सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व एवं कृतित्व सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' हिंदी साहित्य के उन यशस्वी साहित्यकारों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' हिंदी साहित्य के उन यशस्वी साहित्यकारों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं और व्यक्तित्व के माध्यम से हिंदी साहित्य को न केवल समृद्ध किया, बल्कि उसे एक नई दिशा और गहराई प्रदान की। वे छायावाद के प्रमुख कवि होने के साथ-साथ प्रगतिवादी और प्रयोगवादी साहित्य के भी अग्रदूत थे। उनकी कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, निबंध और आलोचनात्मक लेखन हिंदी साहित्य में एक अनुपम स्थान रखते हैं। निराला का व्यक्तित्व उतना ही जीवंत, जटिल और प्रेरणादायक था, जितनी उनकी रचनाएँ। उनका जीवन, विचारधारा और साहित्यिक योगदान हिंदी साहित्य के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में अंकित है।
निराला जी के अध्येता डॉ० रामविलास शर्मा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'निराला की साहित्य-साधना' में लिखा है कि उनका जन्म “माघ शुक्ल 11 संवत् 1955 तदनुसार 29 फरवरी, 1899 को रामसहाय तिवारी के घर हुआ।" जन्मस्थान के बारे में भी उनका मत है कि “निराला जी का जन्म बंगाल के मिदिनापुर जिले की महिषादल रियासत में हुआ था।" उनके पूर्वज उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला गाँव के रहनेवाले थे। यह बैसवाड़े का एक छोटा-सा गाँव है। पिता रामसहाय अवध के सीधे-सादे किसान थे जो महिषादल रियासत में सिपाही बन गये थे। “तीन वर्ष की अवस्था में बालक के जीवन में एक कभी पूरा न होनेवाला अभाव छोड़कर माता स्वर्ग सिधार गईं। फिर भी इनका पालन-पोषण बहुत अच्छे ढंग से हुआ। बड़े होने पर महिषादल राज्य के हाईस्कूल में प्रविष्ट हुए। नवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते उनका विवाह हो गया था।” आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के अनुसार “सन् 1911 में निराला जी का विवाह रायबरेली जिले के डलमऊ स्थान के निवासी श्री रामदयाल दूबे की पुत्री से सम्पन्न हुआ। निराला जी की पत्नी का नाम मनोहरा देवी था।” उनके दो सन्तानें हुई, जिनमें एक पुत्र और एक पुत्री थी। मनोहरा देवी प्रायः मायके में ही रहीं और अधिक दिनों तक कवि-पति का साथ न दे सकीं। मात्र 20 वर्ष की उम्र में ही वे विधुर हो गये। पत्नी की मृत्यु का समाचार उन्हें अचानक कलकत्ते में प्राप्त हुआ और घर पहुँचने के साथ ही उन्हें अपने चचेरे भाई, भाभी, चाचा की मृत्यु के भी समाचार प्राप्त हुए। उनके पिताजी की भी दुःखद मृत्यु इन्हीं दिनों हुई ।
पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने महिषादल राज्य में नौकरी कर ली। किन्तु स्वजनों के स्नेह से वंचित हो जाने का उनके हृदय पर बड़ा आघात लगा और वे नौकरी छोड़कर घुमक्कड़ बन गये। इस बीच उन्हें भयंकर आर्थिक संकटों से जूझना पड़ा। जीविकोपार्जन की समस्या भयंकर रूप धारण कर उनके सामने उपस्थित हुई। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने पर उन्हें 'समन्वय' नामक पत्र का सम्पादन कार्य मिला। महादेवप्रसाद सेठ ने सन् 1923 में 'मतवाला' नामक पत्र निकाला। उन्होंने एक वर्ष तक इसके सम्पादन का कार्य किया। दुलारेलाल भार्गव के साथ उन्होंने 'गंगा पुस्तकमाला' में भी कार्य किया। 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद वे प्रयाग चले आये। यहाँ उनको युवा विवाहिता पुत्री की मृत्यु का वज्राघात झेलना पड़ा। आर्थिक और सामाजिक असंगतियों के परिणामस्वरूप वे कुछ विक्षिप्त-से हो गये। अगस्त 1960 ई० में रुग्ण हुए तो कभी पूर्ण स्वस्थ नहीं हो पाये। 15 अक्टूबर, सन् 1961 रविवार को चित्रकार कमलाशंकर के दारागंजवाले मकान में प्रातः 9 बजकर 23 मिनट पर साहित्याकाश का यह सूर्य भौतिक दृष्टि से सदा के लिए अस्त हो गया।
व्यक्तित्व एक संवेदनशील विद्रोही का जीवन
महाप्राण निराला का व्यक्तित्व भी नामानुरूप सर्वथा अद्वितीय तथा निराला था। बाह्य दृष्टि से उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट, उच्च- उन्नत ललाट, विस्तृत वक्ष, गढ़ी हुई मांसपेशियाँ, सिन्धु-तटवासी ऐतिहासिक आर्यों का जीवन्त प्रतीक था। उनके ललाट, नेत्र, नासिका, अधर, केश, स्कन्ध, वक्ष, भुजाओं, जंघाओं और हाथ की उँगलियों की प्रशंसा में लेखकों ने श्रेष्ठतम विशेषणों का प्रयोग किया है। वेशभूषा और केश विन्यास के सम्बन्ध में डॉ० बच्चन सिंह लिखते हैं, “खादी का लम्बा पंजाबी कुर्त्ता, लुंगी, पैरों में चप्पल अथवा उसका भी अभाव, ऐसे वेश में दारागंज की सड़कों से गुजरते हुए उन्हें कोई भी देख सकता था। कुछ समय पहले निराला का वेश - विन्यास बड़ा ही रोमांटिक था। धोती और कुर्ता साफ धुले हुए। इत्र से चुपड़ी हुई स्कन्ध केशराशि उनके व्यक्तित्व में एक नवीन आकर्षण भर देती थी।”
उनके आन्तरिक व्यक्तित्व में औदार्य, आत्माभिमान, विद्रोह एवं क्रान्ति आदि ऐसे अनेक गुण थे जो उनके काव्यात्मक व्यक्तित्व का निर्माण करते थे। मानवता की अनेक सद्वृत्तियों ने एक ही स्थान पर एकत्र होकर उनके व्यक्तित्व का निर्माण किया था। बाह्य आडम्बर और कृत्रिमता को उन्होंने कभी महत्त्व नहीं दिया। उनकी उदारता में अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं, जिनसे उनकी करुणा और दानशीलता का पता चलता है। ये कहानियाँ काल्पनिक नहीं, लोगों ने उन घटनाओं को स्वयं देखा है और उनका उल्लेख किया है। निराला जी अपना जाग्रत अहं कभी खो नहीं सके। अपनी हिन्दी-साहित्य के प्रति आस्था और निर्भीक प्रवृत्ति के कारण वे महात्मा गांधी, पण्डित नेहरू, गोविन्दबल्लभ पन्त आदि से भी दो-टूक बातें करने में नहीं हिचके ।
निराला जी के जीवन को आद्यन्त रूप से देखने पर इनका व्यक्तित्व अतिशय क्रान्तिकारी सिद्ध होता है। सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में वे प्रत्यक्ष रूप से उलझे। किसी की परवाह न करते हुए उन्होंने सिद्धान्तों का निर्वाह किया। वे विद्रोही भी थे। भाग्य और नियति, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों से विद्रोह करने का दृढ़ संकल्प उनका स्वभाव था। मुक्त छन्द का विकास सबसे पहले उन्होंने किया। उनकी शैली का कितना ही विरोध हुआ, किन्तु उन्हें अपने मार्ग से कोई विचलित नहीं कर पाया। उनको लांछन का भय भीरु नहीं बना सका और प्रलोभन लुब्ध नहीं कर सके। अपने विक्षुब्ध जीवन-सागर के किनारे उन्होंने तरंगें नहीं गिनीं, प्रत्युत उत्फुल्लता के साथ उसमें सन्तरण किया। धैर्यपूर्वक समीकरण की तरह उसे पार किया। इतनी प्रचण्ड आत्मशक्ति और नर-जीवन के सकल स्वार्थों को समर्पित करने की सबल भावना इस युग के अन्य कवियों में देखने को नहीं मिलती।
कृतित्व: साहित्यिक योगदान का विशाल फलक
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का साहित्यिक योगदान हिंदी साहित्य में एक युग परिवर्तन के समान है। उन्होंने कविता, गद्य, उपन्यास, कहानी, निबंध और आलोचना जैसे विभिन्न विधाओं में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। उनकी रचनाएँ छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का अनूठा संगम हैं, जो उन्हें हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय स्थान प्रदान करती हैं।
काव्य रचनाएँ
निराला को हिंदी साहित्य में छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माना जाता है, अन्य तीन जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा हैं। उनकी कविताएँ छायावादी भावनाओं, प्रकृति चित्रण और मानवीय संवेदनाओं का सुंदर समन्वय हैं। उनकी कविता 'जुही की कली' प्रकृति और प्रेम की भावनाओं का उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ उन्होंने जुही के फूल के माध्यम से प्रेम की कोमलता और सौंदर्य को व्यक्त किया। उनकी कविता 'भिक्षुक' में एक भिखारी की दयनीय स्थिति को इतने मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है कि पाठक उसकी पीड़ा को स्वयं अनुभव करता है।
निराला की कविताएँ केवल भावनाओं तक सीमित नहीं थीं; उनमें सामाजिक चेतना और विद्रोह की प्रबल भावना भी थी। उनकी कविता 'तोड़ती पत्थर' में उन्होंने एक मजदूर स्त्री के संघर्ष और उसकी मेहनत को इतने प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया कि यह कविता प्रगतिवादी साहित्य की एक मिसाल बन गई। इसी तरह, 'राम की शक्ति पूजा' में उन्होंने राम के चरित्र को एक दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया, जिसमें शक्ति और साहस की खोज को गहनता से उकेरा गया है। उनकी कविता 'कुकुरमुत्ता' में सामाजिक असमानता और शोषण पर तीखा व्यंग्य है, जो उनकी प्रगतिशील विचारधारा को दर्शाता है।
निराला की कविताओं की भाषा और शैली उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी। उन्होंने हिंदी कविता में नई लय, छंद और भाषा का प्रयोग किया, जो पारंपरिक काव्य शैली से एकदम भिन्न था। उनकी कविताओं में बंगाली और संस्कृत साहित्य का प्रभाव तो दिखता है, लेकिन उनकी मौलिकता ने हिंदी कविता को एक नया आयाम दिया। उनकी रचनाएँ जैसे 'परिमल', 'अनामिका', 'गीतिका' और 'नए पत्ते' हिंदी कविता के अमूल्य रत्न हैं।
गद्य लेखन
निराला केवल कवि ही नहीं, बल्कि एक उत्कृष्ट गद्यकार भी थे। उनकी कहानियाँ, उपन्यास और निबंध सामाजिक यथार्थ और मानवीय संवेदनाओं को गहराई से उजागर करते हैं। उनकी कहानियाँ जैसे 'बिल्लेसुर बकरिहा', 'सुखिया की माँ' और 'चतुरी चमार' ग्रामीण जीवन, गरीबी और सामाजिक असमानता को चित्रित करती हैं। इन कहानियों में निराला ने निम्न वर्ग के लोगों की पीड़ा और उनके जीवन की सच्चाइयों को इतने संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया कि पाठक उनके दुख-दर्द को स्वयं महसूस करता है।
उनका उपन्यास 'अलका' नारी जीवन की त्रासदी और सामाजिक बंधनों को दर्शाता है। इस उपन्यास में निराला ने एक ऐसी नायिका का चित्रण किया, जो सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ संघर्ष करती है। उनका एक अन्य उपन्यास 'प्रभवती' भी सामाजिक और पारिवारिक जीवन की जटिलताओं को उजागर करता है। निराला के गद्य में भाषा की सादगी और प्रवाह उनकी कविताओं की तरह ही प्रभावशाली है। उनके निबंध और आलोचनात्मक लेखन, जैसे 'रवींद्र कविता कानन' और 'प्रबंध परिचय', साहित्यिक चिंतन और आलोचना के क्षेत्र में उनकी गहरी समझ को दर्शाते हैं।
साहित्यिक नवाचार
निराला ने हिंदी साहित्य में कई नवाचार किए। उन्होंने छायावादी कविता को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया, लेकिन साथ ही प्रगतिवादी और प्रयोगवादी साहित्य को भी बढ़ावा दिया। उनकी रचनाओं में परंपरा और आधुनिकता का समन्वय देखने को मिलता है। उन्होंने हिंदी कविता में मुक्त छंद का प्रयोग किया, जो उस समय के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। उनकी भाषा में खड़ी बोली का सहज और स्वाभाविक प्रयोग था, जो आम जनमानस की भाषा से जुड़ा हुआ था। उनकी रचनाओं में बंगाली, संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव तो था, लेकिन उनकी मौलिकता ने उन्हें एक अलग पहचान दी।
सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
निराला का साहित्य केवल साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। उनकी रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों, जैसे जातिवाद, गरीबी और शोषण, पर तीखा प्रहार है। वे समाज के कमजोर वर्गों की आवाज बनकर उभरे और अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक सुधार की वकालत की। उनकी कविताएँ और कहानियाँ आज भी सामाजिक चेतना को जागृत करने में सक्षम हैं।
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