जनसंख्या में बढ़ता असंतुलन स्त्रियों की घटती संख्या पर आलेख स्त्री और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। जिस प्रकार किसी भी गाड़ी को सुचारु रूप से
जनसंख्या में बढ़ता असंतुलन स्त्रियों की घटती संख्या पर आलेख
स्त्री और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। जिस प्रकार किसी भी गाड़ी को सुचारु रूप से गतिमान रहने के लिए दो पहियों की ज़रूरत ही नहीं होती बल्कि दोनों पहिए समान गुण और आकार वाले होने चाहिए, उसी प्रकार सामाजिक जीवन की गाड़ी को सुचारु रूप से गतिशील बनाए रखने के लिए स्त्री-पुरुष दोनों की संख्या में समानता होने के अलावा उनके गुणों में भी एकरूपता होनी चाहिए।दुर्भाग्य से भारतीय जनसंख्या में स्त्रियों का अनुपात घटा है। इसका प्रमाण हमें समय-समय पर की गई जनगणनाओं से मिलता है। स्त्रियों की संख्या में कमी भारत के एक-दो राज्यों को छोड़कर प्रत्येक राज्य में देखी जा सकती है। इससे सामाजिक असंतुलन का खतरा उत्पन्न हो गया है जो किसी भी दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है। यदि इस पर ध्यान न दिया गया तो यह असंतुलन बढ़ता ही जाएगा।
हमारे देश में प्रत्येक दस वर्ष बाद जनगणना की जाती है। इससे स्त्रियों और पुरुषों की जनसंख्या का पता चल जाता है। विगत दशकों में हुई जनगणना पर ध्यान दें तो यह निष्कर्ष निकलकर सामने आता है कि स्त्रियों की संख्या और उनकी जनसंख्या अनुपात में निरंतर गिरावट आई है। हरियाणा और पंजाब जैसे शिक्षित और संपन्न राज्यों में स्त्रियों की जनसंख्या प्रति हज़ार पुरुषों की तुलना में 850 से कम हो चुकी है। यहाँ एक बात और ध्यान देने वाली है कि जो राज्य जितने ही शिक्षित और संपन्न हैं, वहाँ स्त्रियों की संख्या का अनुपात उतना ही कम है। केरल इसका अपवाद है। पिछड़ा कहे जाने वाले पूर्वोत्तर राज्यों में स्त्रियों की जनसंख्या का अनुपात संपन्न राज्यों से काफी बेहतर है। कुछ शिक्षित और संपन्न राज्यों में विवाह योग्य लड़कों को लड़कियाँ मिलने में काफी परेशानी आ रही है। इन लड़कों के सामने अब यह समस्या उत्पन्न हो गई है कि उनके अविवाहित रहने की स्थिति बन गई है। इससे उनके माता-पिता अब अपने पुत्रों के लिए बहू लाने के लिए अन्य राज्यों की ओर जाने के लिए विवश हुए हैं।
समाज में स्त्रियों का घटता अनुपात एक सामाजिक समस्या है। इस समस्या के प्रति कुछ मनीषी, सामाजिक कार्यकर्ता और सरकार के कुछ अधिकारी-कर्मचारी ही परेशान थे, परंतु अपने पुत्रों के अविवाहित रह जाने की आशंका और अपना वंश डूबने के भय ने लोगों को इस समस्या का हल खोजने के लिए विवश कर दिया है। वे इसके कारणों पर विचार करने के लिए विवश हुए हैं। भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही पुत्रों को अधिक महत्व दिया गया है। माता-पिता की सोच रही है कि पुत्र के पिंडदान किए बिना उन्हें स्वर्ग नहीं प्राप्त होगा। जब तक महँगाई कम थी, तब तक लोग अधिक बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का बोझ आसानी से वहन कर लेते थे, परंतु वर्तमान में बढ़ती महँगाई ने परिवार को एक या दो बच्चों तक सीमित रहने पर विवश कर दिया है। लोग यह चाहने लगे हैं कि संतान के रूप में लड़का ही पैदा हो। इसके लिए वे नाना प्रकार की युक्तियाँ अपनाते हैं। इसके लिए ओझा और तांत्रिकों की मदद लेने वाले मनुष्य ने अब वैज्ञानिक उपकरणों का सहारा लेकर गर्भ में ही लिंग-परीक्षण करवाना शुरू कर दिया। अल्ट्रासाउंड के माध्यम से कराए गए इस लिंग-परीक्षण में मनोनुकूल परिणाम न पाकर वह गर्भपात करवा देता है। दुर्भाग्य से इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियाँ भी इस घृणित काम में पुरुषों का साथ देने पर विवश हैं। वे महिला होकर भी कन्याभ्रूण हत्या में पुरुषों का साथ देती नज़र आती हैं। इससे दंपती को कन्या भ्रूण से छुटकारा तो मिल जाता है, पर वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि आने वाली पीढ़ी को उनके इस कुकृत्य का कितना नुकसान उठाना होगा। वे भूल जाते हैं कि आखिर उनके लाडलों के विवाह के लिए लड़कियाँ कहाँ से आएँगी? उनके इसी कृत्य का दुष्परिणाम है-महिलाओं की जनसंख्या का निरंतर गिरना ।
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इस समस्या का एक अन्य प्रमुख कारण है-समाज की पुरुषप्रधान मानसिकता। इस सोच के कारण समाज में लड़के-लड़कियों के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा और पुष्पित-पल्लवित होने के अवसर देने में दोहरा मापदंड अपनाया जाता है। माता-पिता प्रायः कन्याओं के जन्म के बाद से ही पालन-पोषण, देख-भाल, इलाज आदि में लापरवाही बरतते हैं, जिससे जन्म के बाद कन्या शिशुओं की मृत्यु हो जाती है या उनका स्वास्थ्य उत्तम नहीं हो पाता है। समाज में लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई तथा उच्च शिक्षा को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है, इसलिए उन्हें घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता है। लड़कियों को समाज में बोझ माना जाता है। इसका कारण है-उनके विवाह के समय दहेज की व्यवस्था करना, जबकि लड़कों को हर तरह की छूट एवं आज़ादी दी जाती है। अल्पायु में लड़कियों के स्वास्थ्य एवं विकास पर ध्यान न देने के कारण वे असमय काल-कवलित हो जाती हैं। इससे स्त्री-पुरुषों की जनसंख्या संबंधी असंतुलन में वृद्धि होती है।
अल्पायु में लड़कियों की मृत्यु का असर तत्काल नहीं दिखता है। इसका असर दस-बारह वर्ष बाद दिखाई देता है, तब इसका विकराल रूप समाज और सरकार के लिए चिंता का विषय बन जाता है। बुद्धिजीवी वर्ग और सरकारी तंत्र तब इसके लिए उपाय सोचना शुरू करता है। 'लाडली योजना', 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ', 'कन्या विद्याधन' जैसी सरकारी योजनाएँ इसी दिशा में सरकार द्वारा उठाए गए सफल कदम हैं। इसके अलावा विभिन्न प्रचार माध्यमों द्वारा जनजागरूकता अभियान चलाकर जनचेतना उत्पन्न करने का प्रयास करती है। कन्या जन्म देने पर माता-पिता को प्रोत्साहन राशि देना, कन्या के विवाह में आर्थिक मदद प्रदान करना आदि इस दिशा में उठाए गए ठोस कदम हैं। सरकार ने भ्रूण-लिंग-परीक्षण को अपराध बनाकर तथा लिंग-परीक्षण करने वाले डॉक्टरों को सजा देने का कानूनी प्रावधान बनाकर सराहनीय प्रयास किया है। इससे लोगों की सोच में बदलाव आया है और वे कन्याओं के प्रति अधिक सदय बने हैं।
स्त्री-पुरुष जनसंख्या के घटते अनुपात को कम करने की दिशा में किए जा रहे सरकारी प्रयासों को जन-जन तक विशेषकर पिछड़े और दूरदराज के क्षेत्रों तक पहुँचाने की आवश्यकता है। सरकार प्रचार-तंत्र के माध्यम से ऐसा कर भी रही है। वास्तव में लोगों की विचारधारा में बदलाव लाने की आवश्यकता है ताकि वे लड़के और लड़कियों को एक समान समझें और लड़कियो के जन्म को बोझ न समझें तथा उन्हें इस संसार में आने का अवसर दें।
समाज में लोगों ने किसी सीमा तक इसके दुष्परिणामों का आँकलन कर लिया है। समाज में स्त्रियों की कमी से बहुओं की कमी की आशंका, सामाजिक अपराधों में वृद्धि और बिगड़ते सामाजिक असंतुलन के भय का परिणाम है कि लोगों की सोच में बदलाव आया है। इससे कन्या जनसंख्या में कुछ सुधार आया है, पर अभी इस दिशा में बहुत कुछ सुधार लाने की आवश्यकता है। समाज को इस दिशा में आज से ही ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है वरना आगामी कुछ ही दशकों में वह दिन आ जाएगा, जब किसी भी महिला को द्रौपदी बनने के लिए विवश होना पड़ेगा। ऐसा दिन आने की प्रतीक्षा किए बिना हमें इस दिशा में ठोस कदम उठा लेना चाहिए।
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