नदी के द्वीप कविता अज्ञेय व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर

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नदी के द्वीप कविता अज्ञेय व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर


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नदी के द्वीप कविता की व्याख्या अर्थ


1. हम नदी के द्वीप हैं ....... उसकी गढ़ी हैं।

अर्थ – जैसे नदी द्वीप का निर्माण करती है, उसे आकार देती है, उसी प्रकार से समाज व्यक्ति को सँवारता है, सुधारता है। समाज से परे मानव-जीवन की कल्पना व्यर्थ है । अपने अस्तित्व के लिए व्यक्ति समाज पर पूर्णतः आश्रित है। जैसे द्वीप का अस्तित्व नदी से है और वही विविध रूपों में उसे आकार देती है, बनाती है, सँवारती और सुधारती है, उससे पृथक् होकर द्वीप सत्ताहीन हो जाता है, वैसे ही समाज या विराट मानव परिवार व्यक्ति को प्रभावित करता है, उसे गढ़ता है, सुधारता और -संवारता है। समाज से भिन्न मानव का कोई अस्तित्व नहीं है। मनुष्य मानव-परिवार का प्राणी है, उसका ऋणी है । अतः उसका कर्तव्य है कि वह स्वयं को समाज से जोड़कर रखे और अपनी रचनाशक्ति से समाज को समयोचित सौम्य परिवर्तन अभिनव संस्कार के रूप में प्रदान करे । व्यक्ति और समाज का यही संबंध-बोध विकास और प्रगति का मूल कारण है। 

2.माँ है वह! .....अनुपयोगी ही बनाएँगे।

अर्थ — द्वीप अपना परिचय देते हुए कहता है, हम नदी के द्वारा निर्मित द्वीप हैं, स्वयं धारा नहीं हैं। लहर के समान उठना, गिरना और बह जाना हमें नहीं आता । हमारी अपनी सीमा है, जिसका हमें पूरा बोध है। नदी के प्रति हमारा पूर्ण समर्पण है। हमारी यह आत्मीयता स्थिर और अटूट है। भावना में बहना हमारा धर्म नहीं है, 

क्योंकि बहनेवाला अंत में अपना व्यक्तित्व खो बैठता है। यदि एक बार वह गये तो फिर द्वीप नहीं, रेत बनकर रह जायेंगे। पैर उखड़ने पर बलप्लावन होगा और तक कुछ नष्ट हो जायगा। धारा बनना हमारे लिए कभी भी संभव नहीं है। अतः भूलकर भी हमें धारा बनने का स्वप्न नहीं ही देखना चाहिए। एक बार टूटने पर फिर आकार पाना कठिन है। रेत होने पर केवल बल ही तो गंदा होगा, वह किसी काम का नहीं रह जायेगा। ऐसी स्थिति में अपने रूप में स्थिर हमारा व्यक्तित्व ही उपयुक्त है। व्यक्ति के लिए योग्य और उचित यही है कि वह अपने को समाज के बीच बनाये रखे, संस्कार प्राप्त करे, अपना निर्माण करे, अपने कार्य से, अपनी क्रिया से समाज व्यक्ति समाज का ऋणी है। अतः समाज के प्रति स्पद्धों की भावना न रखकर श्रद्धा की भावना रखनी चाहिए और उसे सुन्दर बनाने का प्रयक करना चाहिए। 

3. द्वीप हैं हम! .... यदि ऐसा कभी हो .

अर्थ- हम मात्र द्वीप हैं, यह हमारे लिए कलंक और अभिशाप की बात नहीं है। हम सहर्ष इसे स्वीकारते हैं, इसे अपना सौभाग्य मानते हैं। सच तो यह है कि हम नदी के पुत्र है। नदी ने हमें जन्म दिया है और वही हमें गोद में लेकर. संवारती है। नदी बेसे एक दिन अपने में दिशा-परिवर्तन ले आकर द्वीप को बृहद् भू-खण्ड से जोड़ती है, वैसे ही समाज में उत्पन्न व्यक्ति एक दिन विराट मानव परिवार से जुड़ जाता है। विशाल मानव-परिवार ही व्यक्ति का पिता है, श्रद्धा-पात्र है। व्यक्ति समाज से संस्कार लेकर विराट मानव-परिवार से संयुक्त होता है और अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। 

4. तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के ..... मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।

अर्थ - नदी (समाज) का काम है निरंतर प्रवाहित (गतिशील) होना। तुम अपना काम करती रहो। सुव्यवसर पाकर बढ़ो और वहो। हमें जो दायवा मिला है, हम उसे देखेंगे। तुम्हारा काम परिष्कार करना है, संस्कार करना है। अपने आहाद में या प्रतिशोध में तुम बढ़ो। प्रख्य का रूप धारण करो । निर्मम रूप लेकर बो अनुपयोगी है, उसे मिटा दो। तुम्हारा यह रूप भी हमें स्वीकार होगा। हमारे मिटके की चिन्ता मत करो। हमें विश्वास है कि हमारा अस्तित्व शेष रहेगा और हम फिर सामने आएँगे। हमें तुम उदारता से पुनः स्वीकार करना, सँवारना और स्वस्थ रूप प्रदान करना। काल ज़ब समाज को मिटाता है तो व्यक्ति शेष रह जाता है, फिर समाज बनता है, सभ्यता और संस्कृति बनती है। यह परिवर्तन और रूपांतर चिरंतन है। व्यक्ति और समाज का संबंध शाश्वत है। 

नदी के द्वीप का केंद्रीय भाव / सारांश  nadi ke dweep hindi kavita summary

नदी के द्वीप अज्ञेय की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक कविता है।  कवि ने इसमें प्रतीकों का सफल और सार्थक प्रयोग किया है।  इसमें नदी तथा द्वीप दो महत्वपूर्ण शब्द प्रतीकों के केंद्र बिंदु है। नदी समाज का द्वीप व्यक्ति का तथा विश्व विस्तृत मानव परिवार का प्रतिक माना गया है।  जिस प्रकार परिवार में माता - पिता तथा संतान की इकाइयाँ  स्वीकृत हैं उसी प्रकार विराट मानव समाज के सन्दर्भ में समाज ,व्यक्ति तथा विश्व की इकाई आवश्यक है।  इस प्रकार इस कविता के माध्यम से अज्ञेय जी द्वीप तथा विस्तृत विश्व धरती का पारिवारिक सम्बन्ध दर्शाते हुए व्यक्ति ,समाज तथा विश्वमानव के परस्पर संबंधों को उजागर किया है। कवी स्वयं को नदी की धरा में उत्पन्न एक द्वीप मानता है। इस द्वीप का  अस्तित्व नदी की धारा पर निर्भर है। कवि मानता है कि समय की धारा ही मनुष्य रूपी द्वीप को बनती और मिटती  है।  अतः द्वीप को अपनी शक्ति तथा सीमा का बोध होना चाहिए।  जैसे व्यक्ति का समाज के प्रति समर्पण का भाव होता है उसी प्रकार द्वीप का नदी के प्रति।  जिस प्रकार द्वीप नदी का ऋणी है उसी प्रकार व्यक्ति समाज का।  अतः समाज के साथ समन्यव स्थापित करना उसका कर्त्तव्य है। द्वीप नदी का पुत्र है।  अतः उसकी गोद  में वह निश्चिंत पड़ा रहना चाहता है।  नदी के पार का भूखंड उसका पिता है।  नदी रूपी माता उसका संस्कार करती है।  यही स्थिति  व्यक्ति और समाज की है।  नदी के प्रलयकारी स्थिति में वह द्वीप का आकर ग्रहण करता है। उसका अटूट विश्वास है कि प्रवाहित होने के उपरांत भी छनकर वह स्वच्छ रूप धारण करता रहेगा।  द्वीप का नदी के प्रति  निवेदन है कि वह निरंतर प्रवाहित रहकर उसका परिष्कारे करती रहे।  वह कहता है कि नदी को उसके मिटने की चिंता नहीं करनी चाहिए।  उसका विश्वास है कि उसका अस्तित्व शेष रहेगा तथा उसी बचे अश्तित्व से वह पुन्ह नए द्वीप माँ रूप धारण करेगा।  नदी उसे निरंतर नया रूप देकर सजाती रहे ,संवारती रहे।  

नदी के द्वीप कविता का उद्देश्य

नदी के द्वीप कविता में कवि का स्पष्ट उद्देश्य निहित है। यह सृष्टि  परिवर्तनशील है। विनाश ही सृजन को जन्म देता है। एक वस्तु नष्ट होकर दूसरी वास्तु के निर्माण की भावभूमि प्रदान करती है।  प्रकृति कभी नहीं  चाहती  है कि वह एक रूप में बनी रहे।एक रूपता में सौंदर्य तथा रूचि का भाव नहीं रह जाता। नयी संस्कृति ,नवीन संस्कार आदि के लिए पुरानतन का विनाश तथा नवीनता का आग्रह आवश्यक है।  प्राचीनकाल की सभ्यता तथा उस समय की जातियों के भग्न अवशेषों पर ही नयी संस्कृति तथा सभ्यता पनपेगी। अतः विनष्ट होने वाली वस्तुओं में चिंता का कारण नहीं बनना चाहिए। उनका अस्तित्व अजर मार है। नए निर्माण में उन्ही तत्वों का सस्कार होता है। अतः समय के साथ कदम मिलकार चलते रहें से जीवन नया अर्थ तथा रूप स्वीकार कर सार्थकता को प्राप्त करता है।  जो इस परिवर्तन के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करता है उसका विनाश निश्चित है।  अतः परिवर्तन को युग की आवश्यकता मान कर उसका स्वागत करना कहहिये।  नदी द्वीव को जन्म देती है उसनका नया संस्कार करती है। उसको मिटाने में न नदी का हित है न द्वीप का। इसी प्रकार व्यक्ति तथा समाज का अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है ।  परिवर्तन से इसमें कोई गत्यवरोध नहीं आना चाहिए।  दोनों का अटूट सम्बन्ध है ,क्योंकि नदी द्वीप की माँ है. 


नदी के द्वीप कविता  की प्रतीकात्मता 

नदी के द्वीप अज्ञेय जी की प्रतीकात्मक  कविता है।द्वीप तथा नदी को रूपक देकर कवि स्वयं को नदी का धारा में बहने वाला द्वीप बताता है। नदी निरंतर प्रवाहित है।  उसमें द्वीप का अस्तित्व बनता मिटता रहता है।  द्वीपों की रचना नदी की इच्छा का परिणाम है। कालरूपी नदी का प्रबल द्वारा अपने बीच हमेशा दीपों को जोड़ती ,तोड़ती ,स्थापित अथवा विस्थापित करती आयी है। कवि रूपी नदी को अपनी माँ मानता है।हम जो कुछ है ,हमारा जो कुछ अस्तित्व है ,यह सब नदी द्वारा प्रदत्त है। हमारा आकार - प्रकार  सब उसी नदी हमारी माता की देन है।
 
द्वीप कहता है कि हम नदी के द्वारा निर्मित है। अतः हम स्वयं धारा नहीं है। हमें अपनी शक्ति और सीमा का पूर्ण ज्ञान है।  अपनी माँ नदी के प्रति मेरे मन में पूर्ण समर्पण भाव है। इसके प्रति हमारी आत्मीयता अविचल और अटूट है। किसी भावना के वशीभूत होकर प्रवाहित होना हमने नहीं सीखा है। प्रवाहित होने का अर्थ है कि हम द्वीप से रेत बन जाएगंगे।  द्वीप बनना हमारे लिए अभिशाप की बात नहीं ,अपितु भाग्य की बात है। वह नदी से जन्म पाता  है और उसी की गोद  निश्चित होकर रहता है। नदी के पारा का भूखंड उसका पिता है। भूखंड के अंश से नदी की धारा में पढ़कर रेत का रूप धारण कर द्वीप निर्माण के मूल कारण बनते हैं। द्वीप नदी रूपी माँ से कहता है कि वह निरंतर आगे बढ़ते चले। धरती से उत्तराधिकार के रूप में जो प्राप्त हुआ है ,वह आगे भी प्राप्त होता रहे तथा नदी माता उसका परिष्कार करती रहे ,उसे नवीन संस्कार देती रहे। नदी रूपी माँ का विध्वंसकारी रूप भी द्वीप को स्वीकार है। वह कहता है कि नदी की विध्वंशकारी स्थिति  में बहकर वह कण बन जाएगा ,उसका आकार समाप्त हो जाएगा परन्तु प्रवाहित होने के उपरांत छनकर पुनः स्वच्छ होगा और कालांतर में जम कर पुनः द्वीप का रूप ग्रहण करेगा।
  
कवि द्वीप के माध्यम से कहता है कि उसका अस्तित्व कालप्रवाह का परिणाम है। कालधारा में ही वह नष्ट होता है या उसका निर्माण होता है। बनना और मिटना युग धर्म होने के कारण अनिवार्य है। अतः इस परिवर्तन को स्वीकार करना चाहिए। परिवर्तन से आत्म विकास का मार्ग प्रसस्त होता है। प्रतिकूल परिस्थितियों भी आकार  यदि विनाश करना चाहे तो हमें इस विनाश से भयभीत नहीं होना चाहिए। क्योंकि विनाश नए निर्माण के मार्ग प्रसस्त करता है। इसी प्रकार समाज ने व्यक्ति को जन्म दिया है परन्तु व्यक्ति समाज से लिए अपना सम्पूर्ण अस्तित्व नहीं मिटाना चाहता है।  


नदी के द्वीप कविता अज्ञेय प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. नदी के द्वीप कविता की प्रतीकात्मकता स्पष्ट करते हुए इसके उद्देश्य पर प्रकाश डालिए । 

उत्तर- प्रयोगवादी और नयी कविता में व्यक्तिवादिता की अभिव्यक्ति अनेक रूपों में हुई है। इन रूपों में से सबसे प्राथमिक रूप तो समाज और व्यक्ति के द्वन्द्व में समाज के महत्व को स्वीकार करते हुए भी व्यक्ति की महत्ता को स्थापित करना है। 'नदी के द्वीप' कविता में अज्ञेय ने प्रतीकों का सफल प्रयोग किया है। नदी से समाज, द्वीप से व्यक्ति और विश्व से विराट मानव-परिवार को स्वीकार किया गया है। जिस प्रकार परिवार के प्रारूप के लिए माता-पिता और संतान की इकाइयाँ अपेक्षित होती हैं, उसी प्रकार समाज के संदर्भ में भी समाज, व्यक्ति और विराट विश्व का संबंध स्वीकृत है । कवि ने प्रस्तुत कविता में द्वीप और विराट धरती को पारिवारिक अंग- प्रत्यंगों के प्रतीक के रूप में स्वीकार कर व्यक्ति, समाज और विश्वव्यापी मानव- परिवार के परस्पर संबंध को स्पष्ट करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। नदी से समाज और द्वीप से व्यक्ति को प्रकट किया गया है। नदी के द्वीप के सदृश व्यक्ति समाज के भीतर तो रहता है; फिर भी उसका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी है। जैसे नदी द्वीप का निर्माण करती है, उसे आकार देती है, उसी प्रकार समाज व्यक्ति को सँवारता है. सुधारता है। समाज के परे मानव-जीवन की कल्पना निरर्थक है। अपने अस्तित्व के लिए व्यक्ति समाज पर पूर्णतः निर्भर है। जैसे द्वीप का अस्तित्व नदी से है और वही उसे विविध रूपों में आकार देती है, बनाती है, संवारती है तथा सुधारती है, वैसे ही समाज या विराट मानव-परिवार व्यक्ति का निर्माण करता है उसे गढ़ता है, सुधारता और संवारता है। समाज से बिलग मनुष्य के अस्तित्व की कल्पना असम्भव है। मानव समाज-निर्मित होने के कारण उसका ऋणी है। अतः उसका कर्तव्य है कि वह स्वयं को समाज से जोड़े रखे तथा अपनी सृजन शक्ति से समाज को कालप्रवाही परिवर्तन अभिनव संस्कार का स्वरूप प्रदान करता रहे।
 
द्वीप का नदी से विनम्र अनुरोध है कि वह निरंतर प्रवाहित रहे तथा अपना काम करती रहे और सुअवसर पाकर बढ़ती और बहती रहे । उसका काम परिष्कार. करना है, अभिनव संस्कार देना है। यदि वह अपने आह्लाद या प्रतिशोध में बढ़ती, हहराती, संहारकारिणी रौद्ररूपा धारा बन जाय तो उसे यह स्थिति भी स्वीकार है। नदी को उसके मिटने की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसे विश्वास है कि उसका अस्तित्व शेष रहेंगा और वह एक नये द्वीप का रूप धारण करेगा । उसे भी वह अपनी उदारता से पुनः स्वीकार करे, सँवारे, सजाये और स्वस्थस्वरूप प्रदान करे । द्वीप का विश्वास है कि नदी उसे बार-बार बिखरा कर नया बनायेगी उसे नवीन रूपाकृति और नवजीवन प्रदान करेगी ।
 
'नदी के द्वीप' शीर्षक कविता सोद्देश्य लिखी गई है। कवि का विश्वास है कि विनाश ही सृष्टि का कारण है। एक का अंत दूसरे के जीवन का कारण बनता है परिवर्तन ही प्रकृति का सनातन सत्य है, सृष्टि का आधार है क्योंकि प्रकृति को पुरातनता का निर्भीक या एकरूपता पसंद नहीं है। प्राचीनकाल की समृद्धिशाली तथा वैभवपूर्ण सभ्य जातियों के भग्नावशेषों पर ही भावी सभ्यता विकसित होती है समयोचित परिवर्तन के साथ कदम से कदम मिलाकर चलनेवाले मनुष्य का जीवन सार्थक कहा जाता है। यह वह समयोचित संस्कार है जो मनुष्य के व्यक्तित्व को निखारता है। अतः सामयिक परिवर्तन में गत्यावरोध उत्पन्न करनेवाला मरता है, मिटता है तथा नष्ट हो जाता है। अतः परिवर्तन को जीवन का उपयोगी अंग मान कर उसका स्वागत करना चाहिए और मानव-जीवन का मूल उद्देश्य भी यही होना चाहिए। कवि स्वीकार करता है कि द्वीप को जन्म नदी ने ही दिया है, उसी ने उसका संस्कार किया है; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह नदी के लिए अपना अस्तित्व मिटा दे । उसके मिटने में न उसका हित होगा, न नदी का । 

प्रश्न 2. 'नदी के द्वीप' नदी को अपनी माँ क्यों कहते हैं ? वे (नदी के द्वीप) अपना स्थिर समर्पण किसे और क्यों करते हैं ? युक्तियुक्त उत्तर दीजिए । 

उत्तर- 'नदी के द्वीप' शीर्षक कविता में कवि ने स्वयं को मध्य उभर आनेवाले छोटे-छोटे रेतीले द्वीपों से उपमित किया है। अस्तित्व नदी को इच्छा पर निर्भर है। उसकी ही प्रेरणा से वे रूप नदी की धारा के इन द्वीपों का ग्रहण करते हैं और फिर उसके तीव्र प्रवाह में पड़कर विलीन भी हो जाते हैं। इसी प्रकार उसका निर्माण भी कालप्रवाह द्वारा हुआ है। समय की सहस्त्रमुखी धारा उसको तोड़ती, जोड़ती और विस्थापित करती है। 

नदी के द्वीप कविता अज्ञेय व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर
कवि स्वयं को नदी की धारा में उभर आया एक द्वीप मानता है। वह नहीं चाहता कि धारा उसे छोड़कर दूर चली जाय क्योंकि धारा ही उसे रूप देती है ! उसका आकार, उसकी सरलता वक्रता, उसका बिस्तार, संकीर्णता, उसकी ऊँचाई- निचाई सत्रका निर्माण धारा के द्वारा ही हुआ है। वह माता के समान उसे जन्म देनेवाली तथा उसका पालन-पोषण करनेवाली है। उसकी यह स्थिति कोई शाप नहीं, उसका अपना भाग्य है। वह नदी से जन्म पाता है, नदी की गोद में आश्वस्त होकर बैठता है। नदी ही कभी-कभी उसे विशाल भूखण्ड से जोड़ देती है। यह भूखण्ड उसका पिता है । द्वीप का नदी से अनुरोध है कि वह इसी प्रकार चिरकाल तक प्रवाहित रहे और शेष धरती से उसे जो उत्तराधिकार में प्राप्त होता है, वह हुआ करे ताकि उसके व्यक्तित्व का संस्कार और परिमार्जन होता चले। यदि कभी ऐसा हो जाय कि नदी स्वयं अत्यधिक उल्लसित होकर उमड़ उठे, उसमें बाढ़ आ जाये अथवा किसी बाह्य दबाव या विवशता के कारण उसकी धारा वेगवती हो उठे तथा यह मंथरगति से प्रवाहित होनेवाली सरिता इहराती, संहारकारिणी, रौद्ररूपा धारा बन जाये तो द्वीप को यह नियति भी स्वीकार है। वह बिखकर बालू के कणों के रूप में उस धारा में मिल जायेगा। फिर कहीं वे कण एकत्र होंगे, वे धारा का साथ छोड़ कहीं एकत्र होंगे और एक नये द्वीप का रूप धारण करेंगे। उस द्वीप को भी धारा अपनी रुचि और गति के अनुसार नया व्यक्तित्व प्रदान करेगी। इस प्रकार नदी अपने द्वीपों को बार-बार बिखराकर नया बनायेगी, उन्हें रूपाकृति और नया जीवन देगी। उसके मिटने में न उसका हित होगा, न नदी का ।
 
कवि ने नदी के द्वीप के रूपक के माध्यम से कहना चाहा है कि उसका अस्तित्व काल-प्रवाह की प्रेरणा, परिस्थितियों के संघात का फल है। परिस्थितियों से ही वह नष्ट हुआ है, निर्मित हुआ है, किन्तु उसने उसे जीवन के दुर्भाग्य-रूप में स्वीकार नहीं किया है। जो अनिवार्य है उसने उसे स्वीकार किया है और तद्नुरूप आत्मविकास के लिए प्रयास किया है। परमार्थ के लिए स्वधर्म का त्याग व्यर्थ है। इससे अपनी महत्ता तो नष्ट होती ही है, जिसका हम अनुकरण करते हैं, उसका महत्व भी सम्मिश्रण से कम हो जाता है। यदि कभी प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमारा नामोच्छेद करने के लिए कृतसंकल्प जान पड़े तो उस विनाश से भी भयभीत नहीं होना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक विनाश भावीनिर्माण की पृष्ठभूमि है तथा समुन्नत एवं सुसंस्कृत होने की आधारशिला है। वह समाज के लिए अपना अस्तित्व मिटाना नहीं चाहता, यद्यपि समाज ने उसे जन्म दिया है, उसका संस्कार किया है। 

प्रश्न 3. नदी के द्वीप के परिवार का वर्णन करते हुए उसके प्रतीकात्मक अर्थ को स्पष्ट कीजिए । 

उत्तर—परिवार सामान्य हो या विशिष्ट, आदर्श हो या साधारण, उसके रूप कें लिए जिन इकाइयों की आवश्यकता होती है। उसमें माता, पिता और संतान अनिवार्य हैं। समाज के संदर्भ में भी प्रतीकात्मक रूप से व्यक्ति, समाज और वृहद् विश्व का सम्बद्ध क्रम है । व्यक्ति अपने बाहरी समाज तथा परिवेश की देन है। समाज उसे व्यक्तित्व प्रदान कर विराट विश्व-परिवार से जोड़ता है। 'अज्ञेय' ने नदी, द्वीप और विराट धरती को परिवार के अंगों एवं उपांगों के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया है। कवि ने प्रतीक के माध्यम से व्यक्ति, समाज और विश्वव्यापी मानव परिवार के परस्पर संबंध को स्पष्ट किया है। व्यक्ति को द्वीप के रूप में, समाज को सरिता (नदी) के रूप में रखा है। नदी के द्वीप के समान ही व्यक्ति समाज के भीतर रहता है, फिर भी उसका अपना मुक्त और निजी विशिष्ट व्यक्तित्व भी है। वह द्वीप की तरह स्थिर और समाज के प्रति सम्पूर्णतः समर्पित है । अस्थिरता का अंत कर अटल रहते हुए ही वह समाज में अपनी सत्ता सदृढ़ कर पाता है। नदी द्वीप को विश्व से मिलाती है, लघु को विराट से जोड़ती है। समाज की सीमा में आबद्ध होते हुए भी प्रगतिशील विचारों का व्यक्ति विराट मानव परिवार से स्वयं को जोड़े रखता है और अपने स्थान से सबकी चिन्ता करता रहता है । समाजरूपी नदी माता है, व्यापक विश्व पिता है और व्यक्ति द्वीप के समान शिशु-संतान अर्थात् पुत्र है। जैसे नदी द्वीप को सँवार कर विराट से संबंध कराती है, उसी प्रकार से व्यक्ति भी समय के प्रवाह में समाज से पोषित होकर विकास लेता है और विश्वव्यापी विराट मानव-परिवार से स्वयं को जोड़ता है तथा अपने जीवन को उपयोगी और सार्थक बनाता है। कविता के प्रतीकों का यही अर्थ-संकेत है । 

प्रश्न 4. 'यह स्रोतस्विनी बन जाय' का आशय स्पष्ट करते हुए बताइये सि स्रोतस्विनी काल-प्रवाहिनी कैसे बन सकती है ? 

उत्तर-आधुनिक युग के प्रबुद्ध कवि और चिन्तनकर्ता अज्ञेयजी व्यक्ति और समाज के संबंध को परस्पर पूरक और अनिवार्य मानते हैं। उनकी दृष्टि में समाज व्यापक है और व्यक्ति समाज के अंग के रूप में समाज के भीतर समाज के हितों की रक्षा के लिए एक सामाजिक रचना है। समाज की अपनी व्यवस्था होती है, परंपरा होती है, महिमा-गरिमा होती है । व्यक्ति जब स्वार्थ के वशीभूत होकर सामाजिक व्यवस्था का उल्लंघन करता है तब समाज में एक विशेष सामयिक क्रांति की चेतना सजग होती है और फिर समाज की नित्य प्रवाहिनी नियमितता में बद्ध सरिता मर्यादा का अतिक्रमण करती है; परिणामस्वरूपं पूर्व की सभ्पूर्ण व्यवस्था नष्ट हो जाती है। नदी द्वीप को मिटाकर पुनः नये द्वीपों को जन्म देती है और धरती के वृहद् भू-भाग से उन्हें जोड़ती है। उसी प्रकार के विनाश और विध्वंस का भी अंत होता है और समयोचित अभिनव चेतना और संस्कार लेकर नया समाज गठित होता है, किसी प्रकार से विकास लेता है और समय पाकर एक पूर्ण स्वस्थ नया समाज निर्माण प्राप्त कर लेता है । कवि का आशय है कि सामाजिक क्रांति के द्वारा समाज नवजीवन प्राप्त कर लेता है । कवि का आशय है कि सामाजिक क्रांति के द्वारा ही नयी चेतना आती है और नयी चेतना क्रियाशील होकर नये समाज की रचना करती है। अतः निर्माण के लिए जो विध्वंस या विनाश आवश्यक है, उसका सदैव स्वागत होना चाहिए।

अपनी निरंतरता और परम्परता को अनावश्यक मानकर समाज जब नवीन रूप या संस्कार के लिए संघर्ष करता है तो विनाश की लीला सामने आती है। एक स्थिर परम्परा और व्यवस्था नष्ट होती है। यह कार्य भी समाज के भीतर समाज के द्वारा समाज के लिए ही होता है। अतः समाज को स्रोतस्विनी के रूप में प्रतीकात्मक रूप देकर उसके विनाशकार्य को देखकर उसे कालप्रवाहिनी कहा गया है जो समय के संदर्भ में ठीक ही है। 


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हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: नदी के द्वीप कविता अज्ञेय व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर
नदी के द्वीप कविता अज्ञेय व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर
नदी के द्वीप कविता अज्ञेय व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर nadi ke dweep kavita summary केंद्रीय भाव नदी के द्वीप कविता की प्रतीकात्मता उद्देश्य प्रयोग
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