कृष्ण भक्त सूरदास एक कालजयी कवि हैं

SHARE:

कृष्ण भक्त सूरदास एक कालजयी कवि हैं सूरदास जी हिंदी साहित्य के रत्न हैं सूरदास भक्तिकाल में कृष्ण काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि ब्रजभाषा के वाल्मीकि

कृष्ण भक्त सूरदास एक कालजयी कवि हैं


सूरदास जी   हिंदी  साहित्य  के  रत्न  हैं।   उनकी  रचनाओं  ने  न  केवल  हिंदी  साहित्य  को  समृद्ध  किया  है,  बल्कि  आज भी  लोगों  को  कृष्ण  भक्ति  का  मार्ग  दिखाती  हैं।सूरदास भक्तिकाल में कृष्ण काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं । इनका जीवनकाल अनुमानत: सन् १४७८ से लेकर १५८० ई० के बीच माना गया । सूर का संपूर्ण साहित्य 'मुक्तक काव्य रूप' में है । इनके पदों को मुख्यत: दो श्रेणियों में रखा जा सकता है - 'विनय' के पद और 'लीला' के पद । सामान्यतः यह माना गया है कि सूरदास शांत रस में डूबे विनय-पदों की रचना वल्लभाचार्य से दीक्षित होने के पहले की थी।गऊघाट पर सूरदास से पहली मुलाकात में वल्लभाचार्य ने कहा था, कि “सूर है कै ऐसो क्यों घिघियात है, कछु भगवद् जस वरनन करि ।' इस निर्देश से सूर की जीवनधारा ही बदल गयी । इस घटना की ओर इंगित करते हुए सूरदास ने लिखा है - 

कर्म उपासन ज्ञान वेदमत भ्रम ही भ्रम भरमायो । 
श्री वल्लभ गुरु तत्व सुनायो लीला भेद बतायो ।।
 
फलत: सूर ने कृष्ण के वात्सल्य एवं श्रृंगार से संबंधित जिन लीला-पदों की रचना की वह हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि बन गयी । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे अद्वितीय मानते हुए लिखा है, " 'वात्सल्य' एवं 'शृंगार' के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया है, उतना किसी और कवि ने नहीं । इन क्षेत्रों का कोना-कोना वे झाँक आए ।”
 
कृष्ण भक्त सूरदास एक कालजयी कवि हैं
कृष्ण भक्त सूर एक कालजयी कवि हैं । कोई भी रचनाकार तभी कालजयी होता है, जब वह कालजीवी होता है । मूल्यांकन की इस कसौटी पर सूर का साहित्य खरा साबित होता है । यहाँ तक कि पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने के पहले रचित विनय संबंधी पद भी तत्युगीन सामाजिक परिवेश के परिणाम हैं । इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए शिवकुमार मिश्र ने लिखा है, “सूर जिस समाज में रह रहे थे, जाहिर है कि वह समाज एक सामंती समाज था, जिसके अंतर्गत शासक- शोषक वर्ग का पंजा साधारण जन की गर्दन पर दृढ़ता के साथ जमा हुआ था। सूर के इन विनय संबंधी पदों में दैन्य, वेदना तथा पीड़ा की जो मार्मिक अभिव्यक्ति है, उसे सामंती समाज में घुटते हुए जन साधारण की पीड़ा से जोड़कर देखने और समझने की जरूरत है । इन पदों के भीतर से झाँककर तत्कालीन सामंती समाज के यथार्थ को बखूबी पहचान सकते हैं।” वस्तुतः लोकवादी कवियों ने तत्युगीन सामंती मूल्यों का विरोध सांकेतिक रूप में किया है । 

मध्ययुग में नारी की अपनी कोई पहचान नहीं थी । वह पुरुषों के विकास मार्ग में बाधा कहकर ठुकरा दी गई थी । सूर ने अपने काव्य में नारी को आदर्श माता, आदर्श पत्नी और आदर्श प्रेमिका के रूप में प्रतिष्ठित कर उसकी अस्मिता पर पड़ी धूल ही झाड़ी है। सूर के स्वामी श्रीकृष्ण सिर्फ नंदनंदन के रूप में ही नहीं, यशोदानंदन के रूप में भी जाने जाते हैं । समाज के आँगन में बाल कृष्ण के साथ-साथ माँ यशोदा भी आदरणीय हैं ।
 
सूर ने कृष्ण की बाललीला का वर्णन विभिन्न रूपों में किया है । माँ यशोदा की लोरी सुनकर पालने में सोते-जागते हुए, कहीं किलकारी मारव हँसते हुए, कहीं धूल-धूसरित तन में मक्खन लपेटे घुटनों के बल दौड़ते हुए, कहीं माँ की उँगली पकड़कर तलमलाते हुए, कहीं ग्वाल-बालों की शिकायत करते हुए कृष्ण के अनेकानेक चित्रों को सूरदास ने संजोया है । ये चित्र बाल-सुलभ प्रवृत्तियों के साथ-साथ मातृहृदय का परिचय कराने में भी सफल हैं । बाल हठ, अधिकार चेतना, किसी उपलब्धि का अनुभव, किसी गलती का अहसास जैसी मनोवैज्ञानिक घटनाओं के साथ यह विकास क्रमश: किशोरावस्था के उस स्तर पर जा पहुँचता है, जहाँ बाल्यावस्था एवं युवावस्था की संधि का पता ही नहीं चलता । यमुना तट पर खेलते हुए अचानक राधा को पाकर कृष्ण द्वारा प्रश्नों की बौछार तथा साथ खेलन के आमंत्रण से शृंगार वर्णन की शुरुआत हो जाती है -
 
बूझत स्याम कौन तू गोरी । 
कहाँ रहति, काकी है बेटी, देखि नहीं कबहूँ ब्रजखोरी । 
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी ।।
 
शृंगार-वर्णन के क्रम में राधा-कृष्ण का यह मिलन उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है । सूर वृंदावन की प्रकृति से जोड़कर एक ऐसे मनोहारी दृश्य की छटा बिखेरते हैं, जिसे देखकर पाठक रसमग्न हो उठता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “सूर का संयोग वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है, प्रेम संगीतमय जीवन की एक गहरी चलती धारा है, जिसमें अवगाहन करने वाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखाई पड़ता ।" यह संयोग वर्णन उस वक्त वियोग में बदल जाता है जब गोकुल की सारी करतूतों को छोड़कर कृष्ण मथुरा चले जाते हैं । 

कृष्ण-सखा उद्धव गोपियों की विरह-शांति के लिए संदेशवाहक बनकर आते हैं । उद्धव के साथ गोपियों के वाद-विवाद में सूर साहित्य अपने चरम उत्कर्ष को प्राप्त करता है । सूर ने श्रीमद्भागवत के इस प्रसंग को आधार बनाकर अपनी मौलिकता के जरिये जो कलात्मक अभिव्यक्ति दी, वह परवर्ती कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गयी ।
 
सूर की काव्यभाषा ब्रजभाषा है।विभिन्न राग-रागिनियों से युक्त यह एक ऐसी काव्यभाषा है जिसमें शास्त्रीय राग एवं लोक राग का अंतर मिट गया है ।फलतः सूर अपनी काव्यमय भाषा की सहजता में विद्वतजन एवं सामान्य जन दोनों को समान रूप में रिझाते हैं । लोक-सांस्कृतिक तत्वों से संयुक्त सूर की भाषा में अनुभूति की तीव्रता देखते बनती है । होली के उत्सव रंग-गुलाल उड़ रहा है। यहाँ तक कि छतों के कंगूरे भी रंग गए हैं -

उड़त गुलाल लाल भए बादर रंगि गए सिगरे अटा अटारी। 

ब्रजभाषा को इस रूप में परिमार्जित कर प्रांजल एवं सहज बनाने वाले कवियों में सूर का स्थान प्रथम है । संभवतः यही वजह है कि सूर ब्रजभाषा के वाल्मीकि कहे जाते हैं । सूरदास जी  एक  कालजयी  कवि  हैं। उनकी  रचनाएं  सदा  प्रासंगिक  रहेंगी  और  हिंदी  साहित्य  का  गौरव  बनी  रहेंगी।

COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका