Parhit Saris Dharam Nahi Bhai Arth Vyakhya | परहित सरिस धर्म नहिं भाई का अर्थ सप्रसंग व्याख्या

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Parhit Saris Dharam Nahi Bhai Arth Vyakhya परहित सरिस धर्म नहिं भाई पद का सप्रसंग व्याख्या मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम भरत के पूछने पर उन्हें संत

परहित सरिस धर्म नहिं भाई पद का सप्रसंग व्याख्या


रहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।। 
निर्नय सकल पुरान वेद कर। कहेऊँ तात जानहिं कोविद नर । । 
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ।। 
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना । । 
काल रूप तिन्ह कहं मैं भ्राता । सुभ अरु अशुभ कर्म फल दाता ।। 
असविचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहिं संसृत दुख जाने ।। 
प्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक । भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक ।। 
संत असन्तन्ह के गुन भाखे । ते न परहिं भय जिन्ह लखि राखे ।। 

सन्दर्भ- प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि कुल चूड़ामणि तुलसीदास प्रणीत विश्वविख्यात महाकाव्य 'रामचरितमानस' के उत्तरकाण्ड से अवतरित की गयी है।
 
प्रसंग- मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम भरत के पूछने पर उन्हें संत एवं असन्त के लक्षण बताये और तदुपरान्त यह प्रतिपादित किया कि संसार में परोपकार से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है तथा परपीड़न के समान कोई अधर्म नहीं।
 
व्याख्या- प्रभु श्रीराम भरत को सम्बोधित करते हुए कहने लगे हे भाई! इस संसार में दूसरों की भलाई करना सबसे बड़ा धर्म का कार्य है। दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई दूसरा नीच कर्म नहीं है अर्थात् किसी व्यक्ति को पीड़ा पहुँचाना सबसे बड़ा पाप होता है इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को परोपकार का कार्य करना चाहिए तथा दूसरों को पीड़ा नहीं पहुँचाना चाहिए। समस्त वेद-पुराणों में भी यही बताया गया है तथा मैंने भी तुम्हें वेद-पुराणों द्वारा निश्चित सिद्धान्त ही निरूपित किया है। इसे ज्ञानी व्यक्ति पहले से ही जानते हैं।
 
हे भ्राता ! मानव शरीर धारण करके जो दूसरों को दुःख पहुँचाते हैं, उन्हें भयानक भावताप सहन करने पड़ते हैं और आवागमन के चक्र में कर्मफल के अनुसार पड़कर जन्म और मृत्यु के महान् दुःख झेलने पड़ते हैं। मोह के वशीभूत होकर मनुष्य नाना प्रकार के पाप कर्म करते हैं। ऐसे स्वार्थ में रत मनुष्य अपने पाप कर्मों से अपना ही परलोक नष्ट कर लेते हैं। हे भाई! ऐसे पाप कर्म करने वालों के लिए मैं कालरूप हूँ। मैं ही व्यक्तियों को उनके शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार अच्छा और बुरा फल देता हूँ। ऐसा विचारकर परम चतुर मनुष्य मेरा ही भजन करते हैं और संसार को दुःख रूप जानकर उसमें नहीं फँसते ।
 
श्रीराम कहने लगे कि देवता, मनुष्य एवं मुनिवर शुभाशुभ कर्मों को त्यागकर मेरी भक्ति करते हैं, जिससे आवागमन के चक्कर से मुक्ति मिल सके। संतों एवं असंतों के जो गुण मैंने बखाने हैं उन्हें समझकर चतुर लोग विवेकपूर्ण आचरण करते हुए ऐसा कोई कार्य नहीं करते, जो उन्हें भव-बन्धन में बाँधने वाला हो। इस प्रकार वे कर्म से निरासक्त होकर मेरा भजन करते हुए जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।

विशेष - उपरोक्त पद में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं -
  • प्रस्तुत पंक्तियाँ उपदेशपरक हैं तथा लोकमंगल की विधायक है।तुलसी ने यह कहकर कि मैं वेद-पुराणों में कही बात का सार कह रहा हूँ। इस कथन का समर्थन किया है- अष्टादशपुराणानां व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम् ।। 
  • मानव शरीर पाकर जो परपीड़न करता है वह उपलब्ध अवसर का सदुपयोग न करके दुरुपयोग करता है।परिणामत: उसे जन्म-मरण की दारुण पीड़ा सहन करनी पड़ती है।
  • संत और असंत के लक्षणों को जानकर व्यक्ति को विवेकपूर्ण आचरण करना चाहिए। 
  • साहित्यिक अवधी भाषा तथा चौपाई छन्द का प्रयोग ।

विडियो के रूप मे देखें - 

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