अज्ञेय के काव्य में व्यक्तिवादी चेतना

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अज्ञेय के काव्य में व्यक्तिवादी चेतना अज्ञेय के काव्य में व्यक्तिवादी चेतना न केवल एक साहित्यिक प्रवृत्ति है, बल्कि यह जीवन के प्रति एक दार्शनिक दृष्ट

अज्ञेय के काव्य में व्यक्तिवादी चेतना


ज्ञेय (सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन) हिंदी साहित्य के प्रमुख कवियों में से एक हैं, जिनकी काव्य-यात्रा आधुनिकता और प्रयोगवाद की धारा से गहरे जुड़ी हुई है। उनके काव्य में व्यक्तिवादी चेतना का स्वर मुखर रूप से उभरता है। यह चेतना उनके काव्य को एक विशिष्ट पहचान देती है और उसे समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश से जोड़ती है। अज्ञेय के काव्य में व्यक्तिवादी चेतना का विकास उनके व्यक्तित्व, दर्शन और जीवन-दृष्टि से प्रेरित है।

अज्ञेय के लिए निश्चित रूप से समाज अलग-अलग जीवन्त और संवेदनशील इकाइयों से निर्मित वह समवाय है, जिससे उनका सीधा मानवीय सम्बन्ध है। 'मानवता' अथवा 'समाज' उनके लिए मात्र मानसिक परिकल्पनाएँ नहीं हैं। उनमें न तो अनुभव की कमी है, जो उन्हें असमर्थ लेखक बनाये और न उनके अन्दर यथार्थ का बौद्धिकीकरण ही है, जो आततायी बनाता हो। इसीलिए व्यष्टि और समष्टि को जोड़ने वाली सारी कविताएँ उनकी वैयक्तिक संवेदनाओं से भरपूर है।" - डॉ० रामकमल राय
 
प्रयोगवादी कविता में व्यष्टि-चेतना मुखर रही है। इन कवियों द्वारा इस विचारधारा का दृढ़ता से पालन भी किया गया है। अज्ञेय इस विचारधारा के प्रवर्तक हैं। इसलिए इनकी कविता भी वैयक्तिक भाव-धारा से ओत-प्रोत है। कितनी शान्ति, कितनी शान्ति ! कविता में अज्ञेय स्वीकार करते हैं-
 
अहं अन्तर्गुहावासी ! स्व-रति ! क्या मैं चीन्हता कोई न दूजी राह ? 
जानता क्या नहीं निंज में बद्ध होकर है नहीं निर्वाह ? 
क्षुद्ध नलकी में समाता है कहीं बेथाह 
मुक्त जीवन की सक्रिय अभिव्यंजना का तेज दीप प्रवाह ! 
जानता हूँ! नहीं सकुचा हूँ कभी समवाय को देने स्वयं का दान, 
विश्वजन की अर्चना में नहीं बाधक था कभी इस व्यष्टि का अभिमान । 
क्रांति अणु की है सदा गुरु-पुंज का सम्मान । 
बना हूँ कर्त्ता - इसी से कहूँ मेरी चाह, मेरा दाह, मेरा खेद और उछाह ।
 
अज्ञेय के काव्य में व्यक्तिवादी चेतना
उपर्युक्त काव्य-पंक्तियाँ अज्ञेय के दृष्टिकोण को व्यंजित करने में पूर्णत: समर्थ है। कवि व्यक्ति को महत्ता तो प्रदान करता है, किन्तु इस व्यक्ति की सार्थकता सिद्ध होती है- समाज में आकर । व्यक्ति आत्म-केन्द्रित होकर नहीं रह सकता, समाज से विरत रहकर जीवन-यापन करना उसका स्वभाव ही नहीं है। निज में बद्ध होकर रहा तो जा सकता है, किन्तु इस रहने की कोई सार्थकता नहीं है। अज्ञेय ने अपनी वैयक्तिक चेतना के ही कारण समाज को नदी और मनुष्य को द्वीप के रूप में उपमित किया है और सिद्ध किया है कि नदी और द्वीप अर्थात् समाज और मनुष्य का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। अन्योन्याश्रित ही नहीं बल्कि कह सकते हैं कि नदी के कारण ही द्वीप का अस्तित्व है। यह मनुष्य का प्रतीक द्वीप नदी रूपी समाज के सम्मुख अपना स्थिर समर्पण करता है। अनुकूल स्थिति उत्पन्न होने पर वह अपने को नया आकार देता है और अपनी सार्थकता सिद्ध करता है। द्वीप रूपी मनुष्य नदी रूपी समाज के प्रति आभार ज्ञापन भी करता है- 

"हम नदी के द्वीप हैं, 
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय, 
वह हमें आकार देती है, 
हमारे कोण, गलियाँ, अन्तरीप, उभार, सैकतकूल 
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं, 
माँ है वह । है, इसी से हम बने हैं।" 
वह नदी से निवेदन भी करता है- 
“नदी तुम बहती चलो, 
भूखण्ड से जो दाय हमको मिला है, 
मिलता रहा है माँजती, संस्कार देती चलो।"
 
अज्ञेय की एक कविता है- 'यह दीप अकेला' इस कविता में कवि दीप को पंक्तिबद्ध करने के लिए कहता है। वस्तुत: यहाँ दीप, व्यक्ति का और पंक्ति समाज का प्रतीक है। इस कविता का दीप (व्यक्ति) स्नेह भरा, मदमस्त एवं आत्माभिमान से युक्त है। कवि इसे समाज से जोड़ना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि समाज से अलग रहकर मानवीय चेतना से युक्त व्यक्ति की कोई सार्थकता नहीं है। इस कविता में भी अज्ञेय की चेतना व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर है । कवि कहता है- 

यह दीप अकेला, स्नेह-भरा, 
है पर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो 
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा ? 
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लायेगा ? 
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा 
अह अद्वितीय : यह मेरा ! यह मैं स्वयं विसर्जित ।
 
अज्ञेय जन के सुख-दुःख के गायक हैं। वे जहाँ भी उपेक्षित, पीड़ित, दलित, शोषित, श्रमजीवी देखते हैं, वहीं उनकी करुणा चीत्कार कर उठती है और उक्त जन की पक्षधरता में कविता फूट पड़ती है। उनकी व्यक्तिवादिता जग-जाहिर हो जाती है। वे कह उठते हैं-
 
पीड़ित, श्रमरत मानव अविजित, दुर्जय मानव 
कमकर, श्रमकर, शिल्पी, स्रष्टा- 
उसकी मैं कथा हूँ ।

इस जन से कटे हुए लोगों पर अज्ञेय व्यंग्य करने से नहीं चूकते। वे समाज में व्याप्त वैषम्य को दूर करना चाहते हैं। यह वैषम्य तभी दूर होगा, जब बहुत ऊँचे उठ गया व्यक्ति नीचे आयेगा और अपने ही समरूपों की खोज-खबर लेगा। उनकी पीड़ा को दूर करने का यत्न करेगा। कवि कहता है- 

उतरो थोड़ा और : 
साँस ले गहरी 
अपने उड़नखटोले की खिड़की को खोलो 
और पैर रक्खो मिट्टी पर : 
खड़ा मिलेगा 
वहाँ सामने तुमको 
अनपेक्षित प्रतिरूप तुम्हारा 
नर, जिसकी अनझिप आँखों में नारायण की व्यथा भरी है।
 
अज्ञेय का व्यक्ति समाज का महत्त्वपूर्ण अंग तो है, किन्तु वह पीड़ित है। ऊँचे लोग निरन्तर उसका शोषण कर रहे हैं। परिणामतः वह समाज से पूर्णत: जुड़ नहीं पा रहा है। हाँ, यह अलग बात है कि वह हार भी नहीं रहा है, बल्कि उसकी वाणी में ललकार भरी हुई है। वह शोषक भैया को आमंत्रित करता है और कहता है कि- 

डरो मत, शोषक भैया, 
पी लो। 
मेरा रक्त ताजा है मीठा है 
हृदय है। 
पी लो, शोषक भैया, 
डरो मत। 
शायद तुम्हें पचे नहीं- 
अपना भेदा तुम देखो, मेरा क्या दोष है। 
मेरा रक्त मीठा तो है, पर पतला या हल्का भी हो 
इसका जिम्मा मैं तो नहीं ले सकता, 
शोषक भैया ! 
जैसे सागर की लहर 
सुन्दर हो यह तो ठीक, 
पर यह आश्वासन तो नहीं दे सकती किनारे को लील नहीं लेगी। 

अज्ञेय ढिंढोरा नहीं पीटते हैं। वे चुपके से अपनी बात कह जाते हैं और अपने जन को नवशक्ति प्रदान कर देते हैं। उसे शोषकों से सजग कर देते हैं। उत्पीड़न, दमन, शोषण, संहार आदि से मुक्त हो जाने के लिए प्रेरित करते हैं। अज्ञेय का व्यष्टि अदम्य आत्माशा से युक्त है। वह समष्टि के सागर के समक्ष खड़ा होकर उसे सम्बोधित करता है और अपनी उपादेयता सिद्ध करता है-
 
'तुम- तुम सागर क्यों नहीं हो ? 
मेरी आँखों में जो प्रश्न उभर आया, 
अपनी फहरती लटों के बीच से वह पलकें उठाये हुए 
उसे न नकारती हुई पर अपने उत्तर से मानो 
मुझे फिर से ललकारती हुई अपने में सिमटती हुई बोली- 
'देखो न, सागर बड़ा है, चौड़ा है, जहाँ तक दीठ जाती है, फैला है, 
मुझे घेरता है, धरता है, सहता है, धारता है, भरता है, 
लहरों से सहलाता है, दुलराता है, झुमाता-झुलाता है, 
और फिर भी निर्बन्ध मुक्त रखता है, मुक्त करता है 
मुक्त, मुक्त, मुक्त करता है।

डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी की मान्यता है कि- "व्यक्ति और समाज की टकराहट से जो व्यक्तित्व बनता है, वह समाज का आलोचक हो सकता है, विरोधी नहीं।" प्रस्तुत कथन अज्ञेय के व्यष्टि-समष्टि-बोध की सटीक व्याख्या करता है। अज्ञेय व्यक्ति के पक्षधर हैं किन्तु समाज के विरोधी नहीं हैं। समाज में जहाँ भी उन्हें विकृति दिखाई देती है, उसे अपनी कवित्व शक्ति से दूर करने का प्रयास करते हैं। ज्ञान-गंगा से पवित्र करने का यत्न करते हैं।
 
व्यष्टि और समष्टि का अन्तःसम्बन्ध है। यह सम्बन्ध द्विपक्षीय है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। अज्ञेय के यहाँ व्यष्टि में आत्माभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ है। यह आत्माभिमान आलोचकों को खटकता है। निष्कर्षत: अज्ञेय की व्यष्टि और समष्टि-चेतना को समझने के लिए पं० विद्यानिवास मिश्र के कथन को उद्धृत किया जा सकता है- “वे विरोध वस्तुत: संघर्ष और असंघर्ष में देखते हैं। 'मैं' और 'हम' में नहीं, 'मैं' और 'हम' की एकता और अनेकता में देखते हैं। अज्ञेय की दृष्टि में व्यष्टि का अभिमान विश्वजन की अर्चना में बाधक नहीं साधक है।"

इस प्रकार, अज्ञेय के काव्य में व्यक्तिवादी चेतना एक गहन और बहुआयामी अवधारणा के रूप में उभरती है। यह चेतना व्यक्ति के अस्तित्व, स्वतंत्रता, आत्मबोध और सृजनशीलता से जुड़ी हुई है और उसे एक नए दृष्टिकोण और नए मूल्यों की ओर ले जाती है। अज्ञेय के काव्य में व्यक्तिवादी चेतना न केवल एक साहित्यिक प्रवृत्ति है, बल्कि यह जीवन के प्रति एक दार्शनिक दृष्टिकोण भी है।

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