अनकहा इश्क | आरव और मायरा की प्रेम कहानी

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अनकहा इश्क आरव और मायरा की कहानी काशी की पावन धरती, जहां गंगा की लहरें अपनी कहानियां सुनाती हैं और मंदिरों की घंटियां आस्था का संगीत बिखेरती हैं, वहा

अनकहा इश्क आरव और मायरा की प्रेम कहानी


काशी की पावन धरती, जहां गंगा की लहरें अपनी कहानियां सुनाती हैं और मंदिरों की घंटियां आस्था का संगीत बिखेरती हैं, वहां एक अनकही प्रेम कहानी ने जन्म लिया। यह कहानी थी आरव और मायरा की, दो अलग-अलग सपनों को संजोए दो दिलों की, जो एक किताब के बहाने एक-दूसरे के करीब आए। विश्वनाथ मंदिर के पास एक छोटे से किताबों के स्टॉल पर उनकी पहली मुलाकात हुई। आरव, एक 25 वर्षीय युवक, पत्रकारिता का छात्र और स्वामी विवेकानंद के विचारों का अनुयायी, अक्सर वहां किताबों में खोया रहता। मायरा, 23 वर्षीया चित्रकार, काशी की सांस्कृतिक खूबसूरती को अपने कैनवास पर उतारने आई थी। उस दिन वह स्वामी विवेकानंद की “कर्मयोग” की तलाश में थी। स्टॉल पर केवल एक प्रति थी, और दोनों की नजरें उस पर टकराईं। आरव ने मुस्कुराते हुए किताब मायरा को दे दी, और मायरा ने उसे बाद में पढ़ने का वादा किया। इस छोटी सी मुलाकात ने उनकी दोस्ती की शुरुआत की।

अनकहा इश्क आरव और मायरा की प्रेम कहानी
दिन बीतते गए, और गंगा के घाट उनकी मुलाकातों का ठिकाना बन गए। मायरा अपने स्केचबुक में काशी के रंग बुनती, और आरव पास बैठकर किताबें पढ़ता या अपने लेखों पर काम करता। उनकी बातचीत में सपनों की गहराई थी। आरव समाज की सच्चाइयों को उजागर करने वाला पत्रकार बनना चाहता था, जो लोगों को जागृत करे। मायरा की कला दुनिया को प्रेम और शांति का संदेश देना चाहती थी। एक शाम, दशाश्वमेध घाट पर आरती की मंत्रमुग्ध कर देने वाली धुनों के बीच, मायरा ने पूछा कि आरव को विवेकानंद में क्या अच्छा लगता है। उसने गंगा की ओर देखते हुए जवाब दिया कि हर इंसान में ईश्वर का अंश है, और प्रेम करना भी एक तरह की पूजा है। मायरा ने उसकी आंखों में झांककर मुस्कुराया, और उस पल में उनके बीच एक अनकहा रिश्ता पनपने लगा।

समय के साथ उनकी दोस्ती प्रेम में बदल गई। मायरा की बेपरवाह हंसी, उसकी कला में डूबी आंखें, और सादा स्वभाव आरव को अपनी ओर खींचते। आरव की गहरी सोच, उसका जुनून और दूसरों की मदद करने की भावना मायरा को सुकून देती। वे काशी की तंग गलियों में साथ घूमते, चाय की टपरी पर घंटों बातें करते, और एक-दूसरे के सपनों को हकीकत बनाने का हौसला देते। एक दिन मायरा ने आरव के लिए एक खास पेंटिंग बनाई—गंगा घाट का एक दृश्य, जिसमें एक युवक और युवती हाथ में हाथ लिए सपनों की ओर देख रहे थे। पेंटिंग देखकर आरव की आंखें नम हो गईं। उसने मायरा का हाथ थामकर कहा कि उसने उसके दिल को कैनवास पर उतार दिया। मायरा ने शरमाते हुए जवाब दिया कि यह उनकी कहानी है। उस रात, गंगा के किनारे, दोनों ने अपने प्रेम का इजहार किया।

लेकिन प्रेम की राहें कभी आसान नहीं होतीं। मायरा के पिता, एक रूढ़िवादी व्यवसायी, उसकी शादी एक धनी परिवार में तय करना चाहते थे। जब मायरा ने आरव के बारे में बताया, तो पिता ने सख्ती से मना कर दिया। उनके शब्द कठोर थे—एक पत्रकार, जो अभी अपने पैरों पर भी नहीं खड़ा, वह मायरा का भविष्य कैसे संभालेगा? दूसरी ओर, आरव को दिल्ली में एक बड़े न्यूज चैनल से नौकरी का प्रस्ताव मिला, लेकिन इसके लिए उसे काशी और मायरा को छोड़ना पड़ता। दोनों मुश्किल में थे। एक रात मायरा ने आंसुओं के बीच आरव से कहा कि वह उसके बिना जी नहीं सकती, लेकिन अपने पिता का दिल भी नहीं तोड़ना चाहती। आरव ने उसका हाथ थामकर कहा कि अगर मायरा का भविष्य उसके बिना बेहतर है, तो वह पीछे हटने को तैयार है। लेकिन मायरा ने दृढ़ता से कहा कि वह अपने प्रेम के लिए लड़ेगी।

मायरा ने अपने पिता से खुलकर बात की। उसने कहा कि प्रेम शर्तों पर नहीं टिका होता, बल्कि वह ताकत देता है जो सपनों को हकीकत बनाता है। उसकी दृढ़ता ने पिता को थोड़ा नरम किया, लेकिन उन्होंने शर्त रखी कि आरव को पहले अपने करियर में स्थापित होना होगा। इधर, आरव ने दिल्ली की नौकरी स्वीकार कर ली, लेकिन मायरा से वादा किया कि वह जल्द लौटेगा। दोनों ने पत्र लिखकर अपने रिश्ते को जिंदा रखने का फैसला किया। मायरा अपने पत्रों में अपनी पेंटिंग्स की कहानियां बुनती, और आरव अपने लेखों का जुनून साझा करता। इन पत्रों ने उनके प्रेम को और मजबूत किया।

दिल्ली में आरव ने सामाजिक मुद्दों पर खोजी लेख लिखे, जिन्हें खूब सराहना मिली। उसने विवेकानंद के विचारों को अपने लेखों में उतारा, जो लोगों को प्रेरित करते थे। मायरा ने काशी में अपनी कला प्रदर्शनी आयोजित की, जहां उसकी पेंटिंग्स ने लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। उसने अपनी कमाई का एक हिस्सा गंगा सफाई अभियान में दान किया, जो आरव के सामाजिक कार्यों से प्रेरित था। 

दो साल बाद, जब आरव एक स्थापित पत्रकार बन चुका था, वह काशी लौटा। मायरा के पिता ने उसकी मेहनत और लगन देखकर अपनी सहमति दे दी। गंगा के किनारे एक सादे समारोह में आरव और मायरा ने एक-दूसरे का हाथ थामा। उनकी शादी में न दिखावा था, न तामझाम—केवल प्रेम और विश्वास था। शादी के बाद, दोनों ने मिलकर एक सामाजिक संगठन शुरू किया, जो शिक्षा और कला के माध्यम से बच्चों को प्रेरित करता था। मायरा की पेंटिंग्स और आरव के लेख इस संगठन की आत्मा बन गए। 

वे अक्सर गंगा घाट पर बैठकर अपनी पुरानी बातें याद करते और हंसते। एक शाम मायरा ने कहा कि आरव ने उसे न केवल प्रेम करना सिखाया, बल्कि खुद को खोजना भी सिखाया। आरव ने उसकी आंखों में देखकर कहा कि मायरा ने उसे सिखाया कि प्रेम वह है जो हमें बड़ा बनाता है। उनकी कहानी काशी की गलियों और गंगा की लहरों में हमेशा गूंजती रही, जैसे एक अनकहा इश्क जो कभी खत्म नहीं होता।

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