ईरान का परमाणु कार्यक्रम: ऐतिहासिक विकास और वैश्विक विवाद

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ईरान का परमाणु कार्यक्रम: ऐतिहासिक विकास और वैश्विक विवाद ईरान का परमाणु कार्यक्रम एक जटिल, बहुआयामी और वैश्विक स्तर पर विवादास्पद मुद्दा है, जिसने

ईरान का परमाणु कार्यक्रम: ऐतिहासिक विकास और वैश्विक विवाद


रान का परमाणु कार्यक्रम एक जटिल, बहुआयामी और वैश्विक स्तर पर विवादास्पद मुद्दा है, जिसने दशकों से अंतरराष्ट्रीय राजनीति, कूटनीति और सुरक्षा के क्षेत्र में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। इस कार्यक्रम की शुरुआत 1950 के दशक में हुई, जब शाह मोहम्मद रजा पहलवी के शासनकाल में ईरान ने परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए तकनीकी विकास की दिशा में कदम उठाए। उस समय, संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में "एटम्स फॉर पीस" पहल के तहत पश्चिमी देशों ने ईरान को परमाणु तकनीक और अनुसंधान में सहायता प्रदान की। 1967 में, तेहरान रिसर्च रिएक्टर की स्थापना इसी सहयोग का परिणाम थी, जिसका उपयोग मुख्य रूप से वैज्ञानिक अनुसंधान और चिकित्सा आइसोटोप उत्पादन के लिए किया गया। 1968 में, ईरान ने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत उसने परमाणु हथियार विकसित न करने और अपने परमाणु कार्यक्रम को शांतिपूर्ण उद्देश्यों तक सीमित रखने का वचन दिया।

इस्लामी क्रांति का प्रभाव

1979 की इस्लामी क्रांति ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम की दिशा को मौलिक रूप से बदल दिया। शाह के शासन के पतन और इस्लामी गणतंत्र की स्थापना के बाद, पश्चिमी देशों, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, के साथ ईरान के संबंधों में गहरी दरार आ गई। इस दौरान, पश्चिमी सहायता बंद होने से कई परमाणु परियोजनाएं ठप हो गईं। नई सरकार की प्राथमिकताएं शुरू में आंतरिक स्थिरता और क्षेत्रीय चुनौतियों पर केंद्रित थीं, विशेष रूप से 1980-88 के ईरान-इराक युद्ध के दौरान। इस युद्ध ने ईरान की राष्ट्रीय सुरक्षा और आत्मनिर्भरता की चिंताओं को बढ़ाया, जिसके परिणामस्वरूप 1980 के दशक के अंत में परमाणु कार्यक्रम को पुनर्जनन देने का निर्णय लिया गया। इस बार, ईरान ने रूस, चीन और अन्य गैर-पश्चिमी देशों से तकनीकी सहायता प्राप्त की, क्योंकि पश्चिमी प्रतिबंधों ने उसे अलग-थलग कर दिया था।

गुप्त सुविधाओं का खुलासा

ईरान का परमाणु कार्यक्रम: ऐतिहासिक विकास और वैश्विक विवाद
1990 के दशक तक, ईरान का परमाणु कार्यक्रम धीरे-धीरे गति पकड़ने लगा। नतांज में यूरेनियम संवर्धन संयंत्र और अराक में भारी जल रिएक्टर की स्थापना जैसे कदमों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित किया। 2002 में, एक ईरानी विपक्षी समूह ने इन गुप्त सुविधाओं का खुलासा किया, जिसके बाद अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने ईरान की परमाणु गतिविधियों की गहन जांच शुरू की। इस खुलासे ने वैश्विक चिंता को जन्म दिया, क्योंकि यूरेनियम संवर्धन और भारी जल रिएक्टर जैसी तकनीकें न केवल ऊर्जा उत्पादन, बल्कि परमाणु हथियार निर्माण के लिए भी उपयोग की जा सकती हैं। पश्चिमी देशों, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और इजरायल, ने आशंका जताई कि ईरान का कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों से परे सैन्य महत्वाकांक्षाओं को छिपा सकता है। ईरान ने बार-बार दावा किया कि उसका उद्देश्य केवल ऊर्जा आत्मनिर्भरता और वैज्ञानिक प्रगति है, लेकिन इन दावों पर संदेह बना रहा।

अंतरराष्ट्रीय तनाव और प्रतिबंध

2000 के दशक में, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अंतरराष्ट्रीय तनाव चरम पर पहुंच गया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 2006 से कई दौर के आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंध लगाए, ताकि ईरान को यूरेनियम संवर्धन और अन्य संवेदनशील गतिविधियों को रोकने के लिए मजबूर किया जा सके। इन प्रतिबंधों ने ईरान की अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला, लेकिन ईरान ने अपने कार्यक्रम को जारी रखा, इसे राष्ट्रीय गौरव और संप्रभुता का प्रतीक बताते हुए। इस दौरान, कई दौर की कूटनीतिक वार्ताएं हुईं, लेकिन परस्पर अविश्वास के कारण कोई ठोस प्रगति नहीं हुई। साथ ही, साइबर हमले (जैसे स्टक्सनेट वायरस) और ईरानी परमाणु वैज्ञानिकों पर हमलों ने तनाव को और बढ़ाया।

वर्तमान स्थिति और भू-राजनीतिक प्रभाव

हालांकि, 2018 में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में जेसीपीओए से एकतरफा वापसी कर ली और ईरान पर "अधिकतम दबाव" नीति के तहत कठोर प्रतिबंध फिर से लागू कर दिए। इसके जवाब में, ईरान ने 2019 से धीरे-धीरे समझौते की शर्तों का उल्लंघन शुरू किया, जिसमें उच्च स्तर का यूरेनियम संवर्धन और नई सेंट्रीफ्यूज मशीनों का उपयोग शामिल था। इसने एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय चिंताओं को बढ़ाया। 2021 में, जो बाइडन प्रशासन ने समझौते को पुनर्जनन करने की कोशिश की, लेकिन वार्ताएं रुक-रुक कर चलती रहीं और कोई ठोस परिणाम नहीं निकला।

आज, ईरान का परमाणु कार्यक्रम वैश्विक कूटनीति का एक केंद्रीय मुद्दा बना हुआ है। ईरान का दावा है कि उसका उद्देश्य शांतिपूर्ण है, लेकिन उसकी तकनीकी प्रगति और सैन्य क्षमता की संभावना ने क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों के बीच तनाव को बनाए रखा है। इजरायल और कुछ खाड़ी देश ईरान के परमाणु महत्वाकांक्षाओं को अपने लिए खतरा मानते हैं, जबकि ईरान इसे अपनी संप्रभुता और वैज्ञानिक प्रगति का अधिकार बताता है। भविष्य में, इस मुद्दे का समाधान कूटनीति, तकनीकी निगरानी और क्षेत्रीय स्थिरता पर निर्भर करता है, लेकिन यह एक जटिल चुनौती बनी रहेगी।

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