रीतिसिद्ध कवि बिहारी की सौंदर्य भावना

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रीतिसिद्ध कवि बिहारी की सौंदर्य भावना बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। उनकी सौंदर्य भावना विस्तृत और गहरी है। वे न केवल रूप-सौंदर्

रीतिसिद्ध कवि बिहारी की सौंदर्य भावना


बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। उनकी सौंदर्य भावना विस्तृत और गहरी है। वे न केवल रूप-सौंदर्य, अपितु प्रकृति-सौंदर्य और भाव-सौंदर्य का भी अद्भुत चित्रण करते हैं। उनकी रचनाओं में यथार्थवाद, विनोद-प्रियता और लोक जीवन का चित्रण उन्हें अन्य कवियों से अलग करता है।

बिहारी रीतिकालीन रीतिबद्ध काव्य धारा के महत्वपूर्ण कवि हैं । इनका जन्म सन् १५९५ ई० एवं मृत्यु सन् १६६३ ई० के आसपास मानी गयी है । इन्होंने अपने काव्य लेखन के संबंध में लिखा है कि अपने आश्रयदाता जयसिंह के आदेश से उन्होंने सतसई की रचना की जो श्रीकृष्ण और राधिका की कृपा से अनेक रसों से भरी है -
 
हुकुम पाय जयसाहि को हरि-राधिका प्रसाद । 
करी बिहारी सतसई, भरी अनेक सवाद ।।
 
रीतिसिद्ध कवि बिहारी की सौंदर्य भावना
स्पष्टत: इस दोहे में हरि-राधिका के प्रसाद से अधिक महत्व महाराजा जयसिंह के आदेश का है । लगभग सात सौ दोहों का संकलन 'बिहारी सतसई' बिहारी की एकमात्र उपलब्ध काव्य-कृति है । इसके हरेक दोहे पर आश्रयदाता द्वारा उपहार स्वरूप एक-एक असर्फी देने की जनश्रुति विख्यात है । अनेक रसों का आस्वादन कराने वाले इस कवि के मानस में कहीं न कहीं राधा-कृष्ण की छवि भी अंकित है। काव्य के आरंभ में वह मंगलाचरण के रूप में उनकी युगल छवि की अराधना करते हैं । किंतु वहाँ भी उनकी दृष्टि तन की छाया से दूर नहीं जा पाती । शृंगारिकता की यह मूल चेतना बिहारी के अधिकांश दोहों में देखी जा सकती है। चाहे वह दोहा वैराग्य, नीति, गणित, ज्योतिष या भगवद्भक्ति का ही आधार बनाकर क्यों न लिखा गया हो । इन्हीं कारणों से यह माना जाता है कि बिहारी मूलतः एक श्रृंगारिक कवि हैं
 
हिंदी साहित्य में सूर एवं तुलसी के बाद बिहारी सर्वाधिक लोकप्रिय कवि माने गये हैं । किसी रीतिग्रंथ की रचना नहीं करने के कारण ये रीतिकालीन कवियों के बीच 'रीतिसिद्ध' कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं । इनकी प्रसिद्धि की मुख्य वजह है इनमें कल्पना की अद्भुत समाहार शक्ति एवं सामासिक भाषा का चमत्कार । इनकी एक और प्रमुख विशेषता है अलंकार प्रधान उक्ति-वैचित्र्य । इन्हीं खूबियों के कारण बिहारी को 'गागर में सागर' भरने वाला कवि भी कहा गया है । दोहा छंद के संबंध में रहीम का एक दोहा है. 

दीरघ दोहा अरथ के, आखर छोटे आहिं । 
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चलि जाहिं ।।
 
'बिहारी सतसई' के अधिकांश दोहे रहीम के इस दोहे को चरितार्थ करते हैं। क्योंकि कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कह डालने की कला में बिहारी बेजोड़ हैं । हिंदी में बहुत कम ऐसे कवि हैं, जिनकी कृतियों की इतनी टीकायें एवं अनुवाद उपलब्ध हैं।
 
बिहारी की भाषा चलती-फिरती ब्रजभाषा है जिसमें अवधी, खड़ी बोली तथा बुंदेलखंडी शब्दों का भी पर्याप्त प्रयोग हुआ है । चुस्त एवं मजी हुई व्यंजना- प्रधान भाषा का रूप मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से और निखर उठा है इनकी काव्यगत विशेषताओं का समाहार करते हुए पंडित पद्म सिंह शर्मा ने लिखा है, “इनकी भाषा जितनी चमत्कारिणी और मनोहारिणी है, उतनी ही गहरी, और गंभीर है । जो सिद्धहस्तता तुलसी को शांत रस, सूर को भक्ति रस, को वीर रस में है, वही बिहारी को श्रृंगार रस में है । वे अलंकारों के इतने भक्त थे कि एक-एक दोहे में पंद्रह अलंकार तक पाये जाते हैं। इनकी सतसई की भावना खाँड़ की रोटी की भाँति है। इस जौहरी की दुकान में सब ही अमूल्य रत्न हैं। बानगी में किसे पेश करें, एक को खास तौर से आगे करना दूसरे का अपमान.. करना है ।" 

बिहारी शृंगारिक भावनाओं से प्रेरित मूलत: सामंती प्रवृत्तियों के कवि हैं।इसके बावजूद उनके दोहे समाज-प्रेम का उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं । अपनी सरस चेतावनी के माध्यम से राजा जयसिंह को प्रेम-पाश से छुड़ाने तथा शिवाजी के साथ युद्ध न करने के सुझाव के भाव से रचित क्रमागत निम्न दोहे बिहारी की सामाजिक चेतना के प्रमाण हैं- 

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल 
अली, कली ही सौं बंध्यों, आगे कवन हवाल ।। 

स्वारथ सुकृत न श्रम बृथा, देखि बिहंग बिचारि । 
बाज पराएँ पानि परि, तूं पच्छीन न मारि । 

अतः निष्कर्ष के तौर पर यह कहना गलत नहीं होगा कि रीतिकालीन साहित्य सामंती परिवेश के दबाव में रचित साहित्य है, अन्यथा ये कवि बिल्कुल समाज निरपेक्ष नहीं थे । एक रीतिकालीन कवि 'मतिराम' के संबंध में आचार्य शुक्ल का मत है, "इनका सच्चा कवि-हृदय था । ये यदि समय की प्रथा के अनुसार रीति की बँधी लीकों पर चलने के लिए विवश न होते, अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार चलने पाते, तो और भी स्वाभाविक और सच्ची भावविभूति दिखाते, इसमें कोई संदेह नहीं ।" इन रीतिकालीन बंधनों को तोड़कर भावना के उन्मुक्त आकाश में विचरण करनेवाले कवियों की भी एक धारा रीतिकाल में प्रवाहित हुई है । इसे आचार्य शुक्ल ने रीतिमुक्त धारा के रूप में अभिहित किया है।

बिहारी रीतिकाल के एक महान कवि थे जिन्होंने अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और पाठकों को आनंद प्रदान करती हैं।

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