वैदिक संस्कृत भाषा का परिचय और उसकी विशेषताएं वैदिक संस्कृत प्राचीन भारतीय साहित्य और संस्कृति का आधारभूत माध्यम है, जो वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों औ
वैदिक संस्कृत भाषा का परिचय और उसकी विशेषताएं
वैदिक संस्कृत प्राचीन भारतीय साहित्य और संस्कृति का आधारभूत माध्यम है, जो वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों जैसे पवित्र ग्रंथों की भाषा के रूप में विकसित हुई। यह इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की एक शाखा है और प्राचीनतम लिखित रूपों में से एक मानी जाती है। वैदिक संस्कृत की उत्पत्ति लगभग 1500 ईसा पूर्व से मानी जाती है, जब ऋग्वेद जैसे ग्रंथों की रचना हुई। यह भाषा मौखिक परंपरा के माध्यम से पीढ़ियों तक संरक्षित रही, जिसके लिए वैदिक विद्वानों ने उच्चारण और स्वर की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया।
ऋग्वेद भारतीय आर्यभाषा का प्राचीनतम ग्रन्थ है। यह संहिता ग्रन्थ है, अर्थात् इसमें सुदीर्घ काल में रचित ऋचाओं को संकलित किया गया है। सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद भी ऋग्वेद की भाँति संहिता-ग्रन्थ (संकलन) हैं। ऋग्वेद के दस मण्डलों में प्रथम और दशम में संकलित ऋचाओं की भाषा अपेक्षाकृत परवर्तीकाल की है। बीच के आठ मण्डलों की भाषा प्राचीन ईरानी भाषा 'अवेस्ता' के निकट है, जिसमें पारसियों का धर्मग्रन्थ 'जेन्द अवेस्ता' (लगभग 700 ई० पू०) लिखा गया है। वैदिक साहित्य में चारों वेदों के अतिरिक्त ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यक ग्रन्थों, उपनिषद् ग्रन्थों की भी गणना की जाती है। वेदों की भाषा से ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा अपेक्षाकृत कुछ विकसित प्रतीत होती है। यह अन्तर इसलिए भी अधिक स्पष्ट होता है कि जहाँ वेद कविता में रचित हैं, वहाँ ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा गद्य है। गद्य में वाक्य-रचना के स्वरूप का सही बोध होता है। वेदों की छन्दोबद्ध काव्य-भाषा को 'छान्दस' भी कहा जाता है। काल-भेद से भाषा में परिवर्तन होता चला गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा वैदिक संहिताओं की भाषा से, आरण्यकों की भाषा ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा से तथा उपनिषदों की भाषा आरण्यकों की भाषा से विकसित है।
वैदिक संस्कृत साहित्यिक भाषा थी, जिसमें उच्चस्तरीय साहित्य की सृष्टि हुई। वैदिक संस्कृत का एक सिरा लोक-जीवन से भी अवश्य जुड़ा रहा होगा। वैदिक संस्कृत के साहित्यिक रूप के समानान्तर उसका बोलचाल का व्यावहारिक रूप भी अवश्य प्रचलित रहा होगा। बोली से सम्बद्ध होने के कारण ही वैदिक संस्कृत भी अपनी प्रकृति में बहुत कुछ स्वच्छन्द है, जिसके कारण शब्दों के रूप सर्वत्र नियमित नहीं है। कहीं-कहीं रूपों में अनेकरूपता मिलती है।
वैदिक संस्कृत में कुल ध्वनियों की संख्या 52 थी। इसमें 9 मूल स्वर (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, लृ) थे, 4 संयुक्त स्वर (ए, ओ, ऐ, औ), 27 स्पर्श ध्वनियाँ अर्थात् कवर्ग (क, ख, ग, घ, ङ), चवर्ग ( च, छ, ज, झ, ञ), टवर्ग (ट, ठ, ड, ळ, ढ, ळूह, ण), तवर्ग (त, थ, द, ध, न) तथा पवर्ग ( प, फ, ब, भ, म) के साथ ही 4 अन्तस्थ ध्वनियाँ (य, र, ल, व) 7 ऊष्म (श, ष, स, ह) विसर्ग (:), जिह्वमूलीय () तथा उपध्मानीय () के अतिरिक्त अनुनासिक अनुस्वार () ध्वनि सम्मिलित थी।
वैदिक भाषा की विशेषताएं
वैदिक भाषा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- वैदिक भाषा श्लिष्ट योगात्मक भाषा थी।
- वैदिक संस्कृत में रूप-रचना बहुत नियमित नहीं थी। कहीं-कहीं स्वच्छन्दता और अनेकरूपता पायी जाती थी। उदाहरण के लिए, 'देव' के रूपों में ही अनेकरूपता थी। देव के प्रथमा द्विवचन में देवौ और देवा रूप बनते थे, जिनमें से लौकिक संस्कृत में केवल 'देवौ' रह गया। इसी प्रकार प्रथमा बहुवचन में 'देवा' और देवास: दो रूप बनते थे, जिनमें से संस्कृत में देवाः ही रह गया।
- धातु-रूपों में लेट् लकार का प्रयोग होता था, जो लौकिक संस्कृत में समाप्त हो गया
- वैदिक भाषा में संगीतात्मक सुराघात की प्रमुखता थी, लौकिक संस्कृत में बलाघातात्मक स्वर हो गया ।
- वैदिक भाषा में उपसर्ग धातु से अलग भी प्रयुक्त हो सकते थे, यथा 'अभि यज्ञं गृणीहि नः ।
- वैदिक संस्कृत में तीन लिंग और तीन वचन थे ।
- वैदिक संस्कृत में ह्रस्व और दीर्घ के साथ प्लुत का भी प्रयोग होता था।
- वैदिक संस्कृत और ळ और ळ्ह ध्वनियाँ प्रचलित थीं, जो संस्कृत में नहीं रही।
- सन्धि-नियमों में पर्याप्त शिथिलता थी।
इस भाषा का छंदात्मक स्वरूप वेदों की काव्यात्मकता में स्पष्ट दिखता है, जैसे गायत्री, अनुष्टुप और त्रिष्टुप छंद। वैदिक संस्कृत में प्रतीकात्मक और दार्शनिक अभिव्यक्ति की प्रबल क्षमता है, जिसके माध्यम से प्रकृति, देवताओं और मानव जीवन के गहन प्रश्नों को उकेरा गया। इसकी शब्दावली प्रकृति और वैदिक यताों से प्रियोजित हैं। वैदिक संसकृत की यह लचीलापन और समृद्धि इसे केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि भाषाई और सांस्कृतिक अध्ययन के लिए भी महत्वपूर्ण बनाती है।
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