अज्ञेय का व्यक्तित्व बहुआयामी था

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अज्ञेय का व्यक्तित्व बहुआयामी था अज्ञेय, यानी सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन, हिंदी साहित्य के एक ऐसे बहुमुखी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व थे, जिनका व्यक्ति

अज्ञेय का व्यक्तित्व बहुआयामी था


ज्ञेय, यानी सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन, हिंदी साहित्य के एक ऐसे बहुमुखी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व थे, जिनका व्यक्तित्व अनेक आयामों से समृद्ध था।अज्ञेय का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उनके व्यक्तित्व को उद्घाटित करनेवाली जो विशेषताएँ हैं, वे हैं- उनकी निरन्तर कर्मशीलता, उदात्तता और आत्मदीप्ति, उनका मितभाषी, मौनआग्रही एवं एकान्त-प्रिय होना, उनके द्वारा नवसृजेता की सर्जना-संवर्द्धना, उनकी यायावरवृत्ति, उनकी रहनी-सहनीः संयम सन्तुलन और उनका बहिरंग भव्य रूप ।
 
मनोहरश्याम जोशी का कहना है कि “संसार का कौन-सा विषय है जिस पर अज्ञेय अधिकार से बात नहीं कर सकते थे, यह मेरी समझ में नहीं आया। ज्ञान की इतनी विविधता, व्यापकता और गहराई मैंने अन्यत्र नहीं देखी ।" सर्वेश्वरदयाल सक्सेना को प्रेषित एक प्रत्युत्तर में अज्ञेय जी का यह आत्मप्रकाशन इस विषय पर स्वयं प्रकाश डालता है कि “मैं जानता हूँ कि मैं एक साधारण हिन्दी या भारतीय लेखक से अधिक परिश्रम करता हूँ, अधिक समय पढ़ने-लिखने में बिताता हूँ, अधिक समय आत्म-प्रशिक्षण में जिसमें केवल मन का प्रशिक्षण नहीं, ज्ञानेन्द्रियों का और हाथों का प्रशिक्षण भी शामिल है। मैं कपड़े सी लेता सूत कात लेता हूँ, जूते गाँठ लेता हूँ, फर्नीचर जोड़ लेता हूँ, मिठाई-पक्वान्न बना लेता हूँ, ज़िल्द-बन्दी कर लेता हूँ। पंखे, साइकल, मोटर, बिजली के छोटे-मोटे यन्त्र- इनकी सफाई और थोड़ी-बहुत मरम्मत कर लेता हूँ। विलायती ढंग के बाल काट सकता हूँ, चाभियाँ खो जायें तो ताले खोल दे सकता हूँ, मामूली कढ़ाई कर लेता हूँ, साँचे तैयार कर मूर्तियाँ बना लेता हूँ, प्रूफ देख लेता हूँ, कम्पोज कर लेता हूँ, प्रेस की मशीन चला लेता हूँ, फोटो खींचता फिल्म और प्रिन्ट डेवलप कर लेता हूँ, हाथ से रँग लेता हूँ, सीमेंट के गमले बना लेता फूलों की और तरकारी की खेती कर लेता हूँ, फावड़ा, कुल्हाड़ी, गैंती चला लेता हूँ, निराई कर लेता हूँ, बन्दूक-पिस्तौल चला लेता हूँ, तैर लेता हूँ, पहाड़ चढ़ लेता हूँ, क्रिकेट, टेनिस, बैडमिण्टन खेल लेता हूँ। और इन सब में केवल शौक रखता हूँ, ऐसा नहीं है, अधिकांश में से किसी के भी सहारे आजीविका कमा ले सकता हूँ और जो नहीं जानता वह सीखने को हमेशा तैयार रहता हूँ। ऐसी दशा में हल्की गप्पबाजी की अनुपस्थिति में अपने को वंचित या मोहताज न अनुभव करूँ तो अपने को दोषी नहीं मानता, और जो लोग लिख-लिख कर गालियाँ देते हैं, उनकी गालियों से उतना न तिलमिलाऊँ जितना वे चाहते हैं तो उन्हें भी यह न समझना चाहिए कि उनकी गालियों में शक्ति कम थी- इतना ही कि वे निशाने पर लगी ही नहीं।” “कर्म में जुटता हूँ और सहज, धीर और अविचल प्रसन्न-भाव से कर्म करता जाता हूँ- न अनिश्चय, न थकान, न अनुताप बल्कि उसमें रस मिलता है।” अपनी कविता 'आज थका हिय-हारिल मेरा' में भी अज्ञेय जी यही स्वीकारते हैं :
 
'बैठो रहो, पुकारो - गाओ, 
मेरा वैसा धर्म नहीं है; 
मैं हारिल हूँ, बैठे रहना 
मेरे कुल का कर्म नहीं है।' 

अज्ञेय में आत्मास्था एवं आत्माशा कूट-कूट कर भरी थी। इस आत्मनिष्ठा के कारण ही वे सदैव अकुण्ठ रहे। घोरतम निराशा की स्थिति में भी उनका अखण्ड विश्वास अडिग रहता था। प्रस्तुत पंक्तियाँ इस बात की परिचायक हैं :

“मुझ-सरीखी अगिन-लीकों से मुझे यह सर्वथा है ध्यान। 
नयी, पक्की, सुगम और प्रशस्त बनती है युगों की राह ।"
 
अज्ञेय मितभाषी, मौन-आग्रही एवं एकान्तप्रिय स्वभाव के थे। 'वे बेहद चुप रहनेवाले व्यक्ति थे। अपनी पीड़ा को, अपने अनुताप को अपने भीतर पचा डालने की उनमें अकूत क्षमता थी। अपनी विह्वलता, अपनी उत्फुल्लता को अपने भीतर ही सँजो लेना उनके गहरे आत्मसंयम का सफल अभ्यास था।' स्वयं अज्ञेय के शब्दों में :
 
'मैं सभी ओर से खुला हूँ 
वन-सा, वन-सा अपने में बन्द हूँ शब्द में मेरी समाई नहीं होगी 
मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।'
 
अज्ञेय का व्यक्तित्व बहुआयामी था
अज्ञेय नये-से-नये रचनाकारों के जीवन्त सम्पर्क में आने की लगातार पूरी कोशिश करते रहे। 'तारसप्तक' से लेकर 'चौथासप्तक' तक के कवियों को उदाहरण के तौर पर पेश किया जा सकता है। ये 'सभी पहले बोधिसत्त्व ही थे, बुद्ध तो बाद में हुए हैं'।-सन् 1943 के वे प्रयोगी तो बहुत बाद में सन्दर्भ हुए हैं, 'पहले तो वे सभी किसी मंजिल पर पहुँचे हुए नहीं थे, राही थे- राही नहीं, राहों के अन्वेषी।' मनोहरश्याम जोशी, रघुवीर सहाय जैसे अनेक-अनेक लोगों को अज्ञेय ने अपने साथ रखकर उन्हें सजाया-सँवारा, कार्य-कुशल बनाया, प्रोत्साहित किया और अन्त में वें नामी-गिरामी साहित्यकार, पत्रकार और सम्पादक बने।
 
अज्ञेय अथक और अथिर यायावर थे। सारा जीवन पैरों में चक्र बाँधकर 'बहता पानी निर्मला' के सिद्धान्त पर चलते रहे, घूमते रहे- 'मैं हारिल हूँ, बैठे रहना मेरे कुल का कर्म नहीं है।' उनके बराबर देश-विदेश की सार्थक यात्रा करनेवाला व्यक्ति हिन्दी - जगत् में और कोई नहीं हुआ। प्रसिद्ध घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन और बाबा नागार्जुन भी पीछे हैं।
 
प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति एक संवेदनशील यायावर का आकर्षण तथा उस यायावर के प्रति प्रकृति का आकर्षण अज्ञेय की निम्नलिखित पंक्तियों में बिम्बित है :
 
“पार्श्व गिरि का : नम्र चीड़ों में/डगर चढ़ती उमंगों-सी बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा/विहग-शिशु मौन नीड़ों में मैंने आँख भर देखा/दिया मन को दिलासा- पुनः आऊँगा । (भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद ।)
 
क्षितिज ने पलक-सी खोली/तमक कर दामिनी बोली- 
अरे यायावर! रहेगा याद ?" 
सुनना 

मराठी के आधुनिक वरिष्ठतम कवि विंदा करंदीकर के अनुसार, “अज्ञेय को लेकर मेरे दिमाग में यही दो वाक्य जमकर बैठ गये हैं कि, 'टु सी हिम वॉज टु बी हैपी, एंड टु हीयर हिम वॉज टु बी रिफाइण्ड' ('यानी कि उन्हें देखना आनन्दानुभूति थी, और उन्हें खुद का परिष्कृत होना था ।) उस हिप्नॉटिक पर्सनालिटी से मिलकर मैं बहुत - बहुत खुश हुआ था। अज्ञेय का व्यक्तित्व ऐसा था कि वे किसी भी कोने-अंतरे बैठे हों पर चूँकि वे बैठे हैं इसलिए वही स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण लगने लगता था। विचित्र प्रभामण्डल बिखेरते थे वे अपने चारों ओर ।"
 
स्पष्ट ही अज्ञेय का शारीरिक सौन्दर्य बेहद आकर्षक एवं मनमोहक था। हिन्दी-साहित्य में अज्ञेय एक दबंग नाम रहा है। जितना विविधतापूर्ण, समकालीन, विचारप्रखर और सशक्त उनका लेखन था, उतना ही वैविध्यभरा और आवेगमय उनका जीवन था। वह अपनी शालीनता, मृदुता और मान तथा अतिशय गाम्भीर्य से एक भव्य, शान्त, संयत और सुदर्शन व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करते थे। 

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