अनुवाद का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ

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अनुवाद का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ अनुवाद का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह केवल भाषा का परिवर्तन नहीं है, बल्कि एक संस

अनुवाद का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ


नुवाद का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह केवल भाषा का परिवर्तन नहीं है, बल्कि एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में विचारों, भावनाओं और मूल्यों का स्थानांतरण है।अनुवाद के माध्यम से विभिन्न समाजों के बीच संवाद स्थापित होता है और सांस्कृतिक विविधता को समझने का अवसर मिलता है।

सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। समाज सतत परिवर्तनशील और विकासशील होता है। इसके स्वरूप निर्माण में कई तरह के तत्व सक्रिय रहते हैं जिनमें आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक सांस्कृतिक चेतना आदि प्रमुख होते हैं। किसी भी समाज की जन चेतना का निर्माण, विकास एवं परिवर्तन उसकी परिस्थितियों के अनुसार होता है। युगीन परिस्थितियों में उद्धत इस चेतना का निर्मित में जनसामान्य की भाषा महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। विश्व के संस्कृतियों में मौखिक और लिखित साहित्य का अनुवाद एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया रही है। जब कोई रचना लोक-भाषा में उपलब्ध हो जाती है, तो ज्ञान के प्रसार से जनमानस में जागरूकता पैदा करती है।एक भाषा का साहित्य किसी न किसी रूप में दूसरी भाषा में, दूसरी से तीसरी भाषा में इस तरह से अनेक भाषाओं में स्थान पाता है। 

विश्व संस्कृति के विकास में अनुवाद का योगदान

विश्व-संस्कृति के विकास में अनुवाद का योगदान अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण रहा है। धर्म, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, वाणिज्य-व्यवसाय, राजनीति, संस्कृति आदि के विभिन्न पहलुओं का अनुवाद से अभिन्न सम्बन्ध रहा है। जबकि समाज और अनुवाद का संबन्ध भी नया नहीं है। इस सम्बन्ध की जड़े मानव समाज में काफी पुरानी है। अनुवाद में विश्वभर में ज्ञान-विज्ञान की चेतना से मानवीय ज्ञानात्मक ओर भावात्मक संवेदना को बदला है। अनुवाद को हम सुदृढ़ सेतु के रूप में देख सकते हैं जो संस्कृति के भौतिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं को गतिशीलता प्रदान करती है। विश्व-संस्कृति के निर्माण में विचारों के आदान-प्रदान का बड़ा सहयोग रहा है और यह आदान-प्रदान अनुवाद से ही सम्भव हो पाया है। अनुवाद कर्म ने सामाजिक चेतना के बदलाव, संघर्ष और टकराहट को प्रबल और सजग प्रक्रिया के रूप में जीवन्त रखने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाया है।
 

वैचारिक आदान प्रदान में अनुवाद की भूमिका

वैचारिक आदान-प्रदान की चेतना से सामाजिक वैचारिकता में एक नई भूमि तैयार करने में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका अनेक तर्कों और उदाहरणों के माध्यम से देख सकते हैं, जैसे- 
  1. रेनेसाँ काल में ग्रीक और रोम के साहित्य ने यूरोपीय देशों को प्रभावित किया।
  2. पूँजीवाद के विकास और सामंतवाद के पतन में अनुवाद की अहम भूमिका रही। 
  3. अनुवाद के माध्यम से व्याख्या और भाष्य के नए आयाम गढ़े गए, यूरोपीय वर्नाकुलरों के साहित्य का उदय हुआ। 
  4. भारतीय ग्रन्थों के अनुवाद के द्वारा अनेक देशों में बौद्ध धर्म और संस्कृति का प्रचार हुआ। 
  5. ईसा की पहली शताब्दी से संस्कृत और पालि से चीनी भाषा में अनुवाद की शुरुआत हो गई थी। 
  6. चीनी त्रिपिटिक के तेईस संस्करण में 3360 से अधिक भारतीय ग्रन्थों का अनुवाद चीनी भाषा में हुआ। यही कारण है कि बौद्ध धर्म का चीन में प्रचार-प्रसार हुआ और जनता में पूजनीय बना। 
  7. जापान में भी चीनी अनुवादों के परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। 
  8. तिब्बती भाषा में भी भारत की आध्यात्म विद्या और दर्शन के उत्तम ग्रन्थों का अनुवाद हुआ जिसने वहाँ नवजागरण का सन्देश दिया।

नवजागरण का आरम्भ

अनुवाद का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ
नवजागरण की चेतना की जो शुरूआत इटली में हुई थी, वह साहित्य और कला के क्षेत्रों में यूनान की श्रेष्ठ कृतियों के अध्ययन और पुन: सृजन तक सीमित थी। जब जर्मनी और इंग्लैण्ड आदि ने बाइबिल के अनुवाद का तथा ब्रिटिश शासकों ने रोम के चर्च से मुक्ति का दुःसाहस किया तो समाज को व्यापक परिवर्तन से गुजरना पड़ा। लेकिन जर्मनी और इंग्लैण्ड नवजागरण को केवल सैद्धान्तिक रूप में ही नहीं पाना चाहते थे, वे उसे अपने जीवन में भी उतारना चाहते थे। अतः प्राचीन ग्रीक श्रेष्ठ साहित्य और कला का अध्ययन ही पर्याप्त न था, बल्कि वर्तमान असंतोषजनक परिस्थितियों का सुधार भी आवश्यक था। बाइबिल को पढ़ने और लिखने का अधिकार मिला। इन सबके कारण यूरोपीय समाज को विप्लव के दौर से भी गुजरना पड़ा। भंयकर रक्तपात और राजनीतिक उथल-पुथल के काल-विशेष की घटना मात्र बनकर न रहे, बल्कि इससे समूचे यूरोपीय समाज के जीवन में गम्भीर परिवर्तन आए। चर्च ऑफ इंग्लैण्ड की स्थापना तथा बाइबिल के अंग्रेजी अनुवादों के माध्यम से ईसाई धर्म में प्रोटेस्टेंट मत की शुरूआत हुई। टिडेल, इटेसमस, मार्टिन लूथर आदि ने समाज को पोप की सत्ता की कठिन धार्मिक जर्जर रूढ़ियों से मुक्ति दिलाई। नव-जागरणकालीन यूरोप में अनुवादों की भूमिका केन्द्रीय हो गई। साथ ही इसने अतीत और वर्तमान के बीच तथा राष्ट्रवाद और धार्मिक संघर्ष के दबाव के कारण बिखरती हुई विभिन्न भाषाओं और परम्पराओं के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए उसे तार्किक आधार प्रदान किया। यही कारण है कि नवजागरण काल में अनुवाद किसी भी स्थिति में गौण न होकर ऐसे प्रमुख कार्य के रूप में दिखाई देता है।
 

ब्रिटिश काल भारतीय साहित्य का अनुवाद

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के बाद ब्रिटिशों ने प्राचीन भारतीय परम्पराओं, ज्ञान-विषयों पर उपलब्ध समस्त महत्त्वपूर्ण साहित्य के महत्व को समझा था और इसलिए उसका अंग्रेजी में अनुवाद कराया। 1775 में सर विलियम जोन्स द्वारा स्थापित बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने प्राचीन भारतीय साहित्य की खोज तथा उसके अनुवाद और प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया। 1798 में सर मोनियर विलियम्स ने कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का अनुवाद किया। यूरोपरीय समाज और साहित्य पर इस अनुवाद का कई रूपों को प्रभावित किया। मैक्समूलर, शॉपेनहावर, श्रलेगल आदि जर्मन विद्वानों द्वारा संस्कृत के वैदिक और लौकिक साहित्य के अनुवाद कार्य से भाषा विज्ञान के क्षेत्र में नई दिशा खुली और तुलनात्मक भाषा विज्ञान का आरम्भ हुआ।
 

मध्यकाल में भारतीय साहित्य का अनुवाद

हिन्दी के मध्यकाल में लोकभाषाओं के विकास और लोकजागरण को अनुवाद के परिप्रेक्ष्य में देखने पर हम पाते हैं- कि इस काल में संतों ने अपनी भाषा में संस्कृत और पाली के महान साहित्य, दर्शन, धर्म, संस्कृति, नीति चेतना के ग्रन्थों का स्वच्छंद अनुवाद किया।
 
उपनिषदों, महाभारत, रामायण और गीता के विचारों के लोकभाषा में अनुवादों की एक विस्तृत परम्परा सोलहवीं सती से अठारहवीं सती तक दिखाई देती है। गीता का हिन्दी अनुवाद हखल्लभ ने 1644 में भगवानदास ने 1669 में, आनन्दराम ने 1707 में किया। इस प्रकार अनुवाद ने इस काल में जनता के मन पर जमी हुई निराश को हटाते हुए जीवन में नई किरण दिखाई ।

इसी प्रकार मध्ययुगीन कविता में भक्तिधारा को जनचेतना में प्रखर गति से प्रवाहित करने में अनुवादों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के बाद नवजागरण की जो नवीन चेतना प्रस्फुटित हुई उसमें अनुवाद की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता ।
 

यूरोपीय संस्कृति के आदान-प्रदान में अनुवाद की भूमिका

फ्रांसीसी राजक्रान्ति, यूरोपीय पूँजीवाद, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की शक्तियों और उनके खतरों से हम अनुवाद के माध्यम से ही परिचित हुए थे। पश्चिम में मार्क्स, रूसों, डार्विन और टॉलस्टय के विचारों के साथ यूरोप में जिस नवचिंतन का आरम्भ हुआ था, उसे भारत तक पहुँचाने के कार्य में अनुवाद महत्त्वपूर्ण रहा है। इन अनुवादों से एक नया बुद्धिवाद का उदय हुआ तथा मध्ययुगीन जड़ता का ध्वंस हुआ। उन्नीसवीं सदी के भारत में मानव मुक्ति की कल्पना के विकास में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। दूसरी भारतीय भाषाओं के बीच वैचारिक आदान-प्रदान के रास्ते भी अनुवाद ने ही खोलें। बंगला से बंकिम, शरद, माइकेल, मधुसूदन दत्त, रवीन्द्रनाथ, मराठी से हरिनारायण आप्टे, खाण्डेकर आदि के जो अनुवाद हिन्दी में हुए, वह हिन्दी-भाषी प्रदेशों में एक नया विचार-विन्मय उत्पन्न किया और जनमानस साम्प्रदायिकता और प्रान्तीयता से ऊपर उठकर अखण्ड चेतना की दिशा प्राप्त किया। राष्ट्रीय जागरण में अनुवाद की भूमिका हमारे राष्ट्रीय सांस्कृतिक नवजागरण में अनुवाद ने युगान्तकारी कार्य किया है। स्वयं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हैकल की क्रान्तिकारी पुस्तक 'रिडिल ऑफ दि यूनिवर्स' का 'विश्व प्रपंच' नाम से अनुवाद किया। हैकल की इस पुस्तक ने पूरे एशिया में तहलका मचा दिया था। दुनिया भर के मुक्ति संग्रामों से हमें मुक्ति संग्राम की नई चेतना मिली। दुनिया के बहुत से देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद के नीचे पिस रहे थे उन सबकी आजादी में अनुवाद की अहम भूमिका रही है। 

सामाजिक चेतना में अनुवाद की भूमिका

वास्तव में अनुवाद कार्य ने सामाजिक चेतना में परिवर्तन की प्रक्रिया को जीवन्त बनाने में उल्लेखनीय योगदान दियां है। अनुवाद का माध्यम न होता तो। 1966 में नीग्रो युवकों द्वारा बनाया गया लड़ाकू संगठन 'ब्लैक पैंथर' के तर्ज पर 1975 में महाराष्ट्र का 'दलित पेंथर' भी न बना होता। मराइवाड़ा में उपजे एक विरोध के स्वर को जहाँ एक ओर अनुवाद ने व्यापक भारतीय दलित समुदाय की चेतना से जोड़ा तो, वहीं दूसरी ओर दुनिया के तमाम कोनों में चल रहे रंग भेदी आन्दोलन से भी जोड़ा। अन्य भाषा-भाषियों द्वारा लिखे गये दलित साहित्य को हिन्दी भाषा-भाषियों और अन्य भाषा-भाषियों तक पहुँचाने में अनुवाद की अहम भूमिका रही है। 

संक्षेप में, अनुवाद सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह विभिन्न समाजों और संस्कृतियों के बीच संवाद स्थापित करने, ज्ञान के प्रसार में मदद करने और सांस्कृतिक विविधता को बनाए रखने का एक शक्तिशाली माध्यम है। अनुवाद के माध्यम से हम दूसरी संस्कृतियों को समझ सकते हैं और उनके साथ सहयोग और सद्भावना का निर्माण कर सकते हैं।

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