कबीर दास की साधना पद्धति और हठयोग

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कबीर दास की साधना पद्धति और हठयोग कबीरदास भक्तिकाल के निर्गुण-भक्ति के ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि हैं। उन्होंने निर्गुण, निराकार ब्रह्म की उ

कबीर दास की साधना पद्धति और हठयोग


बीरदास भक्तिकाल के निर्गुण-भक्ति के ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि हैं। उन्होंने निर्गुण, निराकार ब्रह्म की उपासना की है। उनकी साधना-पद्धति में हठयोग की प्रधानता है। नाथ पंथ की साधना-पद्धति का नाम हठयोग है। कबीरदास को समझने के लिए इस साधना-पद्धति की जानकारी होनी चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार महाकुण्डलिनी नामक एक शक्ति है, जो सम्पूर्ण सृष्टि में परिव्याप्त है। व्यष्टि (व्यक्ति) में व्यक्त होने पर इसी शक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। कुण्डलिनी और प्राण-शक्ति को लेकर ही जीव मातृ-कुक्षि में प्रवेश करता है। सभी जीव सामान्यतः तीन अवस्था में रहते हैं, जाग्रत, सुषुप्ति और स्वप्न । अर्थात् या तो वे जागते रहते हैं या सोते रहते हैं या सपना देखते होते हैं। इन तीनों ही अवस्थाओं में कुण्डलिनी शक्ति निश्चेष्ट रहती है। इस समय इसके द्वारा शरीर धारण का कार्य होता है।
 
कबीर दास की साधना पद्धति और हठयोग
कुण्डलिनी शक्ति को अच्छी प्रकार समझने के लिए शरीर की बनावट की कल्पना करनी चाहिए। पीठ में स्थित मेरुदंड जहाँ सीधे जाकर वायु और उपस्थ के मध्यभाग में लगता है। वहाँ एक स्वयंभू लिंग है, जो एक त्रिकोण में अवस्थित है। इसे अग्निचक्र कहते हैं। इसी त्रिकोण या अग्निचक्र में स्थित स्वयंभू लिंग को साढ़े तीन वलयों या वृत्तों में लपेटकर सर्पिणी की भाँति कुण्डलिनी अवस्थित है। इसके ऊपर चार दलों का एक कमल है, जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं। उसके ऊपर नाभि के पास स्वाधिष्ठान चक्र है, जो छह दलों के कमल के आकार का है। इस चक्र के ऊपर मणि पूर चक्र है और इसके भी ऊपर हृदय के पास अनाहत चक्र। ये दोनों क्रमश: दस और बारह दलों के पद्मों के आकार के हैं। इसके भी ऊपर कंठ के पास विशुद्धाख्य चक्र है, जिसका आकार सोलह दल के पदम के समान है। इसके भी ऊपर जाकर भूमध्य में आज्ञा नामक चक्र है, जिसके सिर्फ दो ही दल हैं। ये ही षट्चक्र है। इन चक्रों के भेद करने के बाद मस्तक में शून्य चक्र मिलता है, जहाँ जीवात्मा को पहुँचा देना योगी का चरम लक्ष्य है। इस स्थान पर जिस कमल की कल्पना की गयी है उसमें सहस्रदल हैं, इसलिए इसे सहस्रारचक्र भी कहते हैं। शून्य चक्र ही गगन-मंडल है। इसी को कैलाश भी कहते हैं। कबीरदासजी ने कुण्डलिनी योग का वर्णन करते हुए कहा है-

अवधू गगन मण्डल घर कीजै ।
अमृत झरै सदा सुख उपजै बंक नालि रस पीजै ।। 
मूल बांधि सर गगन समाना सुषमन याँ तन लागी । 
काम क्रोध दोउ भया पलीता तहाँ जोगणी जागी।।
 
वे कहते हैं- हे अवधूत योगी! तुम आकाश रूपी सहस्रार चक्र में अपना निवास बना लो। वहाँ निरन्तर अमृत की वर्षा होती रहती है, अखण्ड आनन्द व्याप्त रहता है और कुण्डलिनी सहस्रार चक्र से झरने वाले अमृत रस का निरन्तर पान करती रहती है। मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी को योग के बल से जाग्रत करके सुषुम्ना नाड़ी में से जब षटचक्रों का भेदन करके सहस्रार चक्र तक पहुँचाते हैं, तब काम और क्रोध दोनों ही जलकर नष्ट हो जाते हैं। 

संतमत में सहस्रार चक्र के भी ऊपर एक अष्टम चक्र सुरतिकमल की कल्पना की गयी है। कहते हैं कि सहस्रार तक पहुँचे हुए योगी का चित्त व्युत्थान-काल में अर्थात् समाधि टूटने के बाद फिर वासना का शिकार हो जाता है, पर सुरतिकाल में विलास करने वाले सन्त का चित्त ऐसे खतरे से निश्चिन्त रहता है। कभी-कभी साधना-ग्रन्थों में कुण्डली-योग को हठयोग से भिन्न माना गया है। पर अधिकांश नाथ सम्प्रदाय के ग्रन्थ कुंडलिनी की चर्चा अवश्य करते हैं। मेरुदण्ड में प्राण वायु को वहन करने वाली कई नाड़ियाँ हैं, जिनमें से कुछ का आभास हम साँस लेते समय पाते हैं। जो नाड़ी बार्थी ओर है उसे इड़ा और जो दाहिनी ओर है उसे पिंगला कहते हैं। मौजी कबीर ने अनुप्रास मिलाने के लिए इनकी जोड़ी का नाम 'इंगला- पिंगला' बना लिया था। ये दोनों ही बारी-बारी से चलती रहती हैं। इन दोनों के बीच सुषुम्ना नाड़ी है। इसी से होकर कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की ओर प्रवाहित होती है। कबीरदास के साहित्य में नाथ-योगियों से प्राप्त हठयोग की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है।

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