निराला का साहित्य यथार्थ जीवन का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है

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निराला का साहित्य यथार्थ जीवन का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है हिन्दी के आधुनिक युग के कवियों में ओज और पौरुष के पर्याय, क्रान्ति और विप्लव के उद्घोष

निराला का साहित्य यथार्थ जीवन का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है


हिन्दी के आधुनिक युग के कवियों में ओज और पौरुष के पर्याय, क्रान्ति और विप्लव के उद्घोषक, छायावाद के श्लाका पुरुष महाप्राण निराला का व्यक्तित्व सबसे प्रखर और विद्रोही था। एक आलोचक का कथन है - कवि की वाणी, कलाकार के हाथ, पहलवान की छाती और फिलासफर के पैर-यह था निराला का व्यक्तित्व।
 
डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है- “हिन्दी साहित्य में निराला अपने ओजगुण के लिए प्रसिद्ध हैं। उदात्त उनके काव्य का सहज स्वर्ग है। दार्शनिक चिन्तन में, साहित्यिक वाद-विवाद में, व्यंग्य और माधुर्य में, करुणा और शोक में, उनकी वाणी सामान्यतः ऊर्जा से प्रेरित रहती है। उनके साहित्य की यह विशेषता उनके व्यक्तित्व की ही देन नहीं है। उसका गहरा सम्बन्ध उनके युग से है।"
 
निराला का साहित्य यथार्थ जीवन का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है। वह उज्ज्वल भविष्य की प्रेरणा देता है। निराला जी सच्चे अर्थो में प्रगतिवादी कवि हैं। 1940 के पश्चात् निरालाजी के रचनाओं में शक्तिशाली प्रगतिवादी रूप मिलता है। भिखारी, विधवा, तोड़ती पत्थर आदि रचनाएँ उदाहरण के रूप में देखी जा सकती हैं।

छायावादी कवि रचना के सुनहले स्वप्नों में सोये हुए थे और मानवता से उनका सम्बन्ध टूट गया था। फलस्वरूप यथार्थता के कारण हिन्दी साहित्य में प्रगतिवादी काव्यधारा की अवतारणा हुई। प्रगतिवादी साहित्य की आधारशिला मार्क्स की भौतिकवादी विचारधारा पर आधारित है। यह समाज की पीड़ा को, करुणा को, दयनीयता को, उत्पीड़न और शोषण को, असमानता को तथा पक्षपात एवं दमन-ताण्डव को चित्रित करता है। निराला का काव्य-साहित्य मार्क्स के साम्यवाद से प्रभावित है। ये अन्याय, शोषण के सदा विरोधी रहे। निराला जी व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्त्व देते हैं। उनके शब्दों में- "हम पुण्य उसे मानते हैं, जिसमें बहुसंख्यक मनुष्य को लाभ हो, जिसमें वे सुखी हों।"
 
निराला जी क्रान्तिकारी स्वभाव के थे। बन्धन इन्हें पसन्द नहीं था। सर्वप्रथम उन्होंने छन्दों के बन्द को तोड़कर 'मुक्त छन्द' को जन्म दिया तथा नवीन भाव, नवीन भाषा और नवीन छन्द प्रदान किये। संगीत को काव्य और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निराला ने किया। निराला ने शिव के समान गरल पान कर हिन्दी काव्य को अमृत प्रदान किया। उन्होंने कभी रूढ़ियों को धर्म नहीं स्वीकारा। धर्म और रूढ़ि में भेद करते हुए वे कहते हैं-"सब प्रणालियाँ मनुष्यों ने ही सोचकर समय-समय पर अपनी भलाई के लिए समाज में चलायी। यदि हम उन्हें पकड़कर उन्हें ही अपना धर्म मान बैठे तो हम धोखा खायेंगे। कारण हम एक जड़ तरीके को धर्म समझ लेंगे. हमें अपने समाज को हर वक्त इस प्रकार तैयार रखना चाहिए कि फौज के सिपाहियों की तरह इच्छानुसार जब जैसी जरूरत पड़े हम समाज को उसी तरह, उसी रूप में, उसी राह से निकाल लें।”
 
भाषा में नवीनता लाने के लिए अँगरेज़ी अलंकारों का भी प्रयोग किया जैसे- मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय आदि निम्नलिखित पंक्तियाँ मुक्त छन्द के सम्पूर्ण लक्षणों को ग्रहण किये हैं- 

विजन - वन वल्लरी पर 
सोती थी सुहाग भरी 
स्नेह स्वप्न-मग्न अमल कोमल तनु तरुणी जुही की कली 
दृग बंद किये शिथिल पत्रांक में। 

निराला का साहित्य यथार्थ जीवन का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है
निर्धन पीड़ित, शोषित एवं अत्यन्त उपेक्षित प्रगतिवाद के प्राण हैं। इनकी दुर्गति का मुख्य कारण अशिक्षा है। इसलिए कवि ग्राम्य शिक्षा या कृषक शिक्षा पर बहुत अधिक बल देता है। अपने उपन्यास 'अलका' लघु उपन्यास 'बिल्लेसुर बकरिहा', 'नये पत्ते' की अनेक कविताओं में ग्राम्य जीवन की दुर्दशा का निरूपण कवि ने करुणा कलित स्वर में किया है। 'अलका' में वह गाँव जहाँ विजय किसानों का संगठन करता है। 'चातुरी चमार' का गाँव जहाँ निराला स्वयं किसानों की लड़ाई लड़ते हैं, नये पत्ते की कविताओं का गाँव जहाँ नये संघर्ष फूट पड़ते हैं। सब अवध के पिछड़े हुए गाँव - गढ़कोला की प्रतिछवि हैं। इसका जीवन है जमींदार के सिपाही की, लाठी का गूला, लोहा बाँधा, दरवाजे पर गढ़ा कर जाता है। इसे और भारत के ऐसे हीं असंख्य गाँवों को इस नरक से मुक्ति दिलानी है। डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा है कि "जो अपनी उच्चता का दंभ नहीं छोड़ते, जो आन्त्यजों को समान अधिकार नहीं दे सकते वे नये भारत का निर्माण नहीं कर सकते।" अतः अगस्त सन् 1933 की 'सुधा' के माध्यम से बोलते हुए निराला ने इस पर करारा प्रहार किया। भिक्षुक, विधवा और तोड़ती पत्थर, आदि उनकी कविताएँ इसी कोटि की हैं। 'भिक्षुक' कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं - 
 
वह आता 
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, 
बल रहा लकुटिया टेक 
मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को 
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता 
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
 
प्रगतिवादी कवियों ने समाज में उपेक्षित नारियों के जीवन एवं स्वरूप की यथार्थ झाँकी प्रस्तुत की है। निराला जी ने लिखा- “प्राचीन संकीर्णता ने नवीन भारत की शक्ति को मृत्यु की तरह घेरे रखा है। घर की छोटी-सी सीमा में बँधी हुई स्त्रियाँ आज अपने अधिकार, अपना गौरव, देश तथा समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य सब कुछ भूली हुई हैं।" निराला के अनुसार यह देश भारतीय विधवा के साथ किये जाने वाले अनर्थ का ही फल भोग रहा है। निराला के शब्दों में -

ओस कण-सा पल्लवों से झर गया 
जो अश्रु भारत का उसी से सर गया।

पुरुष और स्त्री सम्बन्धी दुहरी नीति पर व्यंग्य करते हुए निराला कहते हैं- "सीता, सावित्री, दमयन्ती की पावन कथाएँ आँख मूंदकर लिख सकता हूँ. इस भारतीय संस्कृति को बिगाड़ने की कोशिश करके ही बिगड़ा हुआ अब जरूर संभलूँगा।" "यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता' की छविमयी मूर्ति भारतीय नारी आज भारत की पावन नगरी में, प्रयाग में अपने आदर्श के लिए विश्वविख्यात तथा उसी के राजमार्ग पर चिलचिलाती धूप में, पेट के लिए पत्थर तोड़ रही है। कवि के शब्दों में-

वह तोड़ती पत्थर 
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर 
नहीं छायादार, 
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार, श्याम तन, भर बँधा यौवन 
नत नयन, प्रिय कर्म रत मन गुरु हथौड़ा हाथ 
करती बार-बार प्रहार :

मेयर ने कहा है-“किसान और नागरिक के बिना काव्य का काम चल सकता है, लेकिन उसमें नारी को हटाते ही उसका जीवन नष्ट हो जायेगा।"
 
निराला के जीवन में जितनी विपत्तियाँ आर्यों सम्भवतः अन्य कोई व्यक्ति इस स्थिति में आत्महत्या कर लेता। निराला जी का कथन है-
 
धिक् ! जीवन जो पाता ही आया है विरोध 
धिक् ! साधना जिसके लिए सदा ही किया शोध । 
निराला के जीवन का संघर्षमय प्रथम चरण आवाक् स्थिति को दर्शाता है- 
एक साथ जब शत घात घूर्ण 
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण 
देखता रहा मैं खड़ा अपल 
वह शरक्षेप वह रण कौशल 

जीवन संघर्ष का दूसरा सोपान वहाँ दिखायी देता है। जहाँ निराला के समय के युग साहित्यकार निराला को वितृष्णा के भाव भर देते हैं-

लिखता अबाध गति- मुक्त छन्द 
पर सम्पादकगण निरानन्द 
वापस कर देते पढ़ सत्वर 
दे एक पंक्ति दो में उत्तर।

इससे स्पष्ट होता है कि निराला का जीवन वेदना और निराशा से परिपूर्ण था। यह कवि में व्यक्तिगत रूप में दिखायी देता है तो कभी सामाजिक वेदना में द्रष्टव्य होता है, लेकिन निराला निराश नहीं होते! 'राम की शक्ति पूजा' में वे कहते हैं -
 
वह एक और मन रहा राम का जो न थका 
जो नहीं जानता दैन्य नहीं जानता विनय । 
इस अपनी वेदना निराशा में निराला को विश्व की वेदना दिखायी देती है- 
अविराम घात-अघात 
आह उत्पात 
यही जग जीवन के दिन-रात 
यही मेरा इनका उनका सबका स्पन्दन 
हास्य से मिला हुआ क्रन्दन

मार्क्सवाद से प्रभावित होने के कारण निराला के काव्य में क्रान्ति एवं विद्रोह का स्वर है। दमन और सुधारों की दुहरी नीति चाल पर निराला जी ने अपनी खीझ व्यक्त की है- "इंगलैण्ड के गँवार भारत की सम्पत्ति से पलते हैं और राष्ट्रीय गौरव का गीत गाते हैं।” डॉ. रामविलास शर्मा का मत है- “निराला ने भारत में अँगरेजों की सांस्कृतिक नीति को उनकी साम्राज्यवादी राजनीति से अलग करके नहीं देखा। उन्होंने इस तथ्य की ओर संकेत किया कि अँगरेजों की साम्राज्य-लालसा को तुष्ट करने का साधन उनकी सांस्कृतिक नीति है। इतिहास को विकृत करना, भारतीयों में अपनी सभ्यता के प्रति हीनभाव पैदा करना, भारतीय भाषाओं को गँवारू और अविकसित बताना उनकी सांस्कृतिक नीति के मूल सूत्र थे।”
 
निराला की क्रान्तिदर्शिता का एक रूप यदि प्रगतिशील काव्य-चेतना है, तो दूसरा मुक्त छन्द को प्रयोग के रूप में शीर्षक और पूँजीवादी वर्ग को संबोधित करते हुए निराला कहते हैं-

अबे, सुनबे गुलाब 
भूल मत जो पायी खुशबू रँगोआब खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट 
डाल पर इतरा रहा है कैपीटलिस्ट। 

'बादल राग', 'आवाहन', 'नाचे उस पार श्यामा' आदि कविताएँ इसी क्रान्ति-दर्शिता की द्योतक हैं। निराला कृषकों की शक्ति को अच्छी तरह जानते थे। केवल दिशा देने की आवश्यकता थी। इसलिए 'बादलराग' में कवि ने विप्लवी वेग का आह्वान किया है-
 
जीर्ण बाहु हैं जीर्ण शरीर 
तुझे बुलाता कृषक अधीर 
ये विप्लव के वीर ।
 
साम्यवाद प्रगतिवादियों का मुख्य उद्देश्य है। समाज की अर्थव्यवस्था की विषमता को दूर करने का उद्देश्य साम्यवाद से ही हल हो सकता है। एक जगह निराला कहते हैं- "मण्डप पहले गरीब ब्राह्मण की छाया के लिए ही कुशादि से आँगन में छाते थे। यहाँ विशाल मोटे शामियाने के नीचे तृण का मण्डप। यह कैसा स्वाँग है,ऐसे ही भारतीयता की रक्षा की जायेगी।"
 
निराला ने प्रगतिशील राष्ट्रों के रूढ़ि विरोधी अभियान को लक्ष्य करके लिखा है-"इस धार्मिक पाश से छुटकारे की आवाज बुलन्द हो रही है। ईसाई गिरजे से नफरत करने लगे हैं, मुसलमानों ने मस्जिदों को ढहा दी है, चीनियों ने चोटियाँ काट डालीं पर हमारे देश में शिखा (चोटी) का झण्डा उसी तरह फहरा रहा है। इस झण्डे के नीचे जितनी बुराइयाँ हुई सब उसी तरह से जी रही हैं।"
 
निराला जी कहते हैं- "अब प्रकृति ने वर्णाश्रम धर्म के सुविशाल स्तम्भों को तोड़ते-तोड़ते पूर्णरूप से चूर कर दिया है। अतः अब इसे मिटाकर ही नये समाज की सुदृढ़ रचना सम्भव है।"
 
निराला जी साम्यवाद के विषय में कहते हैं-
 
जितने रूस के भाव, में मैं कह जाता अस्थिर 
समझते विचक्षण ही जब वे छपते फिर-फिर 
फिर पिता-संग 
जनता की सेवा का व्रत मैं लेता अभंग 
करता प्रचार 
मंत्र पर खड़ा होकर साम्यवाद इतना उदार ।

निराला ने भारतीयों को उनके विगत इतिहास की ओर मोड़ा। विश्व के विपुल वक्ष पर निराला ने भारतीयों को उनके विगत इतिहास की ओर मोड़ा। विश्व के विफल पक्ष पर यूरोप से लेकर विशाल एशिया खण्ड पर फहराती हुई आर्यों की शौर्य दृक्त पताका का बोध कराया। कवि के शब्दों में-

जागो फिर एक बार 
समर में मरकर प्राण 
गान गाये महासिन्धु से सिंन्धुवाद नद-तीरवासी सैन्धव तुरंगों चतुरंग 
पर - चमू - संग;
 
एक भी अयुत लक्ष्य में दुराक्रान्त रहने वाली दाशरथि यौद्ध-मंशा की परम्परा को कवि ने मध्यकाल तक खींचा और दिखलाया कि हिचको नहीं, किसी को अजेय मत मानो। सर्वजेयता तुम्हारी अटूट परम्परा है। तुम कालजयी हो। निराला के शब्दों में-
 
सवा-सवा लाख पर 
एक को चढ़ाऊँगा गोविन्द सिंह निज 
नाम जब कहाऊँगा। 
सत श्री अकाल 
भाल अनल धक धक कर जला 
कि 
भस्म हो गया था काल तीनों गुण ताप त्रय अभय हो गये थे तुम 
मृत्युञ्जय व्योम केश के समान 
अमृत सन्तान 
सिंही की गोद से छीनता है शिशु कौन 
मौन भी क्या रहती वह रहते प्राण स्मरण करो बार-बार 
जागो फिर एक बार

भारतीय सांस्कृतिक ज्ञान के विषय में निराला का कथन है- “विद्या ज्ञान है, ज्ञान का प्रकाश मार्जन इससे मन और बुद्धि प्रखर होती है, चमकती है, जैसे- हमारी पराधीनता का कारण अविद्या है.....ज्ञान कभी पराधीन नहीं रह सकता, बल्कि यदि एक ही शब्द में स्वाधीनता की परिभाषा की जाय तो वह ज्ञान ही होगा।"
 
डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- "द्विज-शूद्र का भेद मिटाने वाली यह समस्त विचारधारा कहीं न कहीं शंकर के अद्वैत सिद्धान्त से प्रेरित थी, किन्तु प्रेरित होकर वह शंकर की अनुवर्तिनी मात्र नहीं बनी रही।" स्वामी विवेकानन्द का प्रभाव निराला में परिलक्षित होता है। निराला की रचनाओं पर दर्शन का प्रत्यक्ष गम्भीर प्रभाव पड़ा है। 'अधिवास', 'पंचवटी, प्रसंग', 'तुम और मैं' आदि रचनाओं में दार्शनिक प्रभाव देखा जा सकता है। 'तुलसीदास' में व्यक्तिगत सुख और जीवन के महान् मूल्यों के बीच संघर्ष दिखाकर उदात्त मूल्यों को चित्रित किया गया है। कवि के शब्दों में-

धिक् ! आये तुम यों अनाहूत धो दिया श्रेष्ठ कुल धर्म धूत 
राम के नहीं काम के सूत कहलाये। 
हो बिके जहाँ तुम बिना दाम वह नहीं कुछ हाड़ चाम 
वैसी शिक्षा कैसे विराम पर आये । 
आत्मा और परमात्मा के विषय में निराला की निम्नलिखित पंक्तियाँ दर्शनीय हैं- 
तुम कर पल्लव झंकृत सितार 
मैं व्याकुल विरह रागिनी तुम पथ हो मैं हूँ रेणु तुम हो राधा के मनमोहन मैं उन अधरों की वेणु ।। 

अन्त में हम विश्वम्भरनाथ मानव के शब्दों में कह सकते हैं- "जीवन अपनी सम्पूर्ण विविधता के साथ ही नहीं पूरी गहराई के साथ उनके काव्य में चित्रित हुआ है। ओज और करुणा, विनय और विद्रोह, रोमांस और भक्ति, क्लासिक गम्भीरता, हास्य और व्यंग्य सभी को वे समान शक्ति से संभालते दिखायी देते हैं। वे एक साथ ही छायावादी, प्रयोगवादी, राष्ट्रवादी, मानवतावादी और ब्रह्मवादी हैं। वे व्यक्तिवादी भी हैं और समष्टिवादी भी,यथार्थवादी भी और आदर्शवादी भी, निराशावादी भी और आनन्दवादी भी युग की सभी प्रमुख प्रवृत्तियाँ उनके काव्य में प्रतिबिम्बित हैं वे पूरा एक युग हैं।"

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