खड़ी बोली और अवधी का क्षेत्र व्याकरणगत प्रमुख विशेषताएँ

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खड़ी बोली और अवधी का क्षेत्र व्याकरणगत प्रमुख विशेषताएँ खड़ी बोली और अवधी दोनों ही हिंदी भाषा की बोलियाँ हैं, लेकिन इनमें कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। खड़

खड़ी बोली और अवधी का क्षेत्र व्याकरणगत प्रमुख विशेषताएँ


ड़ी बोली और अवधी दोनों ही हिंदी भाषा की बोलियाँ हैं, लेकिन इनमें कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। खड़ी बोली अधिक मानकीकृत और शहरी है, जबकि अवधी ग्रामीण और अधिक स्थानीय है। खड़ी बोली में संस्कृत का प्रभाव अधिक है, जबकि अवधी में अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है।

खड़ी बोली
'खड़ी बोली' आज राष्ट्र-भाषा है। साहित्य और व्यवहार के क्षेत्र में उसका सर्वत्र बोल-बाला है। सामान्य अर्थ में उसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। हिन्दुस्तानी उर्दू हिन्दी शब्दों को भी खड़ी बोली के अर्थ में ही प्रयुक्त कर देते हैं। मूल अर्थ मे खड़ी बोली उस बोली को कहते हैं जो रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून, अम्बाला तथा कलसिया एवं पटियाला के पूर्वी भागों में बोली जाती है।
 
खड़ी बोली और अवधी का क्षेत्र व्याकरणगत प्रमुख विशेषताएँ
खड़ी बोली में संस्कृत के तत्सम शब्दों का बाहुल्य रहता है। इसमें अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग खुलकर होता है, परन्तु वे शब्द प्रायः अर्द्ध तत्सम या तद्भव होते हैं। खड़ी बोली की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से मानी गई है। इसके ऊपर पंजाबी का भी कुछ प्रभाव है।
 
यह खड़ी बोली ही हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी तीनों का मूलाधार है। खड़ी बोली शुद्ध रूप में हिन्दी की एक बोली मात्र है। वह जब साहित्यिक रूप धारण कर लेती है, तब वह कभी हिन्दी कहलाती है और कभी उर्दू । जिस खड़ी बोली में संस्कृत के तत्सम और अर्द्ध-तत्सम शब्दों का व्यवहार होता है, वह हिन्दी या उच्च हिन्दी कही जाती है। इसी उच्च हिन्दी में वर्तमान युग का साहित्य निर्मित हो रहा है। खड़ी बोली का यही साहित्यिक रूप हिन्दी के नाम से राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर प्रतिष्ठित है।
 
जब यही खड़ी बोली फारसी-अरबी के तत्सम और अर्द्ध-तत्सम शब्दों को इतना अपना लेती है कि कभी-कभी इसका वाक्य-रचना पर भी कुछ विदेशी रंग चढ़ जाता है, इसे उर्दू कहते हैं।
 
खड़ी बोली का एक तीसरा रूप भी है, वह है हिन्दुस्तानी । उसको न तो शुद्ध साहित्यिक भाषा ही कह सकते हैं और न ठेठ बोलचाल की बोली ही कह सकते हैं। डॉ० उदयनारायण तिवारी के शब्दों में “पुरानी हिन्दी-उर्दू और अंग्रेजी के मिश्रण से जो नई जबान आपसे आप बन गई है, वह हिन्दुस्तानी के नाम से मशहूर है ।"
 
निष्कर्ष- रेखती खड़ी बोली का पूर्व रूप है। दक्खिनी उत्तर भारत और दक्षिण भारत की सम्पर्क भाषा के रूप में व्यवहृत हिन्दी का नाम था। दक्षिण की किसी बोली के साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। यही हिन्दू, उर्दू और हिन्दुस्तानी तीनों का मूलाधार है।

"भाषा - विज्ञान की दृष्टि से हिन्दी और उर्दू खड़ी बोली के दो साहित्यिक रूप मात्र हैं। एक का स्वरूप भारतीय परम्परागत प्राप्त है और दूसरी का विकास फारसी के आधार पर हुआ है। डॉ० उदयनारायण तिवारी का यह कथन द्रष्टव्य है कि, “आज नागरी हिन्दी देश की राष्ट्र-भाषा घोषित हो चुकी है। उसकी अपनी निश्चित शैली है। उर्दू को समन्वय की दृष्टि से धीरे-धीरे उसी ओर अग्रसर होना चाहिए। इस समन्वय की दो आधार शिलाएँ हैं- (i) नागरी लिपि और (ii) राष्ट्रीय भावना। इन्हीं दो बातों के द्वारा हिन्दी और उर्दू का समन्वय सम्भव हो सकेगा।
 

अवधी की सीमा और क्षेत्र 

पूर्वी हिन्दी के उत्तर में पहाड़ी भाषाएँ विशेषतया नेपाली बोली जाती हैं। इससे पश्चिम में पश्चिमी हिन्दी की दो बोलियाँ कन्नौजी तथा बुन्देलखण्डी स्थित हैं। इसके पूरब में पश्चिमी भोजपुरी तथा नागपुरिया बोलियाँ बोली जाती हैं। इसकी दक्षिणी सीमा पर मराठी बोली जाती है।

पूर्वी तथा पश्चिमी हिन्दी में जो तात्विक अन्तर है, वह अन्यत्र दिया जा चुका है। यहाँ उसकी तीन बोलियाँ अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी का विवरण उपस्थित है। 

अवधी-पूर्वी हिन्दी की सबसे महत्वपूर्ण बोली अवधी है। इसके नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि यह केवल अवध की बोली है। किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है एक ओर यह हरदोई, खीरी तथा फैजाबाद के कुछ भाग में नहीं बोली जाती है तो दूसरी ओर वह अवध के बाहर फतेहपुर, इलाहाबाद, केराकत तहसील छोड़कर जौनपुर तथा मिर्जापुर के पश्चिमी भाग में बोली जाती है। इसके अन्य नाम पूर्वी तथा कोसली भी हैं : पूर्वी से वास्तव में पूरब की बोली से तात्पर्य है। कभी-कभी अवधी भोजपुरी, दोनों को पूर्वी बोलियों के नाम से अभिहित किया जाता है किन्तु वास्तव में पूर्वी शब्द पूर्वी हिन्दी के लिए प्रयुक्त होता है। कोसली से कोसल राज्य की भाषा से तात्पर्य है । और यदि इस प्राचीन नाम को स्वीकार कर लिया जाए तो छत्तीसगढ़ी भाषा भी इसके अन्तर्गत आ जाएगी। किन्तु इधर तुलसीकृत रामचरितमानस के कारण अवध शब्द इतना अधिक प्रचलित हो गया है कि इस प्रदेश की बोली के लिए अवधी नाम सर्वथा उपयुक्त है। अवधी के स्थान पर कभी-कभी बैसवाड़ी व्यवहृत होती है। किन्तु यह तो अवधी के अन्तर्गत एक सीमित क्षेत्र की बोली है। वास्तव में बैस राजपूतों की प्रधानता के कारण उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली तथा फतेहपुर के कुछ भाग को बैसवाड़ी कहते हैं और बैसवाड़ी इसी क्षेत्र की बोली है।
 
बैसवाड़ी अवधी की अपेक्षा कर्णकटु बोली है। इसमें ए का उच्चारण य, ओ का उच्चारण व् एवं ए के उच्चारण या तथा ओ के उच्चारण वा में परिणित हो जाते हैं।
 

अवधी की विशेषताएँ

जैसा कि अन्यत्र कहा जा चुका है। अवधी का क्षेत्र पश्चिमी हिन्दी तथा बिहारी के बीच में है। संज्ञापद के तीन रूपों-लघु (हस्व), दीर्घ तथा दीर्घतर में से पश्चिमी हिन्दी (खड़ी बोली) में आकारान्त दीर्घ घोड़ तथा अवधी एवं बिहारी में घोड, घोड़ा, घोड़वा रूप मिलते हैं। प्रयाग की अवधी में एक और अतिरिक्त रूप घोड़नी भी मिलता है। किन्तु बिहारी में इसका अभाव है। संज्ञा तथा विशेषण के लिंग के सम्बन्ध में पश्चिमी हिन्दी में कई नियम हैं, अवधी के नियम ढीले हैं तथा बिहारी एक प्रकार से इन नियमों से मुक्त है ।
 
व्यंजनान्त संज्ञापदों के कर्ता एक वचन के रूपों में अवधी में 'उ' लगता हैं, यथा-धरु-मनु, बनु आदि । पश्चिमी हिन्दी, विशेषतया खड़ीबोली अथवा हिन्दुस्तानी में इस 'उ' का अभाव है। यथा-घट् मन् बन् आदि इस प्रकार अवधी को कतिपय बोलियों में कर्त्ताकारक बहुवचन का रूप 'ऐ' लगाने से बनता है। 

अनुसर्गी के सम्बन्ध में अवधी तथा पश्चिमी हिन्दी में सबसे बड़ा उल्लेखनीय अन्तर यह है कि इसमें कर्ताकारक में अनुसर्ग 'ने' का अभाव है। इस विषय में अवधी तथा बिहारी में पूर्ण साम्य है। नाम-सम्प्रदाय का अनुसर्ग अवधी में 'का' के में 'मा' तथा पश्चिमी हिन्दी एवं बिहारी में 'मैं' है। सर्वनामों के सम्बन्ध में अवधी में और विभिन्नता है। अवधी का सम्बन्ध कारक का सर्वनाम तोर, मोर पश्चिमी हिन्दी में तेरा, मेरा हो जाता है। इसी प्रकार हमार हो जाता का तियक् रूप हमारे हो जाता है किन्तु बिहारी में थे जे के में परिणित हो जाते हैं।
 
वर्तमानकाल की सहायक क्रिया के रूप पश्चिमी हिन्दी में 'है' आदि अवधी में ऊहैं बाटू, बाढै तथा बिहारी में कादै, एवं आठै मिलता है। अवधी के अतीतकाल के घटमान के रूप में कोई प्रत्यय नहीं लगता 'केवल पश्चिमी अवधी में 'इ' प्रत्यय लगता है। किन्तु पश्चिमी हिन्दी आ यथा- जाता, खाता। अथवा 'उ' (प्रथा-जातु, खातु) प्रत्यय लगते हैं। पश्चिमी - हिन्दी के अतीतकाल में कोई प्रत्यय लगत है तथा कहिसि, काहेसू आदि । पश्चिमी हिन्दी भविष्यत् में केवल ही रूप व्यवहृत होते हैं। किन्तु अवधी में ह तथा व दोनों रूप प्रयुक्त होते हैं। 

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