कबीर के काव्य में कला का अभाव है फिर भी वे एक महान कवि हैं

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कबीरदास हिन्दी साहित्य के अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न कवि हैं। पढ़े-लिखे न होने के कारण उनकी कविता में भाषागत अशुद्धि, पिंगल सम्बन्धी शिथिलता और वाह्य चमत

कबीर के काव्य में कला का अभाव है फिर भी वे एक महान कवि हैं


बीरदास की कृतियों का साहित्यिक महत्त्व अभी तक संदिग्ध और विवादास्पद बना हुआ है। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सन्तों की वाणियों को 'अव्यवस्थित और ऊटपटांग', 'भद्ददी तुकबन्दियों से युक्त रूपकों वाली' तथा भक्ति-रस की सरसता से रहित' कहकर उन्हें साहित्य की कोटि से बाहर निकाल देने की संस्तुति की थी। दूसरी ओर अनेक चोटी के समीक्षकों ने कबीर की रचनाओं पर विचार करते समय उनके साहित्यिक महत्त्व को रेखांकित करने का प्रयास किया। डॉ० श्यामसुन्दर दास ने कबीर के काव्य में सत्य की अभिव्यक्ति का दर्शन कर, उन्हें श्रेष्ठ कवि के रूप में स्वीकार किया। उन्हीं के शब्दों में- “सत्य के प्रकाश का साधन बनकर, जिसकी प्रगाढ़ अनुभूति उनको हुई थी, कविता स्वयमेव उनकी जिह्वा पर आ बैठी।" डॉ० रामकुमार वर्मा ने संदेश की महानता के कारण कबीर को महान् कवि स्वीकार करते हुए अपना निष्कर्ष इस प्रकार प्रस्तुत किया- “यद्यपि कबीर ने पिंगल और अलंकार के आधार पर काव्य रचना नहीं की तथापि उनकी काव्यानुभूति इतनी उत्कृष्ट थी कि वे सरलता से महाकवि कहे जा सकते हैं। उनकी कविता में छन्द और अलंकार गौण हैं और संदेशप्रधान।" 

कबीर के काव्य में कला का अभाव है फिर भी वे एक महान कवि हैं
डॉ० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने अनुभूति की सच्चाई और कल्पना में प्रथम को श्रेष्ठतर बताते हुए सन्त कवियों के काव्य को उससे ओत-प्रोत बताया और उदाहरण में दादू के इन शब्दों को उद्धृत किया, "अपने प्रेम पात्र से मिलने की तीव्र अभिलाषा जाग्रत होने पर मेरे भीतर से रात-दिन गीत अपने आप निकल पड़ते हैं और मैं अपनी पीर को, गाने वाले पक्षी की भाँति व्यक्त करने लगता हूँ। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर के आकर्षक व्यक्तित्व और उनकी प्रखर व्यंग्यपूर्ण उक्तियों से प्रभावित होकर, उन्हें श्रेष्ठ कवि के रूप में स्वीकार किया। उनके अनुसार, "मस्ती फक्कड़ाना स्वभाव और सब कुछ को झाड़-फटकार कर चल देने वाले स्वभाव ने कबीर को हिन्दी साहित्य का अद्वितीय व्यक्तित्व बना दिया है। उनकी वाणियों में सब कुछ को छाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता है। इसी ने कबीर की वाणियों में अनन्य जीवन रस भर दिया है। ऐसे आकर्षक वक्ता को कवि न कहा जाये तो और क्या कहा जाये ?" डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत ने सच्चिदानन्द रूपिणी आत्मा की सहज अभिव्यक्ति से प्रभावित होकर कबीर की प्रशंसा इन शब्दों में की है- "महात्मा कबीर (ऐसे ही) श्रेष्ठ आध्यात्मिक कवि थे। उनके काव्य में हमें एक अलौकिक आनन्द मिलता है। आत्मा और परमात्मा के रहस्यमय सम्बन्धों के वर्णन मिलते हैं। उनका काव्य राम रसायन से सराबोर है।"
 
काव्य के मूलभूत तत्त्व आत्मा अथवा प्राणतत्त्व को ध्यान में रखकर यदि कबीर के काव्य पर विचार किया जाये तो हमें निराश नहीं होना पड़ेगा। यह बात दूसरी है कि भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखने वाले भारतीय साहित्याचार्यों द्वारा दी गयी काव्य की परिभाषाओं पर वह खरा उतरे, किन्तु उसमें काव्य के मूल तत्त्व का अभाव नहीं है। भारतीय आचार्यों ने अपने-अपने विचार के अनुकूल काव्य को सीमित क्षेत्र में बाँध रखने का प्रयास किया है। किसी ने उसे "शब्दार्थौ सहितौ” किसी ने "रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः", किसी ने “अदोषौशब्दार्थो सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि", किसी ने "वाक्यं रसात्मक" तक ही सीमित रखा है। इन सभी विचारों में काव्य के मूलभूत तत्त्व को समेटा नहीं जा सकता है। हाँ, ध्वन्यालोककार ने अलबत्ता इन सबकी अपेक्षा काव्य को अधिक निकट से देखा है। असल में, उनके ध्वनि सम्प्रदाय में सभी सम्प्रदायों का अन्तर्भाव हो जाता है। उनके अनुसार- "जिस प्रकार स्त्रियों के रूप में अवयव सम्बन्धी सौन्दर्य के अतिरिक्त लावण्य नाम की एक अनिवर्चनीय वस्तु होती है, उसी प्रकार महाकवियों की वाणी में भी एक प्रतीयमान अनिर्वचनीय सौन्दर्य होता है।” 

सम्भवतः इसी को पाश्चात्य समीक्षा में उदात्त तत्त्व (दि सब्लाइम) कहा गया है। कहना न होगा कि सत्य की प्रगाढ़ अनुभूति, संदेश की महानता, प्रणयानुभूति की तीव्रता, व्यक्तित्व की विशालता और सच्चिदानन्द स्वरूपिणी आत्मा की सहज अभिव्यक्ति से युक्त महात्मा कबीर के काव्य में यह प्रतीयमान अनिर्वचनीय सौन्दर्य अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त हुआ है। भाषागत अशुद्धि, पिंगल सम्बन्धी शिथिलता और वाह्य चमत्कार के अभाव में भी उनकी वाणी में एक अद्भुत शक्ति है। वस्तुतः यही शक्ति काव्य का प्राण-तत्त्व है।
 
भाव और भाषा अथवा वस्तु और शिल्प कवि के दो अवयव हैं। इनमें पहला प्राण है और दूसरा शरीर। प्राण अपने में स्वतन्त्र और निर्विकार होता है किन्तु शरीर की शोभा प्राण से होती है। बिना प्राण का मृत शरीर कोई मूल्य नहीं रखता। इसी प्रकार हृदय को स्पर्श करने वाली कविता शाश्वत और निर्मल होती है। अलंकारों से लदी तत्त्वहीन कविता व्यर्थ होती है। तुलसी और केशव के काव्य में इसलिए बहुत अन्तर आ गया है। इस बात को पाश्चात्य स्वच्छन्दतावादी काव्याचार्यों ने खूब समझा था। वर्ड्सवर्थ ने कविता के तमाम वाह्य उपादानों को आवश्यक ठहराते हुए उसे "स्पान्टेनियस ओवर फ्लो ऑफ पावरफुल फीलिंग्स" कहा है। महात्मा कबीर का काव्य ऐसा ही है। उसमें गहन अनुभूतियों का उच्छल प्रवाह है, जिसमें श्रोता अथवा पाठक को अपने साथ बहा ले जाने की अपूर्व क्षमता है। उन्होंने हरिरस का आकण्ठ पान किया था। प्रेमघन की वृष्टि से उनका अंग-प्रत्यंग सराबोर हो गया था और उनकी अन्तरात्मा सरस और स्निग्ध हो गयी थी। यही प्रेम-रससिक्त आत्मा उनके काव्य में फूट पड़ी है। 

आत्मा-परमात्मा के नाना रूपात्मक सम्बन्धों की अभिव्यक्ति में उनका कोमल और निर्मल हृदय प्रकट हो गया है। अदृश्य प्रियतम के प्रति संयोग और वियोग के नाना रूपात्मक चित्रों में लौकिक शृंगार से कई गुना ज्यादा तीव्रता और गम्भीरता है। उनमें आत्मा की पुकार है, वाणी का विलास नहीं। जिस राम रसायन में वे आचूड़ निमग्न हुए थे, वही उनके काव्य में छलक पड़ा है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- “यद्यपि कबीर ने कहीं काव्य लिखने की कल्पना नहीं की तथापि उनकी आध्यात्मिक रस की गगरी से छलके हुए रस से काव्य की कटोरी में भी कम रस इकट्ठा नहीं हुआ।"
 
जीवन और काव्य का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। जीवन के सरस और कटु अनुभवों का संकलित बिम्ब काव्य है। मैथ्यू आर्नाल्ड ने इसीलिए काव्य को "क्रिटिसिज्म ऑफ लाइफ" (जीवन की आलोचना) कहा है। कबीर के काव्य में जो कुछ अभिव्यक्त हुआ, वह स्वानुभूत है। पोथियों को पढ़कर उन्होंने ज्ञान इकट्ठा नहीं किया था और न यह उनके फक्कड़ाना स्वभाव के अनुकूल था। वे अनुभव के गीत गाने वाले रागी थे, आँखों की देखी कहने वाले कवि थे। जीवन को भली प्रकार जीने के कारण, अनुभूति की इसी गहराई के कारण, उनकी अभिव्यक्ति में सोलह आने ईमानदारी है। उनका काव्य जीवन को अभिव्यक्ति करने में जितना सफल हुआ, उतना मध्यकाल के अन्य किसी भक्त कवि का नहीं। यथार्थ के चित्रण में वे प्रगतिवादी कवियों के समीप आ गये हैं। हाँ, यह अवश्य है कि वे सर्वत्र आध्यात्मिक हैं और प्रगतिवादी कवि भौतिक। कबीर के काव्य का बहुत बड़ा अंश जीवन के यथार्थ की समीक्षा है।
 
जिस प्रकार काव्य के अनुभूति पक्ष में 'प्रतीयमान अनिर्वचनीय सौन्दर्य' को उसका प्राणतत्त्व कहा गया है, उस प्रकार भाषा, छन्द, अलंकार आदि के अतिरिक्त अभिव्यक्ति पक्ष का भी एक प्राणतत्त्व होता है। कविता वस्तुओं, व्यापारों और अनुभूतियों को बिम्ब ग्रहण कराने का प्रयत्न करती है, अर्थ ग्रहण मात्र से उसका काम नहीं चलता। इसीलिए आधुनिक काव्य में बिम्बवाद और प्रतीकवाद की बड़ी चर्चा हुई है। इस दृष्टि से कबीर के काव्य का एक बड़ा भाग उच्चकोटि की कविता के अन्तर्गत आता जाता है। सूक्ष्म विचारों को स्थूल अप्रस्तुतों के माध्यम से रूपायित करने में उन्हें बड़ी सफलता मिली है। उनके रूपक, प्रतीक और अन्योक्तियाँ देखने योग्य हैं। जीवन की क्षण-भंगुरता और संसार की नश्वरता का बोध कराने वाले कुछ चुने हुए बिम्ब इस प्रकार हैं-

फागुन आवत देखि कर बन रूपा मन माहिं। 
ऊँची डाली पात हैं, दिन-दिन पीले थाहिं ।। 

माली आवत देखि करि कलियाँ करी पुकार। 
फूले फूले चुनि लिए काल्हि हमारी बार।। 
बाढ़ी आवत देखि करि तरवर डोलन लाग। 
हम काटे की कछु नहीं पंखेरू घर भाग । 

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है भीतर बाहर पानी। 
फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यहु तन कथौ गियानी।।
 
डॉ० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के शब्दों में- “सच्चे रहस्य द्रष्टा के लिए प्रत्येक वस्तु अपने लिए स्थित न होकर किसी परे की वस्तु के प्रतीक रूप में विद्यमान रहती है। इस रहस्य-द्रष्टा कवियों के सभी रूपक, उपमाएँ दैनिक जीवन से सम्बन्ध रखती हैं। अपने प्रतीकात्मक मूर्तभावों के लिए उन्हें कहीं दूर नहीं जाना पड़ता। मथना, हल चलाना, मधु चुआना, बुनना, व्यापार करना, यात्रा करना, ऋतुओं के चक्रादि सभी दैनिक जीवन के व्यापार उनके काम आ जाते हैं।"
 
देखा जाता है कि एक ही कविता को पढ़कर अनेक लोग थोड़े हेर-फेर के साथ एक ही भाव का अनुभव करते हैं। मोटे रूप में काव्य के इसी गुण को साधारणीकरण कहते हैं। मुक्तक की अपेक्षा प्रबन्ध काव्य में इसके लिए अधिक अवकाश रहता है। आज की नयी कविता में इसकी विशेष आवश्यकता नहीं समझी जाती और यह कोई खास आवश्यक शर्त भी नहीं मालूम होती । फिर भी इस दृष्टि से विवेच्य कवि के काव्य को थोड़ा देख लेना चाहिए। कबीर का सम्पूर्ण काव्य मुख्यतः चार वर्गों में विभक्त है-
  1. प्रथम वर्ग उन सखियों और पदों का है जिनमें सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों, वाह्याचारों और आडम्बरों पर गहरी चोट की गयी है। इन्हीं के अन्तर्गत उन्होंने पण्डितों और मौलवियों को झाड़-फटकार सुनायी है। इन कविताओं का स्वर आज की प्रगतिवादी कविता से मिलता-जुलता है। पाठकों के एक बड़े वर्ग को इन कविताओं के साथ तादात्म्य स्थापित करने में कोई कठिनाई नहीं होती।
  2. दूसरा वर्ग नीतिपरक साखियों का है। इनमें जीवन के कुछ मानकों को सीधी-सादी भाषा में लपेट कर रख दिया गया है। ध्वन्यालोककार ने ऐसे काव्य को “अधम काव्य" कहा है। तुलसी, रहीम और बिहारी के अनेक दोहे इसी कोटि में हैं, किन्तु इनके कारण उनकी कविता का मूल्य कम नहीं होता। 
  3. तीसरे वर्ग में वे रचनाएँ आती हैं, जिनमें रूपक और उलटवासियों के माध्यम से योग की जटिल क्रियाओं का वर्णन किया गया है। इसके साथ कायिक साधना में निपुण किसी हठयोगी का ही साधारणीकरण हो सकता है। इनमें पारिभाषिक शब्दों की बहुलता के कारण दुरूहता आ गयी है। सूर के काव्य का एक बड़ा भाग भी कूट पदों का है जिसमें पारिभाषिक शब्दों की भरमार है। उनसे सर्वसाधारण का साधारणीकरण नहीं होता। दरअसल सन्तः साहित्य का यही हिस्सा ऐसा है, जिसको लक्ष्य करके उसके काव्यात्मक महत्त्व पर तरह-तरह के आक्षेप किये गये हैं।
  4. चौथा वर्ग प्रणयानुभूति सम्बन्धी साखियों और पदों का है। यह कबीर के काव्य का उत्कृष्ट स्वरूप है। अदृश्य प्रियतम के प्रति प्रेम की जो तीव्रता यहाँ देखने को मिलती है, वह लौकिक शृंगार में दुर्लभ है। इन रचनाओं के सम्बन्ध में डॉ० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का मत है कि- “निर्गुणियों की काव्य रचना सम्बन्धी सफलता उनके रूपकात्मक प्रेम, संगीत, विनय तथा आनन्दोद्रेक में देखी जाती है, क्योंकि उन्हीं में उनकी आन्तरिक अनुभूति का पता चलता है तथा सौन्दर्य, प्रेम एवं सत्य की त्रयी की अभिव्यक्ति भी उन्हीं में होती है। उनमें स्वरैक्य है, रंग है और गति भी है। वे प्रधानतः गीत होते हैं, उनमें गहरी भावाकुलता होती है और उनकी गति में भी एक प्रकार की दृढ़ता लक्षित होती है।" 
समग्रतः कबीर के काव्य के एक बड़े और सरस अंश के साथ सबका साधारणीकरण होता है। योग-परक रूपक और उलटवासियाँ इसका अपवाद हैं। किसी के सम्पूर्ण काव्य से साधारणीकरण का दावा कोई नहीं कर सकता। जायसी, सूर, तुलसी और बिहारी के भी सम्पूर्ण काव्य से सबका साधारणीकरण नहीं होता, फिर कबीर के ही साथ ऐसा पूर्वाग्रह क्यों ? 

कबीरदास हिन्दी साहित्य के अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न कवि हैं। पढ़े-लिखे न होने के कारण उनकी कविता में भाषागत अशुद्धि, पिंगल सम्बन्धी शिथिलता और वाह्य चमत्कार विहीनता का होना स्वाभाविक है और उनकी कविता में इन वाह्य उपादानों को ढूँढ़ना भी व्यर्थ, किन्तु सच्चिदानन्द स्वरूपिणी आत्मा की अभिव्यक्ति ने उनके काव्य में एक अद्भुत ओज, तेज और प्रकाश ला दिया है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- "कबीर के पदों में जो हान् प्रकाशपुञ्ज है, वह बौद्धिक आलोचना का विषय नहीं है। वह म्यूजियम की चीज नहीं है बल्कि जीवित प्राणवान् वस्तु है ।”

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