रीति सिद्धान्त के अन्तर्गत गुण और अलंकार की स्थिति

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रीति सिद्धान्त के अन्तर्गत गुण और अलंकार की स्थिति रीति सिद्धांत में गुण और अलंकार रचना के दो महत्वपूर्ण स्तंभ हैं गुण रचना की आत्मा हैं जबकि अलंकार

रीति सिद्धान्त के अन्तर्गत गुण और अलंकार की स्थिति


रीति सिद्धांत में गुण और अलंकार रचना के दो महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। गुण रचना की आत्मा हैं, जबकि अलंकार उसका सौंदर्य। रचना में इनका उचित प्रयोग रचना को प्रभावशाली और रसपूर्ण बनाता है।रीति सिद्धांत, रसवादी आचार्यों द्वारा विकसित, काव्य-शास्त्र का एक महत्वपूर्ण विद्यालय है। यह रचना के आधार पर रीति को काव्य की आत्मा मानता है।

भावाभिव्यक्ति के अनेक रूप हैं। साहित्यकार अपने मनोगत भावों को प्रकट करने के लिए विभिन्न मार्गों अथवा पद्धतियों (शैलियों) का अवलम्बन लेता है। इन विभिन्न मार्गों या पद्धतियों (शैलियों) को ही रीति की संज्ञा दी जाती है। पण्डित बलदेव उपाध्याय के शब्दों में- “लेखक अपनी रुचि तथा स्वभाव के अनुसार अपने हृदय के भावों को एक विचित्र प्रकार से प्रकट किया करता है। इसी विशिष्ट लिखने के ढंग को 'शैली' या 'रीति' के नाम से पुकारते हैं।' 

रीति की परिभाषा

रीति शब्द की व्युत्पत्ति 'रीड्' धातु में ऋन् प्रत्यय के योग से हुई है, जिसका आशय है-मार्ग, गति, चलत, पन्थ, वीथि आदि। महाराज भोज ने 'सरस्वती कण्ठाभरण' में रीति की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार लिखा है । वामन से पूर्व रीति के स्थान पर मार्ग शब्द प्रचलित था। वर्तमान हिन्दी में इसके लिए शैली शब्द प्रयुक्त होता है।
 
रीति के क्षेत्र में आचार्य वामन का महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने सर्वप्रथम 'काव्यात्मा' पर विचार करते हुये रीति की परिभाषा दी और रीति को काव्य की आत्मा कहा है। उन्होंने कहा - विशिष्ट पदों की रचना ही रीति है-“विशिष्टा पद रचना रीतिः।' और यही काव्य की आत्मा है—'रीतिरात्मा काव्यस्य ।' डॉ. सुधाकर कलवडे (साहित्य शास्त्रपरिचय) लिखते हैं- “पदों की विशिष्ट रचना या संघटन का नाम रीति है।” यह रचना माधुर्य आदि गुणों से युक्त होती है। रीति की उपमा मानव शरीर में अंगों के संगठन के साथ दी जाती है। मनुष्य के शरीर में अंगों का परस्पर अनुकूल संघटन है, यदि वे अपने स्थान से च्युत हो जायें तो शरीर कुरूप मालूम पड़ेगा। पदों के संघटन का वही अर्थ है। पदों को अपने-अपने स्थानों पर रखने से कविता में चमत्कार आता है और एक विशिष्ट आनन्द उत्पन्न होता है। विशिष्टता से तात्पर्य-गुणों की सत्ता अर्थात् पदों की रचना में गुणों का निवारण ।
 

रीति में गुण और अलंकार की स्थिति

रीति सिद्धान्त के अन्तर्गत गुण और अलंकार की स्थिति
आचार्य वामन ने रीति पर विचार करते हुए बताया कि पदों की विशिष्ट रचना का नाम रीति है। रचना में गुणों की उपस्थिति से ही रीति का प्रादुर्भाव होता है। अतः रीति गुणों पर आश्रित है। इसीलिए रीति सिद्धान्त को 'गुण सिद्धान्त' के नाम से भी जानते हैं। विशेषोगुणात्मा कहकर वामन ने गुणों को महत्व दिया और बताया कि गुण काव्य के शोभाकारक धर्म हैं। आचार्य वामन ने कहा कि गुण शब्द और अर्थ दोनों में होते हैं। शब्द वाले गुणों की 'शब्दगुण' और सार्थक गुणों को 'अर्थगुण' कहा जा सकता है। अतः वामन ने शब्द व गुणों की रमणीयता की ओर संकेत किया है। गुणों के साथ-साथ वामन ने अलंकारों का महत्व भी बताया है। उन्होंने कहा कि गुण काव्य के शोभाकारक धर्म हैं तो अलंकार उसकी शोभा के वर्द्धक के लिए हैं। यहाँ वामन ने गुण व अलंकारों अन्तर स्पष्ट किया कि काव्य की शोभा बढ़ाने वाले गुण हैं तो गुणों की अतिशयता प्रतिपादित करने अलंकार हैं।

आचार्य वामन ने गुणों की स्थिति नित्य मानी है और अलंकारों की अनित्य । गुण काव्य के धर्म हैं, जो काव्य के आन्तरिक सौन्दर्य को बढ़ाते हैं तथा अलंकार बाह्य धर्म है, जो काव्य की शोभा में वृद्धि करते हैं। काव्य के गुणों का प्रयोग रस को ध्यान में रखकर किया जाता है। जैसे कोमल भाव वाले रसों—श्रृंगार, शान्त आदि में मधुर शब्दों का प्रयोग और उम्र भाव वाले रसों-वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स आदि में कठोर शब्दों का प्रयोग होता है। प्रत्येक रचना में प्रसाद गुण का होना आवश्यक है ही। इस दृष्टि से तीन गुण माधुर्य, ओज और प्रसाद दिखाई देते हैं।
 
आचार्य वामन ने भरतमुनि द्वारा निर्धारित दस गुणों को दुगुना करके उन्हें दो वर्गों में रखा - (1) दस अर्थ गुण, (2) दस अर्थ गुण। उन्होंने दस गुण इस प्रकार माने—श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज, पदसौकुमार्य, अर्थ-व्यक्ति, उदारता और कान्ति । आचार्य वामन द्वारा बताये गये ये गुण आगे अनुमत नहीं हो सके। डॉ. सत्यदेव चौधरी ने स्पष्ट कहा – “किसी भी पद्य में बीस गुणों का संयोग अपने आप में असम्भव परिकल्पना है।” अतः आचार्य भामह द्वारा प्रस्तुत किये गये तीन गुण - प्रसाद, माधुर्य और ओज ही मान्य रहे। 

आचार्य वामन ने तीन रीतियों वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली का उल्लेख किया है। इन रीतियों का नामकरण देशों के आधार पर किया गया है। इसका आशय यह नहीं कि ये रीतियाँ उन देशों में उत्पन्न हुई, वरन् उन देशों की तत्कालीन कविता में ये रीतियाँ अधिक मात्रा में पायी जाती हैं। गुण और रीतियों का पारस्परिक सम्बन्ध इस प्रकार है- 
  • वैदर्भी रीति - इसमें सभी गुण पाये जाते हैं। रुद्रट के अनुसार यह सुकुमार और कोमल गुणों से युक्त होने के कारण श्रृंगार, करुणा, प्रेयसु आदि रसों के लिये विशेष रूप से उपयुक्त है।
  • गौड़ी रीति - इसमें मुख्यतः दो गुण ओज और कान्ति मिलते हैं। इसमें उग्र पदों और समास का आधिक्य होता है। इसलिये यह रौद्र, वीर, भयानक आदि रसों के लिए उपयुक्त होती है। 
  • पांचाली रीति - इसमें मुख्यतः प्रसाद गुण होता है। 
इस रीति की रचना सर्वाधिक सरल होती है जो सरलता से समझ में आ जाती है। इस प्रकार आचार्य वामन ने रीति का विवेचन करते हुए गुण और अलंकारों को पर्याप्त महत्व दिया है। संक्षेप में उनके विचारों का सार इस प्रकार है- “काव्य की रचना गुणों और अलंकारों से परिष्कृत और सज्जित होनी चाहिए क्योंकि इन्हीं दोनों तत्वों के सुचारु प्रयोग से काव्य में सौन्दर्य को उत्पन्न करने और बढ़ाने वाली रचना प्रक्रिया अर्थात् रीति ही काव्य की आत्मा होती है और ऐसा काव्य प्रीति और कीर्ति का हेतु होने के कारण दृष्ट और अदृष्ट फल देने वाला होता है । 

रीति को काव्य की आत्मा नहीं माना जा सकता क्योंकि रीति माध्य न होकर साधन मात्र है। यह काव्य की अभिव्यंजना शक्ति है। अनुभूति मात्र से काव्य का अस्तित्व सम्भव नहीं। रीति का अनुभूति पक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं है, वह काव्य का शरीर मात्र है। अतः रीति को काव्य की आत्मा नहीं माना जा सकता । 

निष्कर्ष - इस प्रकार रीति सम्प्रदाय की दृष्टि से आचार्य वामन का महत्वपूर्ण स्थान है। रीति के स्थान पर काव्यात्मा का प्रश्न प्रस्तुत करके उन्होंने एक नवीन सूत्र को जन्म दिया। आचार्य वामन सौन्दर्यवादी समीक्षक थे। इसलिये उन्होंने सौन्दर्य को काव्य का मुख्य आधार माना और रीति, गुण, अलंकार आदि के माध्यम से सौन्दर्य को अभिव्यक्ति की ओर ही संकेत किया। उन्होंने रीति के साथ-साथ गुण और अलंकारों के महत्व पर भी प्रकाश डाला। वस्तुतः आचार्य वामन अलंकारवाद से बहुत अधिक प्रभावित थे, इसलिये वे अलंकारों का मोह छोड़ नहीं सके। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि आचार्य वामन ने रस को उचित महत्व नहीं दिया। कान्ति गुण के अन्तर्गत रस को महत्व दिया गया है, जो गौड़ी रीति का एक विशेष गुण है। रस को उचित महत्व न देने के कारण रीति सम्प्रदाय अपने में अपूर्ण है। फिर भी रीति की दृष्टि से आचार्य वामन ने इस दिशा में जो प्रयास किया, सराहनीय है।

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