निर्मला उपन्यास की भाषा शैली की समीक्षा मुंशी प्रेमचंद nirmala upanyas ki bhasha shaili माधुर्यपूर्ण सरस भाषा प्रेमचन्द की भाषा मुहावरों का प्रयोग
निर्मला उपन्यास की भाषा शैली की समीक्षा
निर्मला उपन्यास की भाषा शैली की समीक्षा nirmala upanyas ki bhasha shaili - भाषा के द्वारा साहित्यकार अपने भावों को पाठकों तक पहुँचाता है।निर्मला की भाषा-शैली लगभग प्रेमचन्द के अन्य उपन्यासों के समान ही है। प्रेमचन्द भाषा की शक्ति से पूर्णतया परिचित थे। उन्होंने पात्रों के अनुकूल भाषा प्रयोग की है। उर्दू, अंग्रेजी तथा देशज शब्दों का भी प्रयोग किया है। अपनी भाषा को प्रभावशाली बनाने के लिए मुहावरों का भी प्रयोग किया है। कहीं-कहीं मुहावरों का प्रयोग असंगत भी है। प्रायः वाक्य छोटे हैं। यथा :-
रंगीली : "साफ बात कहने में संकोच क्या? हमारी इच्छा है, नहीं करते। किसी का कुछ लिया तो नहीं है? जब दूसरी जगह दस हजार नगद मिल रहे हैं तो यहाँ क्यों करूँ?"
माधुर्यपूर्ण सरस भाषा का उदाहरण
बाग में फूल खिले हुए थे। मीठी-मीठी सुगंध आ रही थी। चैत की शीतल मंद समीर चल रही थी। आकाश में तारे छिटके हुए थे।
कल्याणी द्वारा कठोर भाषा का प्रयोग
कल्याणी- “तो आप अपना घर सँभालिए! ऐसे घर को मेरा दूर से सलाम है, जहाँ मेरी कोई पूछ नहीं । घर में तुम्हारा जितना अधिकार है उतना ही मेरा भी। इससे जौ भर भी कम नहीं। अगर तुम अपने मन के राजा हो तो मैं भी अपने मन की रानी हूँ।
निर्मला के स्वप्न को उन्होंने बड़े ही चित्रात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है तथा स्वप्न उसके आन्तरिक द्वन्द्व को दर्शाता है ।नदी लहरें मार रही है। संध्या का समय है, अँधेरा किसी भयंकर जन्तु की भाँति बढ़ता चला आता है। एकाएक उसे एक सुन्दर नौका घाट की ओर आती दिखाई देती है। ज्योंही नाव घाट पर आती है, वह उस पर चढ़ने के लिए बढ़ती है लेकिन ज्योंही नाव के पटरे पर पैर रखना चाहती है, उसका मल्लाह बोल पड़ता है-"तेरे लिए यहाँ जगह नहीं है है:-
मंसाराम के वार्तालाप में मनोविज्ञान का सहारा लेकर कोमल और मधुर भाषा का प्रयोग किया है .
मंसाराम- मैं आपका स्नेह कभी भी न भूलूँगा। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुनर्जन्म मैंने आपको विमाता नहीं समझा। आपकी उम्र मुझसे बहुत ज्यादा न हो, लेकिन आप मेरी माता के स्थान पर थीं और मैंने आपको सदैव उसी दृष्टि से देखा।
लेखक ने प्रौढ़ आयु की और पुराने विचारों वाली ननद के मानसिक जगत् के चेतन व अचेतन मन की ग्रंथियों, संघर्षों और परम्परागत कटु व्यवहार को कड़वी भाषा में चित्रित किया है:-
रुक्मिणी- "तुम्हारी नई अम्माँजी की कृपा होगी और क्या? जाने, यह उन्हीं की लगाई आग है। देख, मैं जाकर पूछती हूँ।"
रुक्मिणी झल्लाई हुई निर्मला के पास पहुँची ।
निर्मला चारपाई से उठते हुए बोली-"आइए, दीदी, बैठिए।"
तू यह त्रिया-चरित्र क्या
रुक्मिणी- "मैं पूछती हूँ क्या तुम सबको घर से निकालकर अकेले ही रहना चाहती हो?" जीवन की क्षणभंगुरता दर्शाने के लिए उनकी भाषा में दार्शनिकता आ आई है । साँस का भरोसा ही क्या और इसी नश्वरता पर हम अभिलाषाओं के कितने विशाल भवन बनाते हैं। नहीं जानते, नीचे जाने वाली साँस ऊपर आएगी या नहीं, पर सोचते इतनी दूर की हैं, मानों हम अमर हैं।
सुन्दर भावों की अभिव्यंजना ओर अभिव्यक्ति प्रेमचन्द की भाषा की अपनी विशेषता है
- प्रत्येक प्राणी में अपने हमजोलियों के साथ हँसने-बोलने की जो नैसर्गिक तृष्णा होती है, उसी की तृप्ति का यह अज्ञात साधन था। अब वह अतृप्त तृष्णा निर्मला के हृदय में दीपक की भाँति जलने लगी।
- जिन नेत्रों में एक क्षण पहले विनय के आँसू भरे हुए थे, उनमें अकस्मात् ईर्ष्या की ज्वाला कहाँ से आ गई? जिन अधरों से एक क्षण पहले सुधा-वृष्टि हो रही थी, उनमें से विष का प्रवाह क्यों होने लगा ?
प्रेमचन्द की भाषा में मुहावरों का प्रयोग भी काफी हुआ है
सिर पर सवार, मिट्टी में मिलना, मजा चखाना, फूला न समाना, हाथ फैलाना, सिक्का जमाना, पिंड न छोड़ना, लोहा मानना, आड़े हाथों लेना, छाती पर साँप लोटना, बाल बाँका न होना, मक्खी की तरह निकाल फेंकना, पत्थर की लकीर, कलेजा बैठना आदि कई मुहावरे लाक्षणिक अर्थों के रूप में आए हैं।
इसी प्रकार प्रेमचन्द ने उर्दूमिश्रित भाषा व शब्दों का प्रयोग भी किया है ताकि अपनी बात जनसाधारण तक पहुँचाई व समझाई जा सके :-
तजबीज, तखमीना, मयस्सर, जनवासा, लौंडी, स्याह, रिवाज, तलब, बेवा, हैसियत, बेतकल्लुफी, बेहयाई, दोजख, मवाद, दगाबाज, नसीब, ताबेदार, इश्तहार ।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि प्रेमचन्द जी भाषा के कुशल पारखी थे।
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