एक के बिना दूसरा अधूरा, अधूरा नहीं खतम।”

चार्ल्स बाबा समझ गये, अम्मी इज अल्वेज राइट। 

जैन और चार्ल्स बाबा की प्रातः कालीन घुड़सवारी चालू हुई, चलती रही। एक घंटा से चार घंटे तक बढ़ गयी। 

“जीवरी अम्मी, हम जैन से शादी माँगता।”

“जैन से पूछा।”

“पहले आप, आप को मंजूर तब बोलेगा।”

“जैन, जैन”

“जी, अम्मी जान”

“चार्ल्स बाबा से निकाह करोगी?”

“जी”

“कम्मो से बात कर, पैग़ाम भेजें?”

“जी, बेहतर”

बुआ भतीजी में बात हो गयी। 

पंद्रह दिन बाद शादी, निकाह और मैरेज सर्टिफिकेट बन गया। 

अईरिस, वॉयलेट और पैट्टी का भी मैरेज सर्टिफिकेट, निकाह, शादी विनर्स घुड़सवार के तीन ओहदेदार से संबंध कर के जीवरी अम्मी अपने कर्तव्य से पूर्ण हुई। साब को शोरबा अपने हाथ से बना कर पिलाती। 

साब को शिकार की कमी मेहसुस होती पर शरीर साथ नहीं देता था। कभी कभी पुराने दोस्त आ जाते, दो चार दिन रह जाते। औरतें अपना जीवन अपने तरीके से जीती रहीं। 

साब ने एक दिन वकील कुरबख्श खानदेश को बुला लिया। बैठक के दस्तरखान में भोजन करते करते वसीयत लिखवा दी। 

“साब, ये इतनी जल्दी, वसीयत, दुश्मन की तबियत नासाज है क्या? अभी साठा सो पाठा, उठो, शिकार पर जाओ।”

साब  ने बिना जवाब दिये दीवार की ओर मुखडा कर लिया। मिन्नत मालिश करती रही जीवरी। फौजी भाई, दोस्त आते जाते रहे, साब ने जैसे कसम खा ली “अब ना उठना बस एक बार उठाना।”

मौलवी, हकीम, वैद्य, ओझा, पादरी साब से मिलने आये। हाँ, हूँ, हुँकार भर बस। जाने के टाइम पहचान जीवरी ने सब इंतज़ाम शुरू कर दिया। पांच सौ गज दूर कफन दफन का इंतज़ाम, चंदन का बक्सा, चांदी की सजावट, संगमरमर का इंतज़ाम, कब्र के ऊपर और छत्र के लिए, साथ में अपनी कब्र की जगह भी। 

“अम्मी, ठीक हो जायेंगे। ये सब क्या हो रहा?”

दुआ में हाथ उठा कर जीवरी बोली “कुदरत का चमत्कार, ठीक हो जाएं, मेरी उम्र लग जाये। सौ बरस जिये, पर एक दिन सब को सुपूर्दे खाक होना है, कौन आगे, कौन पीछे, ये मानुष नहीं, मौला जाने, पर जाना है, सो तैयारी कर ली। कुछ होगा तब रोने से फ़ुरसत कहाँ? अभी चैन से सब हो रहा।”

चार्ल्स बाबा सिगार सुलगा टोपी पहन बाहर निकल गये। जैन गुल्दावरी के गमलों से सूखे पत्ते छांटती रही। माली पानी डालता रहा। भूरि गौरैया पानी में पंख भीगोती रही। सूर्य अस्ताचलगामी सुर्ख लाल हो गया। ठीक सामने चंदा आसमान में उठने लगा। आम के बौर की खटी मीठी खुशबु रात की रानी की महक में घुल मिल गयी। जुगनू झाडियों पर मंडराने लगे। उलक अपने कोटर से निकल डाल पर आ बैठा। उस की नज़र से बचने को मूषक जल्दी जल्दी माटी में घुस गया। कुछ ही देर में बयार भी, सांस भी थम गयी। चारों तरफ गहरी शांति छा गयी। 

“हाइ, य,.... या… ह आ,  हा.. य… उ न न… यू।”

अनहोनी घट गयी। 

जीवरी अम्मी ने सफेद चोला पहन लिया, एक आखरी बार, फिर हमेशा के लिए काले लबादे में लिपट गयी। बाहरी रंग बिखर गये, जिम्मेवारी जैन की हो गयी, हुक्म और सिक्का जीवरी का ही रहा। जबान नहीं, आँख का इशारा ही शब्द, वाक्य, फरमान हो गया। 

चार्ल्स बाबा ने जी जान लगा कर विंनर घुड़ टोली को मजबूत कर दिया। एक एक सवार की जांच हुई। कमजोर को मज़बूत करा या घर भेज अच्छा सवार लिया गया। दो के ढाई हज़ार हो गये। खर्च बढ़ गया। 

अपनी विरासत और जेवरात गिरवी रख जैन ने हेलोगंज में एक जायदाद खरीद ली। डेढ़ हज़ार बीघा, पहाड़ी जंगल। पहाड़ी झरने के किनारे, केप्लेर साब कर बियर खाना था। साब को राजपुर से खच्चर पर कांच की बोतल लाना बहुत महंगा पड़ गया, सो धंधा बंद कर दिया। कोशिश कर चलाते भी पर अफवाह उड़ गयी

“इस बियर में आदमी डूबा कर बनाया जाता है।” कौन किस को, कब तक बताए “एक बार मज़दूर कुली फिसल गया, जब पता चला निकाल दिया, ऐसा रोज़ नहीं होता।”

खैर, मंदे धंधे से जैन को जायदाद सस्ते और कम दाम पर मिल गयी। 

अम्मी कम्मो ने सुना, दौड़ती भगती पहुँच गयी। जीवरी को सलाम करा “बुआ फूफी, ये क्या सुना?”

“क्या सुना?”

“बुआ फुफी, जान कर अंजान क्यों बनती हो? जैन से क्या रिश्ता है, तुम्हारा, आपका?”

“रिश्ता? खून है हमारा। उस की अम्मी, तुम हमारे सगे बड़े भाई की औलाद हो। उस के अब्बू, हमारे शौहर साब के भाई हैं, विंनर परिवार से है। हमारे बेटे, वारिस चार्ल्स बाबा से निकाह है। बहु है, हमारे पोते पोती की अम्मी है। क्या बेवजह, बे अदब सवाल है? क्यों, क्या हुआ?”

“जीवरी बी, जीवरी बेगम, जैन ने अपनी दौलत खन्ढहर  खरीदने में लगा दी। बेवकूफ़ जनानी, आप की बहु ना होती तो दो चांटे खींच कर देते, होश आ जाता। यों पैसा दमडी फेंकी जाती है। बेहतर था खैरात  बाँट देती, अस्बाब मिलता, हमें भी जन्नत नसीब होती। है कहाँ मरी?”

चादर संभालते हुए जीवरी अम्मी ने कम्मो को आँखो से तपा दिया। होंठ फड़फ़ड़ाये, अंगुली गालों पर फेर बोली

“कम्मो, होश से बोलो, जैन हमारे घराने की दुल्हन है। उस के खिलाफ एक शब्द बर्दाश्त नहीं करेंगे, चाहें  उन की अम्मी ही क्यों ना हो? दौलत उनकी, खर्च करने का हक उनका, हम कौन हैं पूछने वाले। शादी शुदा है, शौहर ने कुछ नहीं कहा, हम कहाँ से कूद रहे।”

“माफ़ी बेगम, एक बार बात करवा दो। इतना दूर आयें हैं, देख लें, दिल को चैन हो। बेफ़िकर रहिये कुछ ना कहेंगे। खैर खबर लेंगे, नवासे गले लगा लेंगे।”

“नोश फर्माया जाए, मीठा, सादा या मलाई पान लेंगी।”

“माफ कीजये, हुकुम खिलाफत है, बेटी का ससुराल है, खाली हाथ आ गए, फिर कभी सौगात उधार रही, अपनी पसंद बता दीजिये बुआ फ़ूफी।” कम्मो पान की बात सुन समझ गयी, जाने का इशारा है। 

“ए, कम्मो, बड़ी समझदार हो रही। चल झूला झूलते है। जैसा गाँव के बरगद पर झूले थे, ऊँची और ऊँची पेंग, ज़मीन से आसमान तक। ये अंग्रेज़ की औलाद हैं, अपनी मर्ज़ी करती हैं, छोड़ इनकी बात। चल।”

शरारे समेटती, चादर लपेटती दो अधेड़ उमर की अल्हड़ बालिका झूले पर बैठ गयीं। 

धीरे धीरे पैर से ज़मीन से पेंग बढ़ाने लगीं। 

“मामू की कोई खोज खबर?”

“दो साल हो गए, कोई नहीं आता। ठीक ही होंगे।”

“कब से कच्ची इमली नहीं खाई?!” प्रश्न था या वाक्य समझ नहीँ आया। 

“भिजवा दूँगी।”

“दाँत ही कहाँ है? तेरे लिए कहा, गाँव से कोई आता, ले आता, तू खा लेती।”

“अमिया के आगे, कुछ अच्छा नहीं लगता। पचास मण का अचार डाला सब उठ गया। अबकी और ज्यादा डालना है।”

“बोटी समझ कर खाते हैं क्या? साग तो मुँह लगता नहीं।”

“बांट देते, जितने राजे, नवाब आवे सब बांध ले जाएँ। हमारा सा आम कहीं नहीं। काटते काटते, हाथ में फफोले पड़ गए, फफोले फट गए। नमक से हाथ जल गए, मिर्च लग गयी, अमिया का ढेर जस का तस।”

“तेरी बान्दी काम ना जाने? नयी है क्या?”

“है, सीख रही। सीख जायेगी।”

“आ, बाग में आराम करते हैं।”

“जैन जाने, इस्कंदर महल किसे दे, खंधर खरीदे या खाई, भाई को दे या नाई को।”

इस्कंदर महल, गरीब गुरबा रिश्तेदार की आराम गाह बन गयी। हर किसी को आसरा मिल जाता, लड़के घुड़ टोली में काम पा जाते, बेटियां नवाब, अंग्रेज़ साब के बच्चे पाल लेती। 

इस्कंदर महल… .. एक ख्वाब गाह, एक शांत आराम गाह।

- मधु मेहरोत्रा

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