महादेवी वर्मा के काव्य में छायावादी भावों की अभिव्यक्ति महादेवी वर्मा छायावादी युग की एक श्रेष्ठ कवयित्री हैं। छायावादी काव्य को न केवल उन्होंने रूप
महादेवी वर्मा के काव्य में छायावादी भावों की अभिव्यक्ति
महादेवी वर्मा छायावादी युग की एक श्रेष्ठ कवयित्री हैं। छायावादी काव्य को न केवल उन्होंने रूप-रंग, भाषा-सज्जा, भाव-संवेदना प्रदान कर समृद्ध किया, अपितु उसकी उत्कट व्याख्या भी की। वे छायावादी गौरव गाथा की महान् प्रतीक हैं।छायावाद को हिन्दी साहित्य में उच्चतम स्थान दिलाने में उनका योगदान भी अविस्मरणीय है। इसीलिए सुमित्रानन्दन पन्त ने उन्हें 'छायावादी भाव-साधना के युग की प्रेम-राधिका मीरा' कहा है। उनके काव्य में छायावादी अभिव्यञ्जना तथा भाववस्तु ने अपनी पूर्णता प्राप्त की है जिनका अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है -
वेदना और करुणा
महादेवी की काव्य-यात्रा उनकी करुणामय वेदना की यात्रा है। प्रेम, स्नेह, सहानुभूति एवं दया-करुणा में ही वे जीवन की सार्थकता मानती हैं। उनकी दृष्टि में, 'बिना स्नेह, प्रेम, समता, बंधुता और मानव-गरिमा के मानव-जाति का भविष्य केवल मरण-पर्व है।' इसलिए दुःखी प्राणियों के लिए वे साधनारत दिखायी देती हैं और अपने आँसुओं को किसी दुःखी हृदय की माला बनाना चाहती हैं -
'वर दो मेरा यह आँसू उसके उर की माला हो
प्रिय जिसने दुःख पाला हो।'
प्रकृति चित्रण
छायावाद की प्रतिष्ठित कवयित्री होने के कारण उनके काव्य में प्रकृति-चित्रण की विशदता है। उन्होंने प्रकृति के माध्यम से अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की है। अन्य छायावादी कवियों की भाँति महादेवी को प्रकृति का क्षण-क्षणे परिवर्तन अत्यन्त मोहक लगता है। यही कारण है कि उनके काव्य में प्रकृति का अपार वैभव नानारूपों में परिलक्षित होता है। प्रकृति-चित्रण के सभी मान्य प्रकारों में महादेवी की लेखनी सम्यक्रूपेण मुखरित हुई है। सद्यःस्नाता नायिका के रूप में प्रकृति का एक चित्र दर्शनीय है -
'रूपसि तेरा घन-केश-पाश ।
श्यामल-श्यामल कोमल-कोमल, लहराता सुरभित केश पाश ।
नभ-गंगा की रजत धार में, धो आई क्या इन्हें रात ?"
रहस्यवाद
परोक्ष रहस्य सत्ता के प्रति जिज्ञासा और उत्कंठा की भावना सभी छायावादी कवियों में है। रहस्यवाद का यह प्रथम सोपान महादेवी के काव्य की भी विशेषता है। इसी भावना से वे विराट्र सत्ता की छवि का रसपान करना चाहती है। वह कौन है ? उसका अस्तित्व कहाँ है ? उसका रहस्य क्या है ? यह सब जानने का कौतूहल महादेवी जी की कविताओं में पाया जाता है। महादेवी जी उस चित्रकार का रहस्य जानना चाहती हैं -
'कनक-से दिन, मोती-सी रात,
मिटाता- रँगता बारम्बार
कौन जग का वह चित्राधार ?'
आत्मा-परमात्मा का महामिलन रहस्यवाद की अन्तिम अवस्था है। ऐसी स्थिति में पहुँचकर कोई द्वैत नहीं रह जाता। अपनापन जाता रहता है, बाह्य उपकरण की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। उनकी ये पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं :
'तुम मुझमें प्रिय ! फिर परिचय क्या ?
चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम
मधुर राग तू मैं हूँ स्वर-संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम
काया-छाया में रहस्यमय
प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या ?'
नारी और प्रेम
महादेवी जी के काव्य में नारी और प्रणय की प्रधानता है। सूक्ष्म-सुन्दर नारी-सौन्दर्य के प्रकाशन के साथ ही सूक्ष्म और आत्मिक प्रेम का चित्रण भी छायावाद की विशेषता है। महादेवी का समस्त काव्य ही सूक्ष्म भावात्मक प्रेम का द्योतक है, वह निश्छल, पावन और परिष्कृत है। शारीरिकता और स्थूलता तो उसे छूने भी नहीं पाती है। महादेवी के काव्य की नारी केवल प्रेममयी, सौन्दर्यमयी, कलामयी, जीवन - सहचरी, प्रेयसी, प्राण ही नहीं वह श्रद्धामयी, कल्याणी, प्रेरणामयी, शक्तिमती, करुणामयी भी है। यह प्रकृति-शक्ति अत्यन्त विराट् है -
'लय गीत मदिर, गति ताल अमर अप्सरि तेरा नर्त्तन सुन्दर ! र
वि-शशि तेरे अवतंस लोल
सीमन्त जटिल तारक अमोल
चपला विभ्रम, स्मित इन्द्रधनुष हिमकण बन झरते स्वेद निकर
युग है पलकों का उन्मीलन।'
विरहानुभूति
छायावादी काव्य में विरहानुभूति का अत्यधिक महत्त्व है। महादेवी का काव्य विरह और पीड़ा का काव्य है। वियोग की विभिन्न मनोदशाओं के चित्र उन्होंने अपनी तूलिका से उकेरे हैं। प्रिय के वियोग की व्यथा इन्हें वेदना-प्रिय बना देती है। वे वियोग की उस चरमावस्था पर पहुँच गयी हैं जहाँ उन्हें विरह भी मिलन-सुख की भाँति प्रीतिकर मालूम पड़ता है। उन्हें विरह से लगाव इतना बढ़ गया है कि बिना वेदना के निर्वाण को भी अस्वीकार कर देती हैं, उसके अस्तित्व को पूर्णतः भ्रामक मान उसे नकारती हैं-
'जिसमें कलक न सुधि का दंशन
प्रिय में मिट जाने का साधन वे निर्वाण मुक्ति मेरे
जीवन के शत-बंधन ।'
क्षणिक पलायन
प्रसाद, पंत, निराला का छायावादी काव्य जिस प्रकार हमारे राष्ट्रीय और सांस्कृतिक आन्दोलनों को छू लेता है, वह बात महादेवी में नहीं आ पायी। चारों छायावादी कवियों में वे सर्वाधिक आत्मकेन्द्रित रहीं। यद्यपि कोई भी छायावादी कवि जीवन की यथार्थ विभीषिकाओं में संघर्षशील, न हो सका, बल्कि कई बार वह संघर्षों से खिन्न होकर इस कोलाहल की अवनी को छोड़कर प्रकृति अथवा अतीत की सुखद छाया में चला जाना चाहता रहा, पर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जीवन की उच्चाकांक्षाओं से कोई रिक्त भी न था । कुछ आलोचकों ने इसे छायावादी कवियों की पलायनवृत्ति कहा है, जो आंशिक रूप में ही सत्य है। महादेवी के प्राण क्षितिज के पार उस रहस्यमय लोक में जाने के लिए विकल हैं -
'फिर विकल हैं प्राण मेरे,
तोड़ दो वह क्षितिज, मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है।
जा रहे जिस पंथ से युग-कल्प उसका छोर क्या है।
क्यों मुझे प्राचीर बनकर आज मेरे श्वास घेरे ?"
स्मृति और स्वप्न
छायावादी कवियों ने स्मृति और स्वप्न से अपनी कविता के कलेवर को सजाया है। महादेवी जी भी इसका अपवाद नहीं हैं। उनकी स्मृतियों और स्वप्नों में मिलन, हर्ष, उमंग आदि की अपेक्षा विकलता, अधीरता, विरह और पीड़ा की प्रचुरता ही अधिक है। यह मानते हुए भी कि ये स्मृतियाँ और स्वप्न कवि के अन्तर्मन की बुभुक्षा को शान्त करने के साधन मात्र ही होते हैं, यह भी मानना होगा महादेवी जी अपने काव्य में अपने जीवन-स्वप्न को वाणी में अनूदित करके बहुत ऊँचा उठ गयी हैं। उन्हें अपने सपनों की सत्यता पर अगाध विश्वास है।
कलात्मक अभिव्यक्ति, रम्य कल्पनाएँ
छायावादी कविता की मूल भावना रोमांटिक है। यह मानसिक स्वच्छन्दता का काव्य है। रूढ़िगत प्राचीन काव्य से असंतुष्ट होकर छायावादी कवियों ने नवीन काव्य-सृजन का उत्साह दिखाया। नवीन सौन्दर्य-सृष्टि के लिए उनकी कल्पनाएँ इन्द्रधनुषी पंख लगाकर उड़ने लगीं। महादेवी का काव्य भी छायावादी रंगीन कल्पनाओं से युक्त नव अभिव्यक्ति शैली का काव्य है। ध्वर्न्यव्यञ्जक मधुर शब्दों तथा संगीतात्मक ललित पदों से महादेवी ने अपनी पद-शैली सजायी है। कल्पना- प्रवणता की अपार विशेषता के कारण महादेवी जी ने अपनी अद्भुत चित्र-शक्ति का परिचय दिया है। उन्होंने अपने गीतों के समानान्तर चित्र बनाकर अपनी चित्रात्मकता को प्रमाणित कर दिया है। उनके एक प्रकृति-चित्र का उदाहरण देखिए-
'स्वर्ण कुमकुम में बसाकर,
है रँगी नव मेघ चूनर,
चूनर,
बिछल मत घुल जाएगी,
इन लहरियों में लोल री !'
सौन्दर्यमय प्रतीक-विधान के रूप में लाक्षणिक प्रयोग भी छायावादी शैली की एक विशेषता है। महादेवी की रहस्य भावनाओं की अभिव्यक्ति सर्वत्र ही प्रतीकों द्वारा है। प्रतीकों के रूप में लक्षणा का एक सुन्दर उदाहरण देखिए -
'यह पतझड़ मधुवन भी हो
शूलों का दंशन भी हो, कलियों का चुम्बन भी हो।'
अन्ततः पंतजी के शब्दों में कह सकते हैं कि "उनके काव्य के और भी अनेक पक्ष हैं।. .....अन्य छायावादियों की भाँति उनके प्रतीक, बिम्ब-विधान, लाक्षणिक संकेत तथा प्रकृति चित्रण के अनेक आयाम रहे हैं, जिससे कभी तादात्म प्राप्त करके, कभी उसे उपकरण बनाकर, उन्होंने अपनी अभिव्यञ्जना को सौन्दर्य- दीप्त तथ मर्मस्पर्शी बनाया है। उनके काव्य में विश्व-नारी के अतृप्त प्रेम, अविकसित, राग-भावना की विशुद्ध हृदयानुभूति है। उनकी दृष्टि अन्तर्मुखी तथा वैयक्तिक ही है, जो उनकी भाववस्तु के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है।"
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