मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय चेतना भावना

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मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय चेतना भावना मैथिलीशरण गुप्त को आधुनिक युग के प्रमुख राष्ट्रकवि माना जाता है। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना का

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय चेतना भावना


मैथिलीशरण गुप्त को आधुनिक युग के प्रमुख राष्ट्रकवि माना जाता है। उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना का भाव गहराई से व्याप्त है। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति, इतिहास और राष्ट्रीय एकता को जीवंत किया है।

गुप्तजी ने ईसा की बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही भारत-भारती के मन्दिर में अपने काव्य-सुमन चढ़ाने आरम्भ कर दिये थे और वे अर्ध-शताब्दी से भी अधिक समय तक अनवरत रूप से भगवती वीणापाणि की पूजा-अर्चना में संलग्न रहे। इसी कारण गुप्तजी ने जीवन और जगत् की नाना परिवर्तित गतिविधियों का भली-भाँति अवलोकन करने के साथ-साथ साहित्यिक क्षेत्र में होने वाले विविध परिवर्तनों का भी बड़ी तत्परता से अध्ययन एवं अनुशीलन किया था। फलतः उन्होंने विभिन्न युगों से आवश्यक सामग्री का संचय कर उसका समुचित उपयोग करते हुए अपने काव्य की युगानुकूल सृष्टि की।
 
मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय चेतना भावना
गुप्तजी जागरूक प्रहरी की भाँति प्रत्येक नूतन परिवर्तन की ओर दृष्टिपात करते हुए अपने काव्य में अवसरानुकूल नूतनता का समावेश करते रहे और इस प्रकार समय की माँग के अनुसार अपने साहित्य द्वारा राष्ट्र के सर्वाङ्गीण विकास में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे । इसी कारण उनके काव्य में आधुनिक युग का इतिहास अंकित है, आधुनिक युग की रीति-नीति टंकित है और आधुनिक युग की प्रगति का क्रमिक विकास झंकृत है। सच पूछा जाए तो गुप्तजी का साहित्य आधुनिक युग का जीता-जागता चित्र है, जिसमें हमारे सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक जीवन की गतिविधियाँ सन्निहित हैं और इसी कारण वह युगानुकूलता में अन्य सभी साहित्यकारों की साहित्य-सृष्टि से बढ़ा-चढ़ा है।
 
सन् १९०९ ई० में उनका 'रंग में भंग' नामक एक छोटा-सा प्रबन्धकाव्य प्रकाशित हुआ, जिसमें चित्तौड़ और बूँदी के राजघरानों से सम्बन्धित राजपूती आन की एक कथा वर्णित थी। तब से लेकर जीवन के अन्तिम क्षण तक वे निरन्तर आगे की ओर ही बढ़ते गये, उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हिन्दू-गौरव-गान से लेकर सिख गुरुओं के बलिदान, इस्लाम की प्रेरणाप्रद शिक्षाएँ, ईसा की आत्माहुति—सभी विषयों पर लिखकर उन्होंने अपनी दृष्टि के विस्तार का सम्यक् परिचय दिया।
 
इन सभी में गुप्तजी की उदात्त भावना के दर्शन होते हैं। इस उदात्त भावना में सर्वोपरि थी - राष्ट्रीयता और स्वातन्त्र्य-प्रेम की भावना, जिसने कवि की लेखनी से अनेक रूपों में मुखर हो युग-चेतना को जाग्रत किया ।मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय चेतना को निम्नलिखित रूप मे देखा जा सकता है - 

समाज सुधार

गुप्तजी ने तत्कालीन जीर्ण-शीर्ण भारतीय समाज-व्यवस्था के उद्धार का प्रयत्न किया और उसमें फैली छुआछूत, साम्प्रदायिकता आदि की भावनाओं को त्यागकर राष्ट्रहित में एकजुट होकर रहने का सन्देश दिया और दुनिया को यह बता दिया कि हम सब एक हैं- एक अतुल हम सबका मूल, हमको भिन्न समझना भूल ।
 

स्वदेश प्रेम

गुप्तजी ने भारतीय भूमि में उस परमपिता परमेश्वर के साक्षात् दर्शन किये हैं। एक सच्चे देशभक्त के लिए अपनी मातृभूमि से बढ़कर और क्या हो सकता है, इसलिए उसकी जय-जयकार में उन्हें असीम आनन्द की अनुभूति होती है - जय-जय भारत भूमि भवानी।
 

लोकतन्त्र और गाँधीवाद का समर्थन

गुप्तजी वास्तविक शासन-सत्ता जनता के हाथों में मानते हैं और राजा को उसका प्रतिनिधि । इस प्रकार वे लोकतन्त्र के सच्चे समर्थक हैं। राजा प्रजा का पात्र है, वह एक प्रतिनिधिमात्र है। गुप्तजी ने गाँधी के सत्य-अहिंसा के सिद्धान्तों का समर्थन किया है। साथ ही उनके मूल सिद्धान्त 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं" में उन्होंने अपनी आस्था व्यक्त की है -

पापी का उपकार करो, हाँ पापों का प्रतिकार करो। 
किन्तु विरोधी से भी अपने, करुणा करो, न क्रोध करो ॥
 

नारी चेतना के पक्षधर

गुप्तजी ने नारी समाज को समाज का महत्त्वपूर्ण अंग माना है। उन्होंने अपने काव्य में भारतीय नारी-जीवन के आदर्श,उसकी त्याग-भावना और करुणा को बड़े ही सरल एवं सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने समाज में नारी की श्रेष्ठता प्रतिष्ठापित की है। नारी की गुरुता सिद्ध करने में उनका शब्द- कौशल सराहनीय हैं- एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी। गुप्तजी ने भारत के अतीत का वर्णन करके प्रत्येक पहलू पर प्रकाश डाला है। उन्होंने नारी समाज, ब्राह्मण समाज, युवक समाज का सचित्र वर्णन किया है।
 

उदारता और कर्त्तव्यपरायणता पर बल

गुप्तजी ने सभी मतों व सम्प्रदायों को अपने संकुचित दृष्टिकोण छोड़ने व उदार भाव अपनाने पर बल दिया। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य-पालन में तत्पर रहने का भी उपदेश दिया है। साथ ही अधिकारों के प्रति उदासीन रहने पर चिन्ता प्रकट की -
  
अधिकार खोकर बैठे रहना, यह महादुष्कर्म है। 
न्यायार्थ अपने बंधु को भी दण्ड देना धर्म है ।
 
इस प्रकार गुप्तजी समय के साथ निरन्तर कन्धे से कन्धा मिलाकर चलते रहे। उनकी बढ़ती हुई आयु का उनके कलाकार पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़ा और वे चिर-युवा नूतन बने रहे। इसी कारण 'राष्ट्रकवि' का पद सच्चे अर्थों में जैसा उन पर फबा वैसा किसी अन्य कवि पर नहीं; क्योंकि वे वास्तविक अर्थों में राष्ट्र की उत्तरोत्तर विकासशील चेतना के प्रतीक थे । 

मैथिलीशरण गुप्त एक ऐसे कवि थे जिन्होंने अपने काव्य के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और हमें राष्ट्रीय एकता और संस्कृति के प्रति जागरूक रहने के लिए प्रेरित करती हैं।

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