कबीर दास के काव्य में निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप

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कबीर दास के काव्य में निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप कबीर का ब्रह्म अलख, अजन्मा, निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापी एवं सर्वातीत ब्रह्म है। यह ब्रह्म कभी अवतार न

कबीर दास के काव्य में निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप


क्तिकाल में भक्ति-काव्य की दो प्रमुख धाराएँ विकसित हुईं- निर्गुण भक्ति काव्यधारा व सगुण भक्ति काव्यधारा। कबीरदासजी निर्गुण भक्ति काव्यधारा के सन्त कवियों में अग्रगण्य हैं। उन्होंने निर्गुण एवं निराकार ब्रह्म की उपासना की है। उनके निर्गुण ब्रह्म भारतीय ' अद्वैतवाद' और मुस्लिम 'एकेश्वरवाद' के अधिक करीब है। उनके इस नूतन रूप में कबीर ने वैष्णव की भक्ति और प्रेम को लेप लगाया है। उन्होंने ब्रह्म-ज्ञान को 'निर्मल-नीर' कहा है, जो चेतना के क्रमिक विकास से उन्हें उपलब्ध हुआ है -
 
चेतत चेतत निकसि ओ नीरु । 
सो जल निरमल कथत कबीरु ।।
 
कबीर ने निर्गुण निराकार परमात्मा के लिए अनेक नामों का प्रयोग किया है। एक ओर तो वे उसे अल्ला, करीम, खुदा, रहमान, रहीम कहते हैं, तो दूसरी ओर उसे केशव, माधव, जगदीश, हरि, गोविन्द, नरहरि, राम आदि नामों से सम्बोधित करते हैं। कबीर के लिए ये सभी नाम एक ही हैं, अतः वे नाम के विवाद में नहीं पड़ना चाहते। कबीर ने आत्मा और परमात्मा की एकता का प्रतिपादन किया है। किन्तु 'माया' के आवरण से जीव इस रहस्य को समझ नहीं पाता है। संतकबीर ने बलपूर्वक कहा कि- “जिस राम और कृष्ण की चर्चा आप सुनते हैं वह देवता नहीं, अपितु सामान्य मानव हैं।" संत कबीर ने अपने ब्रह्म का परिचय इस प्रकार कराया है-

दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना । 
राम नाम का मरम है आना ।।

कबीर दास के काव्य में निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप
इन पंक्तियों में अवतारी राम के अस्तित्व का खण्डन किया गया है। यद्यपि कबीर के राम आकार-विहीन हैं तथापि वे लोक-कल्याण से जुड़े हुए हैं। कबीर ने यह बात बहुत सतर्क ढंग से कहा कि राम को पाने के लिए अहं विसर्जन अनिवार्य है-
 
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।
 
ईश्वर के जितने भी नाम हैं उनमें कबीर को राम नाम अधिक प्रिय है। नाम स्मरण की महत्ता भी उनके काव्य में मिली है। कबीर का ब्रह्म, निराकार तथा अद्वैत है। जो ईश्वर को दो मानते हैं, वे नरकगामी होंगे। ब्रह्म तो अद्वैत है, एक है-
 
हम तौ एक एक करि जाना। 
दोइ कहैं तिनही को दो जख जिन नाहिन पहिचाना।।
 
कबीर ने ब्रह्म के एकत्व की जो अवधारणा व्यक्त की वह मुसलमानों के एकेश्वरवाद से मेल खाती थी। अतः मुस्लिमों को भी उनकी ब्रह्म सम्बन्धी अवधारणा स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं हुई। कबीरदास ने ब्रह्म और जीव की एकता का प्रतिपादन किया। वे कहते हैं कि आत्मा और परमात्मा दो नहीं हैं यद्यपि वे माया के कारण दो प्रतीत होते हैं। माया के आवरण से मुक्ति पाने पर उनका एकत्व स्पष्ट हो जाता है। अपनी बात को वे समुद्र में पड़े हुए जल से भरे घड़े के उदाहरण से स्पष्ट करते हैं-
 
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर-भीतर पानी। 
फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तत कथेह गियानी।।
 
घड़ा फूटने पर भीतर का जल बाहर के जल से इस प्रकार मिल जाता है कि फिर उसमें कोई भेद नहीं रहता। यह 'घड़ा' ही माया का आवरण है, जो बाहर और भीतर के जल में अलगाव किये हुए हैं। जिस प्रकार से पानी से बर्फ बनती है और बर्फ ही पिघलकर पानी बन जाती है, ठीक वही स्थिति जीवात्मा एवं परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध की है-

पानी ही तैं हिम भया हिम है गया विलाय । 
जो कछु था सोई भया अब कछु कया न जाय ।।
 
कबीर का ब्रह्म निर्गुण, निराकार एवं अरूप है। उसका कोई निश्चित स्वरूप नहीं है। उसके न मुख है, न माथा, न रूप है और न अरूप। वह पुष्पगन्ध से भी सूक्ष्म तत्त्व है-
 
जाके मुख माथा नहीं नाहीं रूप अरूप । 
पुहुप वास ते पातरा ऐसा तत्त्व अनूप ।। 

वस्तुतः अविश्वास की स्थिति में ही व्यक्ति जाँच-परख करता है। मोल-तोल करता है। कबीर इसके पक्षधर नहीं हैं, वे राम को प्रेम द्वारा प्राप्त करना चाहते हैं न कि अच्छा-बुरा या मोल-तोल करके । वे कहते हैं कि जब ब्रह्म नेत्रों का विषय है ही नहीं तब कोई कैसे कह सकता है कि वह हल्का है या भारी है। वह तो अज्ञेय है-
 
भारी कहौं तो बहु डरौं, हल्का कहूँ तौ झूठ। 
मैं का जाणौं राम कूँ नैनू कबहुं न दीठ ।।
 
कबीरदास जी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म का कोई लक्षण नहीं है, उसका कोई स्वरूप नहीं है जिससे उसे पहचाना जा सके। वह सर्वव्यापी है, आदि अन्त से रहित है, अजन्मा है, अगोचर है, अलख है और अकथनीय है। वस्तुतः वह सर्वातीत और विलक्षण है।
 
कबीर ने निर्गुण ब्रह्म के विषय में कहा है कि वह ज्योति स्वरूप है। उसका तेज अनन्त सूर्य के समान है, जिसके विषय में कुछ और कह पाना सम्भव नहीं है-
 
पार ब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान । 
कहिबे कूँ शोभा नहीं देख्या ही परवान।। 

कबीर ने ब्रह्म को सम्पूर्ण संसार का निर्माणकर्त्ता एवं सृजनकर्त्ता कहा है, जो अद्वैत वेदान्त की धारणा से मेल नहीं खाता। ऐसा लगता है कि कबीर किसी दार्शनिक भाव-विचार में न पड़कर अपने स्वयं के अनुभव द्वारा व्यावहारिक दृष्टिकोण से लोगों के मन में ईश्वर के प्रति आस्था एवं भक्तिभाव जगाने के लिए उसे ऐसा स्वरूप प्रदान करते हैं। कबीर ने निर्गुण भक्ति में वैष्णवों के माधुर्यभाव का लेप किया है। इसी कारण से विरह विदग्ध जीवात्मा निर्गुण-निराकार परमात्मा से मिलने हेतु उसी तरह छटपटाती है जैसे कोई विरहाकुल नारी पति मिलन हेतु व्याकुल होती है- 

बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम । 
जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मन नाहीं विसराम ।।
 
कबीर अपने निर्गुण ब्रह्म को ज्ञान का नहीं, अपितु भक्ति का विषय स्वीकार किया है। भले ही वह अद्वैत स्वरूप हो फिर भी दया, माया से रहित नहीं है। भक्त उनके साथ सेवक, माता-पिता, पति-पत्नी का कोई भी सम्बन्ध अपनी सुविधानुसार जोड़ सकता है।
 
कबीर का निर्गुण ब्रह्म त्रिगुणातीत है अलक्ष्य है, अगोचर है फिर भी कण-कण में निवास करने वाले हैं।कबीरदास सगुण भक्ति की भाँति अवतारवाद में विश्वास नहीं करते, इसीलिए वे निर्गुण ब्रह्म को अजन्मा कहते हैं। वे कहते हैं कि जो निर्गुण एवं निराकार है, सर्वव्यापी है एवं सर्वातीत है, वह भला जन्म कैसे ले सकता है? उनके ब्रह्म न तो दशरथ के घर अवतार लिए और न यशोदा ने उसे अपनी गोद में खिलाया-
 
ना जसरथ घरि औतरि आवा, नां लंका का राव सतावा। 
देवै कूख न औतरि आवा, न जसवै ले गोद खेलावा।।
 
अवतारवाद का यह खण्डन भी कबीर को मुसलमानों के निकट लाया। इसमें सन्देह नहीं है। कबीर जिस प्रकार ब्रह्म को निरुपाधि कहते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भी निरुपाधि मानते हैं। इन दोनों के सम्बन्ध को वे बूँद और समुद्र के उदाहरण से स्पष्ट करते हैं-

हेरत-हेरत हे सखी गया कबीर हिराय। 
बूंद समानी समुद में, सो कत हेरी जाय। । 

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि कबीर का ब्रह्म अलख, अजन्मा, निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापी एवं सर्वातीत ब्रह्म है। यह ब्रह्म कभी अवतार नहीं लेता। वह प्रत्येक कण-कण में व्याप्त है एवं सर्वात्मा है।इस ब्रह्म का प्रतिपादन करते हुए कबीर ने भारतीय अद्वैत वेदान्त एवं मुस्लिम एकेश्वरवाद को परस्पर मिला दिया है।

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