अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत | पाश्चात्य काव्यशास्त्र

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अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत पाश्चात्य काव्यशास्त्र अरस्तु, प्राचीन यूनानी दार्शनिक और विचारक, जिन्हें पश्चिमी दर्शन का जनक माना जाता है, ने काव्यशास्

अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत | पाश्चात्य काव्यशास्त्र


रस्तु, प्राचीन यूनानी दार्शनिक और विचारक, जिन्हें पश्चिमी दर्शन का जनक माना जाता है, ने काव्यशास्त्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका अनुकरण सिद्धांत (Mimesis Theory) पाश्चात्य काव्यशास्त्र की आधारशिला है, जिसने सदियों से साहित्यिक रचनाओं की व्याख्या और मूल्यांकन को प्रभावित किया है।

अरस्तू ने काव्य सम्बन्धी दो महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। जिसमें पहला है- अनुकृति (अनुकरण) का सिद्धान्त और दूसरा है- विरेचन का सिद्धान्त। अरस्तू के अनुसार जिस प्रकार एक चित्रकार जीवन को तीन दृष्टियों से उपस्थापित करता है उसी प्रकार से कवि भी काव्य के माध्यम से जीवनानुकृति का उपस्थापन तीन रूपों में करता है। चित्रकार की प्रथम दृष्टि में वैसा चित्र अंकित होता है जैसा वह निकट से देखता है, द्वितीय दृष्टि में वह ऐसा चित्र अंकित करता है जैसा कि वह उत्तम रूप में उसे समझता है और तृतीय दृष्टि में चित्रकार ऐसा चित्र अंकित करता है कि वह चित्र वस्तु के वास्तविक स्वरूप के निकृष्ट रूप में अंकित होता है। ठीक इसी तरह से कवि भी जीवनानुकृति के बारे में तीन दृष्टियाँ रखता है- 
  • जैसा वह निकट से देखता है, 
  • जैसा वह उसे उत्तम रूप में समझता है और 
  • जैसी वस्तु है उससे निकृष्ट रूप ।
अरस्तू ने अनुकरण सिद्धान्त के प्रतिपादन के संदर्भ में यह बताया कि काव्यों में कवि तीन प्रकार की वस्तुओं का अनुकरण करता है अथवा काव्यों के लिए अनुकरणीय वस्तुएँ तीन प्रकार की होती हैं -
  1. जैसी कि वह वस्तु थी । 
  2. जैसा कि अनुकरणीय वस्तु समझी जाती है। 
  3. जैसा कि अनुकरणीय वस्तु को होना चाहिए। 
अरस्तू काव्य के विषय रूप में प्रकृति के संभाव्यमान, प्रतीयमान और आदर्श तीन रूपों को स्वीकार करते हैं। उनका अनुकरणीय सिद्धान्त भावात्मक और कल्पना-प्रधान है। अरस्तू ने अनुकरण के योग्य तीन वस्तुओं का निर्देश किया है-

प्रकृति का अनुकरण 

अरस्तू अनुकरण को ही कला मानते हैं। उनके अनुसार कलाकार प्रकृति का ज्यों का त्यों अनुकरण नहीं करता है। वह प्रकृति में विद्यमान सृष्टि की प्रक्रिया को पकड़ना चाहता है। प्रकृति के पूर्ण विकास में जो न्यूनता होती है उसकी पूर्ति कलाकार करता है और उसकी पूर्ति के लिए वह अपेक्षित अंश जोड़ देता है।
 

इतिहास की अनुकृति

अरस्तू ने काव्य तथा इतिहास में होने वाले भेद को स्पष्ट कर दिया है। उनका कहना है कि इतिहासकार उसका वर्णन करता है, जो घटित हो चुका है और कवि उसका वर्णन करता है, जो उसका संभावित रूप है। काव्य तो सामान्य की अभिव्यक्ति होता है किन्तु इतिहास विशेष की। इतिहास स्थूल की अभिव्यक्ति होता है, किन्तु काव्य सूक्ष्म की अभिव्यक्ति होता है। सूक्ष्म संभाव्य के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए अरस्तू ने कहा है-
 
The poets function is to describe, not the things that have happened, but a kind of thing that might happen i.e. what is possible as being prabable or necessary. 

कार्यरत मनुष्य का अनुकरण

अरस्तू के अनुसार त्रासदी में कार्यरत मनुष्यों का ही वर्णन किया जाता है। यहाँ पर सुख-दुःख आदि के अनुभव करने वाले मनुष्य को ही कार्यरत मनुष्य कहा जाता है। मनुष्य का वास्तविक स्वरूप सुख-दुःख के अनुभव-काल में ही सबके सामने उभरकर आता है। अतः कार्यरत मनुष्य के बिना ट्रेजेडी का होना सम्भव नहीं है। Besides this a tragedy is impossible without action, but there may be one without character. 

अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत | पाश्चात्य काव्यशास्त्र
अरस्तू ने कार्यरत मनुष्यों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है। सामान्य जैसे मनुष्य, सामान्य से अच्छे मनुष्य तथा सामान्य से बुरे मनुष्य। उसका मानना था कि अनुकरण में कल्पना का संयोग आवश्यक है। बिना कल्पना के संयोग से सामान्य से अच्छे मनुष्य का अनुकरण सम्भव नहीं है। कल्पना एवं मनोवेग के बल पर कवि सामान्य मनुष्य के कुछ अंशों को छोड़ देता है और जो उसकी रुचि के अनुकूल होता है उसको जोड़कर उसका ही अनुकरण करता है। यथार्थ का हू-ब-हू अनुकरण नहीं किया जा सकता है।
 
अरस्तू ने जिस अनुकरण सिद्धान्त की कल्पना की वह भारतीय काव्यशास्त्र में भी पाया जाता है। यह दूसरी बात है कि भारतीय काव्यशास्त्र में पाये जाने वाले अनुकरण का स्वरूप भारतीय परम्परा के अनुकूल है। नाट्यशास्त्रकार भरतमुनि कहते हैं- 'नाटक में तीनों लोकों के भावों का अनुकरण किया जाता है। नाटक का सर्वस्व तो अनुकूल ही है- त्रैलोक्यस्यास्य सर्वस्व नाट्यं भावानुकीर्तनम् । इस अनुकरण की सीमा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा है -
 
'नाना-भावोपसम्पन्नं नानाऽवस्थान्तरात्मकम् । 
लोकवृत्तानुकरणं नाट्यमेतन्मया कृतम् ।। 

दशरूपककार धनञ्जय भी अवस्थाओं के अनुकरण को ही नाट्य कहते हैं- 'अवस्थानुकृतिर्नाट्यम् ।' 

इस अनुकरण के सिद्धान्त की कल्पना करके अरस्तू ने कला का एक स्वतन्त्र अस्तित्व कायम कर दिया है। प्लेटो ने काव्य तथा कला पर जो आक्षेप किया था, उसका खण्डन अरस्तू ने काव्य में कल्पना के महत्त्व तथा उसमें संभाव्य सूक्ष्म के वर्णन के महत्त्व को देकर किया। काव्य की कल्पना व्यावहारिक जगत् को आगे बढ़ाने का एक नया मार्ग प्रस्तुत करती है। कल्पना को ही साकार करने का प्रयास व्यावहारिक जगत् है। कहा जाता है कि ब्रह्म ने जब सर्वप्रथम जगत् की सृष्टि रचना की तो कल्पना की और फिर उसके अनुरूप स्वयम् परिणत हो गया। 

इस प्रकार,अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत पाश्चात्य काव्यशास्त्र में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। इस सिद्धांत ने कला की भूमिका, साहित्यिक मूल्यांकन और पाश्चात्य काव्यशास्त्र के विकास को समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

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