अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद का परिचय

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अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद का परिचय भारतीय दर्शनशास्त्र में भाषा और अर्थ के अध्ययन ने गहन चिंतन को जन्म दिया है, विशेषकर मीमांसा और न्याय दर्श

अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद का परिचय


भारतीय दर्शनशास्त्र में भाषा और अर्थ के अध्ययन ने गहन चिंतन को जन्म दिया है, विशेषकर मीमांसा और न्याय दर्शन में। इस संदर्भ में अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद दो महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं, जो वाक्य के अर्थ की उत्पत्ति और शब्दों की भूमिका को समझाने का प्रयास करते हैं। ये दोनों सिद्धांत वाक्यार्थ की प्रक्रिया को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं और भाषा के कार्य करने के तरीके पर प्रकाश डालते हैं।

वाक्य की निर्मिति पदों की संयोजन से होती है। अतः वाक्य में पदों का भी अपना महत्त्व है। पदों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए भी पाणिनि और पतञ्जलि ने आज से दो हजार वर्ष से भी अधिक पूर्व कहा था कि भाषा का प्रारम्भ वाक्य से होता है। पद तो वाक्यों के खण्ड या अवयव हैं। किन्तु आगे चलकर मीमांसा दर्शन के दो प्रमुख आचार्यों ने वाक्य और पद के सापेक्ष महत्त्व पर गहराई से चिन्तन किया। प्रमुख मीमांसक आचार्य कुमारिल भट्ट ने 'अभिहितान्वयवाद' का प्रवर्तन करते हुए वाक्य की अपेक्षा पद को विशेष गौरव प्रदान किया। उनके इस मत को 'पदवाद' भी कहा जाता है। इसके विपरीत कुमारिल भट्ट के शिष्यप्रवर आचार्य प्रभाकर ने पदों की अपेक्षा वाक्य के गौरव को विशेष रेखांकित किया। उनका यह दार्शनिक मत 'अन्विताभिधानवाद' कहलाता है। वाक्य के गौरव की स्थापना के कारण इसे 'वाक्यवाद' भी कहा जाता है।
 

अभिहितान्वयवाद

आचार्य कुमारिल भट्ट की मान्यता है कि भाषा में पदों की ही स्थिति अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। उनके अनुसार उच्चरित पदों के अन्वय से ही वाक्य बनता है और उन्होंने अपने इस सिद्धान्त को 'अभिहितान्वयवाद' कहा है- “अभिहितां पदार्थानाम् अन्वयः" अर्थात् पदों के द्वारा अभिहित या व्यक्त अर्थों की पारस्परिक अन्विति ही वाक्य है। अभिहितान्वयवाद के अनुसार पदों के योग से वाक्य की निष्पत्ति होती है, परन्तु उन्होंने इसके तीन दशाएँ आवश्यक मानी हैं- 
  • आकांक्षा,
  • योग्यता, 
  • आसत्ति । 
अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद का परिचय
आकांक्षा का तात्पर्य यह है कि किसी एक ही पद के उच्चारणवश अर्थ की अपूर्णता के कारण श्रोता के मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिए, मानो किसी व्यक्ति ने पूर्ण वाक्य का उच्चारण न करके केवल 'भारत' शब्द कहा तो निश्चय ही श्रोता के मन में यह जानने की एक तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होगी कि वक्ता 'भारत' के विषय में क्या कहना चाहता है। अब यदि पहला व्यक्ति पुन: कहे' भारत जीता' तब पुनः श्रोता के मन में वही जिज्ञासा दूनी गति से उठेगी कि भारत ने क्या जीता, किससे जीता आदि। अतः अभिहितान्वयवाद के अनुसार पदों का जो अन्योन्याश्रय भाव है, उसके विषय में श्रोता के मन में जानने के लिए जो तीव्र उत्कंठा होती है वही जिज्ञासा है।
 
योग्यता से तात्पर्य पद के पारस्परिक अन्वय में बाधा का अभाव होना है। पदान्वय और अर्थ की प्रतीति इन दोनों ही दृष्टियों से पदों के अन्वय में बाधा पड़ सकती है और अर्थ प्रतीति की क्षमता नहीं रहती। यथा- 'मोहन जल में कपड़े सुखाता है।' या 'पेड़-पौधे चल रहे हैं।' इन दोनों ही वाक्यों में प्रतीति मूलक बाधा है। इसी प्रकार 'लड़की हँसता है', 'बच्चे खेलता हूँ' आदि वाक्यों में व्याकरणात्मक त्रुटियों के कारण योग्यता का अभाव है।
 
'आसत्ति' का अर्थ नैकट्य होता है। वाक्य में प्रयुक्त होने वाले पदों को देश और काल दोनों ही दृष्टियों से निकट होना चाहिए। काल की दृष्टि से मान लो कोई व्यक्ति आज की तारीख में कहता है- 'आज', फिर अगले दिन कहता है- 'राम' और फिर उसके अगले दिन कहता है- 'आएगा' (अर्थात्- 'आज राम आएगा') यद्यपि व्याकरण की दृष्टि से यह वाक्य ठीक माना जायेगा, परन्तु काल की आसत्ति न होने के कारण ये तीनों पद अर्थ का निर्धारण नहीं कर सकते।
 
अतः अभिहितान्वयवाद के अनुसार पदों द्वारा व्यक्त अर्थों के अन्वय से ही वाक्य का पूरा अर्थ निकलता है। पद की महत्ता देने के कारण ही इस मत को 'पदवाद' कहकर भी पुकारा जाता है। यहाँ वाक्य की सत्ता पदों के अर्थों के संयोजन पर आश्रित है। यदि पद और उनके द्वारा व्यक्त अर्थ ही न हो तो वाक्य नहीं बन सकेगा और इस प्रकार न ही वाक्य का कोई अर्थ निकलेगा।
 

अन्विताभिधानवाद या वाक्यवाद

अन्विताभिधानवाद का प्रवर्तन आचार्य कुमारिल भट्ट के शिष्य आचार्य प्रभाकर 'गुरु' ने किया। वस्तुतः इनका नाम 'प्रभाकर था, किन्तु इनके मत को इनके गुरु कुमारिल भट्ट के मत की अपेक्षा अधिक मान्यता प्राप्त हुई। अतः ये अपने गुरु के भी गुरु माने जाने लगे तथा इन्हें 'गुरु' पदवी से सुशोभित किया गया। इनके द्वारा प्रवर्तित मत का नाम 'अन्विताभिधानवाद' है, जिसका आधार है 'अन्वितानां पदार्थानाम् अभिधानम्' अर्थात् पदों के अर्थों की अन्विति की अभिव्यक्ति ही वाक्य है। इस मत के अनुसार वाक्य में पद और उसके अर्थ की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, वरन् सभी पदों के अर्थों के समन्वय की अभिव्यक्ति ही वाक्य है। अतः समग्र अर्थ का बोध पूरे वाक्य से ही होता है, पृथक्-पृथक् पदों और उनके पृथक्-पृथक् अर्थों से नहीं। इस प्रकार वाक्य अवयवी है और पद उसके अवयव हैं। अवयवों की अवयवी (शरीर) से विच्छिन्न करके नहीं देखा जा सकता। पदार्थ की महत्ता इसी में है कि वह वाक्य का अभिन्न अंग है। वाक्य एक अखण्ड सार्थक इकाई है, पदार्थ उसमें इसी प्रकार अन्वित रहते हैं, जैसे- शरीर में अंग । वाक्य को खण्डित करके ही पदों को अलग-अलग किया जा सकता है, किन्तु ऐसी स्थिति में वाक्य वाक्य नहीं रहता। अतः वाक्य ही भाषा की स्वायत्त सार्थक इकाई है। इस मत में वाक्य की महत्ता पर बल दिया गया है। अतः इसे 'वाक्यवाद' भी कहते हैं।
 
उपर्युक्त दोनों मतों के पर्यालोचन से ज्ञात होता है कि आचार्य प्रभाकर 'गुरु' का मत ही अधिक युक्तिसंगत एवं ग्राह्य है। आधुनिक भाषावैज्ञानिक भी वाक्य को ही भाषा की न्यूनतम सार्थक इकाई मानते हैं। वाक्य भाषा का चरम अवयव है। यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी देखा जाये तो 'पदवाद' की अपेक्षा 'वाक्यवाद' ही अधिक मान्य प्रतीत होता है। जैसा कि ध्यातव्य है, वक्ता द्वारा सोचने की क्रिया भी वाक्यों के रूप में ही बनते हैं। पशुओं के पास भाषा और वाक्य नहीं है, अतः वे सोच नहीं सकते। जब वक्ता सोचता है "यह जीवन पानी के बुलबुले की भाँति क्षणभंगुर है," तो उसके मन में अलग-अलग जीवन, पानी, बुलबुला आदि पद और उनके अर्थ नहीं उभरते, वरन् पूरे वाक्य के रूप में जीवन की नश्वरता का बोध पानी के बुलबुले की क्षणभंगुरता के बिम्ब के रूप में मानस-पट पर अंकित हो जाता है। इसी वाक्य को बोलकर वह श्रोता के मन पर यही बिम्ब अंकित कर देता है। इस प्रकार विचार या विचारों के घटक वाक्य- बिम्बों के रूप में ही मानस पर अंकित होते हैं। वक्ता के मन में विचार और भाषा के साँचे समन्वित होते हैं। जिसका चिन्तन पर जितना अधिकार होता है, उसका भाषा पर भी अधिकार उतना ही होता है। चिन्तन और भाषा में अन्विति रहती है। वाक्य चिन्तन और भाषा के समन्वय की स्वायत्त पूर्ण इकाई है, जिसमें पद और पदार्थ उसी प्रकार अन्विति रहते हैं जैसे- प्रवाह में बूँदें। यह ठीक है कि प्रवाह बूँदों के समन्वय से बनता है, किन्तु इसमें बूँदों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि 'वाक्यवाद' ही स्वीकार्य है। वाक्य पदों के अर्थ की अन्विति की अभिव्यक्ति अवश्य है, किन्तु उसमें पदों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, जैसे- प्रवाह में बूँदों की। इसी सत्य को रेखांकित करते हुए आचार्य भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में कहा है- "वाक्यात् पदानामत्यन्तं प्रविवेको न कश्चन" अर्थात् वाक्य से पृथक् पदों की कोई स्वतन्त्र पहचान नहीं है।

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