मैथिलीशरण गुप्त की प्रगतिशील विचारधारा

SHARE:

मैथिलीशरण गुप्त की प्रगतिशील विचारधारा मैथिलीशरण गुप्त, हिंदी साहित्य के एक ऐसे नक्षत्र हैं जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना, सामा

मैथिलीशरण गुप्त की प्रगतिशील विचारधारा


मैथिलीशरण गुप्त, हिंदी साहित्य के एक ऐसे नक्षत्र हैं जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक सुधार और मानवीय मूल्यों को बड़ी ही सहजता और सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया। उन्हें सच्चे अर्थों में प्रगतिशील कवि कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। गुप्त जी की कविताएँ भारतीय संस्कृति की जीवंत तस्वीर हैं, जिनमें हमारी परंपराओं, मूल्यों और आदर्शों का प्रतिबिंब दिखाई देता है। उन्होंने अपनी लेखनी से राष्ट्रीय गौरव को बढ़ावा दिया और समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई।

डॉ. शिवनन्दनप्रसाद के शब्दों में “साहित्य में प्रगतिशीलता एक उगते हुए राष्ट्र की जीवनी शक्ति है। प्रगतिशील साहित्यकार की लौह-लेखनी द्वारा उसके राष्ट्र की आशा- आकांक्षाओं, आदर्शों, प्रेरणाओं को वाणी मिलती है। इसी वाणी में युग-धर्म मुखरित होता है।" 

प्रगति का साधारण अर्थ आगे बढ़ना या उन्नति करना है, परन्तु साहित्य में प्रगतिशीलता एक ऐसी विचारधारा है, जिसका मूल उत्स मार्क्सवाद में माना जाता है वस्तुतः प्रगतिशीलता अथवा प्रगतिवाद की निश्चित रूपरेखा निर्धारित करना दुष्कर है। यह तो एक ऐसी विचारधारा या दृष्टिकोण है, जो युगीन परिस्थितियों के आधार पर निर्मित और परिवर्तित होता रहता है। साहित्य एक सामूहिक चेतना है, जिसका आधार जन-मानस है। अत: साहित्य में प्रगतिशीलता का तात्पर्य जनमानस की वह सामूहिक चेतना ही है, जो किसी युग विशेष में राष्ट्र की उन्नति अथवा विश्वबन्धुत्व जैसे उदात्त भावों के लिए प्रयत्नशील दिखलायी देती है। 

हिन्दी-साहित्य में ‘प्रगतिवाद' नामक विचारधारा का आरम्भ 1936 ई. से माना गया है, परन्तु प्रगतिशील विचारों को किसी काल की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। प्रगतिवादी कवियों की सूची में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का नाम भले ही नहीं अंकित किया गया, परन्तु प्रगतिशील विचारधारा के कवि वे अवश्य थे। युग-प्रतिनिधि राष्ट्रकवि के काव्य में 'प्रगतिशील विचारधारा अनेक रूपों में प्रवाहित हुई है।
 
युगानुरूप प्रगतिशीलता की भावना का विकास गुप्त जी की कृतियों में दिखलायी देता है। किसान, शक्ति, स्वदेशगीत, जयद्रथ वध, हिन्दू, गुरुकुल आदि में वे अपनी सामयिक अपेक्षाओं को पूरा करते से दिखलायी देते हैं। इस युग में प्रगतिशीलता का चरम विकास गाँधीवाद के रूप में प्रकाशित हो रहा था। गुप्त जी की कविता में युग की प्रवृत्ति के अनुसार गाँधीवाद की स्पष्ट छाप है। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस जिस मार्ग से गयी उन समस्त आन्दोलनों की ध्वनि गुप्त जी के काव्य में पायी जाती है। गुप्त जी के प्रगतिशील विचार पंचवटी, भारत-भारती, साकेत, अनघ और स्वदेश-गीत इत्यादि में भरे पड़े हैं। उनके ‘अनघ' में ‘मघ' तो महात्मा गाँधी की साक्षात् प्रतिकृति ही है। इस ग्रन्थ में धरना देना, अछूतोद्धार, मद्यनिषेध, गाँव की ओर लौटना, क्षमाशीलता आदि समस्त गाँधीवादी विचारों की प्रस्तुति है। अनघ एक स्थान पर गाँधी के समान ही कहता है-

"न तन सेवा न मन सेवा, न जीवन और धन सेवा । 
मुझे है इष्ट जनसेवा, सदा सच्ची भुवन सेवा ।। "
 
अछूतों के प्रति उदार भावना गुप्त जी की प्रगतिशील विचारधारा को व्यक्त करती है - 

"इन्हें समाज नीच कहता है, पर हैं ये भी तो प्राणी । 
इनके भी मन और भाव हैं, किन्तु नहीं वैसी वाणी । ।”
 
हिन्दू-मुस्लिम एकता आधुनिक युग की भीषण समस्या है। गुप्त जी ने इस पर भी अपने विचार प्रकट किये हैं और दोनों सम्प्रदायों के पारस्परिक वैमनस्य को दूर करने का प्रयास किया है - 

'हिन्दू-मुसलमान दोनों अब, छोड़ें वह विग्रह की नीति । । '

मैथिलीशरण गुप्त की प्रगतिशील विचारधारा
ग्राम-सुधार और श्रमदान जैसे प्रगतिशील विचारों की अभिव्यक्ति भी गुप्त जी के काव्य में प्राप्त होती है। 'अनघ' में मघ को उन्होंने एक आदर्श ग्रामसुधारक के रूप में प्रस्तुत किया है, जो अपना अधिकांश समय ग्राम-सुधार में ही व्यतीत करता है- " मरम्मत कभी कुओं-घाटों की सफाई कभी हाट-बाटों की, आप अपने हाथों करता है।" 

'साकेत' में गुप्त जी की प्रगतिशीलता का चरमरूप दिखलायी देता है। युग को वाणी देती हुई उनकी यह कृति भविष्य की मंगल-कामना का गान भी प्रस्तुत करती है जन्मभूमि के प्रति श्रद्धा और प्रेमपूर्ण उद्गार स्वयं राम के मुख से वर्णित कर गुप्त जी ने अपने देशप्रेम की भावना को सर्वोत्तम रूप प्रदान किया है -

मैं हूँ तेरा सुमन चढूँ-सरयूँ कहीं, मैं हूँ तेरा जलद, बढूँ-बरसूं कहीं । । 
जन्मभूमि, ले प्रणति और प्रस्थान दे, हमको गौरव, गर्व तथा निज मान दे ।।
 
डॉ. नगेन्द्र का कथन है- "साकेत' की देशभक्ति भी गाँधीजी की देशभक्ति के समान निश्चित रूप से धार्मिक है।" गुप्त जी को अन्याय और अधर्म किसी प्रकार में ग्राह्य नहीं है - पर वह मेरा देश नहीं। जो करे दूसरों पर अन्याय ।।

उनकी उदार प्रगतिशील भावना देश से बढ़कर विश्व भर को अपनी विशाल परिधि में समेट लेना चाहती है और उनका देश-प्रेम विश्वबन्धुत्व की सीमा को स्पष्ट करने लगता है - 
 
किसी एक सीमा में बँधकर । रह सकते हैं क्या ये प्राण ? 
एक देश क्या, अखिल विश्व । का तात, चाहता हूँ मैं त्राण ।।
 
'साकेत' में वन-गमन के अवसर पर प्रजा उनके सामने लेट जाती है और सत्याग्रह की शरण लेती है -

जाओ, यदि जा सको रौंद हमको यहाँ । 
यों कह, पथ में लेट गए बहु जन वहाँ ।
 
'हमारे वर्तमान जीवन की प्रधान समस्याएँ राजनीतिक हैं, क्योंकि आज हमारी राजनीति पर ही अर्थनीति और समाजनीति आधारित है। अतः यह आवश्यक है कि हमारे युग के प्रतिनिधि कवि के राजनीतिक विचार यथेष्ट रूप से प्रगतिशील हों। साकेतकार इस 'विषय में पीछे नहीं।' गुप्तजी ने आधुनिक युग के अनुकूल राजा की सीमा निर्धारित की है।
 
राजा प्रजा का प्रतिनिधि मात्र है। यदि प्रजा उससे असन्तुष्ट है, तो राजा के हाथ से राजसत्ता छीन लेने का उसे अधिकार है- "राजा प्रजा का पात्र है, वह एक प्रतिनिधि मात्र है। यदि वह प्रजा पालक नहीं, तो त्याज्य है । हम दूसरा राजा चुनें जो सब तरह सबकी सुने । कारण प्रजा का ही असल में राज्य है ।"

यदि राज्य को प्रजा का थाती न मानकर शासक अपने भोग की वस्तु मान लें, तो प्रजा को द्रोह करने का अधिकार है। साकेतकार के शब्दों में - 
 
राज्य को यदि हम बना लें भोग, तो बनेगा वह प्रजा का रोग 
फिर कहूँ मैं क्यों न उठकर ओह ! आज मेरा धर्म राज द्रोह !! 
राज्य में दायित्व का ही भार, सब प्रजा का वह व्यवस्थागार । 
वह प्रलोभन हो किसी के हेतु, तो उचित है क्रान्ति का ही केतु ।
 
आदर्श राज्य का रूप तो यह है-
 
तात, राज्य नहीं किसी का वित्त, वह उन्हीं के सौख्य-शान्ति निमित्त- 
स्वबलि देते हैं उसे जो पात्र, नियत शासक लोक-सेवक मात्र ! 

अत: ‘प्रजा की थाती रहे अखण्ड' और 'मात्र दायित्व हेतु है राम'- यही रामराज्य का आदर्श है और यही गाँधी का काल्पनिक स्वप्न था।
 
आधुनिक युग में वीरता के प्रतिमान बदल गये हैं। युद्ध केवल युद्ध के लिए नहीं, अपितु शान्ति-स्थापना के लिए आवश्यक होना चाहिए। ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण प्रजाजन को उत्साहपूर्वक सहभागिता का दायित्व-निर्वाह करना चाहिए। आधुनिक युग में स्त्रियों को भी पदे-पदे पुरुष के साथ चलना है। इसलिए गुप्तजी के साकेत में लक्ष्मण के शक्ति लगने का समाचार जानकर जब शत्रुघ्न शंखनाद करते हैं, तो सारी अयोध्या नगरी मानो सोते से जाग उठती है और रण-प्रयाण को तत्पर हो जाती है। स्त्रियाँ अपने पति और पुत्रों को उत्साहपूर्वक युद्ध के लिए विदा देती हैं। कैकेयी और उर्मिला तो साथ चलने को उद्यत हो जाती हैं। युगानुरूप प्रगतिशीलता का यह प्रकर्ष गुप्तजी की विचारधारा को स्पष्ट करता है। शत्रु को नष्ट करके उसके नगर को लूटना युद्ध-प्रक्रिया का अंग है। शत्रुघ्न कहते हैं - 
 
“अब क्या है ? बस वीर, वाण से छूटो-छूटो । 
सोने की उस शत्रुपुरी लंका को लूटो ।।"
 
परन्तु गुप्तजी उर्मिला के मुख से युद्ध की इस लूट की भर्त्सना कराते हैं-
 
गरज उठी वह नहीं नहीं, पापी का सोना । 
यहाँ न लाना, भले सिन्धु में वहीं डुबोना । 
सावधान ! वह अधम धान्य-सा धन मत छूना। 
तुम्हें, तुम्हारी मातृभूमि ही देगी दूना।।
 
युद्ध का उद्देश्य अपने मान को पाना है, कुल की कीर्ति को बढ़ाना है- 

“विन्ध्य हिमालय भाल भला ! झुक जाय न वीरो, चन्द्र-सूर्य कुल कीर्ति कला रुक जाय न धीरो।" 

युद्ध का अन्तिम आदर्श होना चाहिए - 

पावें तुम से आज शत्रु भी ऐसी शिक्षा, 
जिसका अर्थ हो दण्ड और इति दया-तितिक्षा ।

राष्ट्र-कवि मैथिलीशरण गुप्त की प्रगतिशीलता के अनेक उदाहरण उनके काव्यों में उपलब्ध होते हैं। युगीन विचारधारा गाँधीवाद के आदर्शों से अनुस्यूत थी, अतः गुप्तजी ने भी गाँधी के समस्त आदर्शों को स्वीकार किया है। उनके राम इस धरती को स्वर्ग बनाने आये हैं, उनकी सीता वन की आदिम जातियों की बालाओं के साथ मिलजुल कर काम करती हैं, कातना - बुनना सीखती और सिखाती हैं। उनकी उर्मिला युद्ध में वीरों के घाव धोने, पानी-पिलाने और प्रोत्साहन देने के लिए उद्यत है। इस प्रकार साहित्य में जिन प्रगतिशील भावों की प्रतिष्ठा की अपेक्षा हो सकती है, वे सब गुप्तजी के काव्य में सम्पृक्त हैं। डॉ. शिवनन्दन प्रसाद के शब्दों में कह सकते हैं- "गुप्तजी की प्रगतिशीलता को यदि हम भावात्मक प्रगतिवाद कहें तो अनुचित न होगा, क्योंकि यह मार्क्स के इतिहास और . वर्ग-संघर्ष सम्बन्धी भौतिकवादी विचारों पर न होकर हृदय की वीर-भावना पर अवलम्बित है।"

COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका