इंसान बनकर आ रहा सवेरा है गिरिजाकुमार माथुर

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इंसान बनकर आ रहा सवेरा है गिरिजाकुमार माथुर कविता की व्याख्या कविता के प्रश्न उत्तर इंसान बनकर आ रहा सवेरा है का सारांश नया सवेरा आएगा

इंसान बनकर आ रहा सवेरा है गिरिजाकुमार माथुर


इंसान बनकर आ रहा सवेरा है कविता की व्याख्या 

कल थे कुछ हम बन गए आज अनजाने हैं, 
सब द्वार बंद, टूटे सम्बन्ध पुराने हैं, 
हम सोच रहे यह कैसा नया समाज बना, 
जब अपने ही घर में हुए हम बिराने हैं। 
है आधी रात अर्ध जग पड़ा अँधेरे में, 
सुख की दुनिया सोती, रंगों के घेरे में, 
पर दुःख का इन्सानी दीपक जलकर कहता, 
अब ज्यादा देर नहीं है नए सवेरे में। 
हम जीवन की मिट्टी में मिले सितारे हैं, 
हम राख नहीं हैं राख ढके अंगारे हैं, 
जो अग्नि छिपा रखी है हमने यत्नों से, 
हर बार धरा पर उसने प्रलय उतारे हैं। 

इंसान बनकर आ रहा सवेरा है गिरिजाकुमार माथुर
सन्दर्भ
-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक की 'इन्सान बनकर आ रहा सवेरा है' नामक कविता से ली गई हैं। इनके रचयिता गिरिजाप्रसाद माथुर हैं। 

प्रसंग-प्रस्तुत कविता में कवि यह आशा व्यक्त कर रहा है कि सामाजिक स्थितियों से जो निराशा का भाव प्रकट हो रहा है, वह शीघ्र ही दूर हो जाएगा तथा नया सवेरा आएगा। 

भावार्थ- कवि कहता है कि हम कल कुछ और थे लेकिन आज अपने ही देश में अनजाने बन गए हैं। हमारे सबसे पुराने सम्बन्ध जो बने हुए थे वे टूट गए हैं। आज हमारे लिए सब द्वार बन्द हैं। यह कैसा नया समाज बना है जिसमें अपनी पहचान मिट गई है। अपने ही घर में हम पराए से लग रहे हैं। 

आधी रात में आधा संसार सो रहा है। और जो धनी लोग तो सुख की नींद सो रहे हैं, लेकिन निर्धन हैं वे दुःखी हैं। वे सोच रहे हैं कि अब सवेरा होने में ज्यादा देर नहीं है। अर्थात् दुःख की रात दूर होगी औरह सुख का सबेरा आएगा। 
हम धूल में छिपे हुए हीरे हैं। हम राख भी नहीं हैं बल्कि राख से ढके हुए अंगारे हैं। जो अग्नि हमने अपने अन्दर छिपा रखी है, उसने कई बार पृथ्वी पर प्रलय मचा दी है। अर्थात् हमारी छिपी हुई शक्ति ने अनेक बार युद्ध जीते हैं। 

 
है दीप एक पर मोल सूर्य से भी भारी, 
है व्यक्ति एक वर्तिका, दीप धरती सारी; 
देखो न दुःखी हो व्यक्ति, उठे इंसानी लौ, 
वनखंड जलाती सिर्फ एक ही चिनगारी। 
है झंझापथ, पद आहत, दीपक मद्धिम है, 
संघर्ष रात काली, मंजिल पर रिमझिम है, 
लेकिन पुकारता आ पहुँचा युग इनसानी, 
दो कदम रह गया स्वर्ग चढ़ाई अन्तिम है। 
दीपक, तेरे नीचे घिर रहा अँधेरा है, 
सोने की चमक तले अनीति का डेरा है, 
तू इन्सानी जीवन की रात मिटा, वरना 
इनसान स्वयं बनकर आ रहा सवेरा है। 

भावार्थ-कवि कहता है कि भारत में जलने वाला एक दीपक भी सूर्य से अधिक प्रकाश देता है। व्यक्ति बाती है और धरतो दीपक है। हे व्यक्ति ! तुम दुःखी होकर मत देखो, इनसान को एक लौ के रूप में देखो। एक चिनगारी ही पूरे वन को जला देती है। माना कि मार्ग में तूफान आया हुआ हे, पैर में चोट लगी है, दीपक धीरे-धीरे जल रहा है। तुम्हें संघर्ष करना है। काली रात तुम्हारे सामने है और मंजिल पर वर्षा हो रही है। लेकिन फिर भी इन्सान आगे बढ़ता चला आता है। इन्सान ने इतनी उन्नति कर ली है कि स्वर्ग भी थोड़ी दूर रह गया है। अन्तरिक्ष में मानव पहुँच गया है। जहाँ दीपक का प्रकाश है वहाँ दीपक के नीचे अँधेरा भी है। जहाँ धन की अधिकता है वहाँ अनीति दिखाई देती है। कवि ईश्वर से कहता है कि तू इन्सान की दुःखी रूपी रात को मिटा दे नहीं तो इन्सान स्वयं सवेरा बन कर आ रहा है। अर्थात् इन्सान ही इन्सान के दुःख को दूर करेगा 

इंसान बनकर आ रहा सवेरा है कविता के प्रश्न उत्तर

प्रश्न . ' इनसान बनकर आ रहा सवेरा है' शीर्षक कविता में कवि ने क्या आशा व्यक्त की है ? 
उत्तर—प्रस्तुत कविता में कवि ने यह आशा व्यक्त की है कि सामाजिक स्थितियों से जो निराशा का भाव प्रकट हो रहा है, वह शीघ्र ही दूर हो जाएगा तथा नया सवेरा आएगा। संसार में दुःख रूपी अँधेरा चारों ओर छाया हुआ है। आज नए समाज में हम लोग अनजाने बन गए हैं और अपने ही देश में पराए जैसे हो गए हैं। संसार में अधिकतर लोग गरीब हैं। और कुछ लोग अमीर हैं। अमीर यदि गरीबों की तकलीफ दूर करें तो काफी लोग सुखपूर्वक रह सकते हैं । दुःख भोग रहे लोगों को आशा बँधानी चाहिए कि उनका दुःख एक दिन जरूर दूर होगा। भारत के लोग धूल में छिपे हुए सितारे हैं और राख में दबे हुए अंगारे हैं । अर्थात् हम शान्ति पर चलने वाले हैं, परन्तु अवसर आने पर क्रोध भी कर सकते हैं । हमारी वीरता के आगे कोई नहीं टिक सकता । युद्ध में हम लोगों ने हरबार विजय प्राप्त की है। हर व्यक्ति बत्ती बन कर जल रहा है और प्रकाश कर रहा है। इसलिए मनुष्य को दुःखी नहीं होना चाहिए। एक दिन अवश्य सवेरा होगा और उसके दुःखों का अन्त होगा । इन्सान ही स्वयं सवेरा बन कर आएगा और इनसान के दुःखों को दूर करेगा । 

प्रश्न . आशय स्पष्ट कीजिए 
(i) हम राख नहीं हैं, राख ढके अंगारे हैं। 
उत्तर—कवि कहता है कि हम राख नहीं हैं, बल्कि राख ढके हुए अंगारे हैं। हम शान्ति प्रिय हैं, शान्ति ही चाहते हैं, लेकिन अगर कोई हमें शान्ति के बदले दबाना चाहे तो हम अंगारे बन कर उसे जला देंगे। हम शान्ति प्रिय जरूर हैं पर समय आने पर क्रोध रूपी अग्नि प्रकट करके दुश्मन को नष्ट कर देते हैं। 

(ii) वनखंड जलाती सिर्फ एक ही चिनगारी । 
उत्तर—एक आग की चिनगारी पूरे वन को जला कर राख कर देती है । एक सपूत ही देश के लिए बहुत काम कर देता है। यहाँ वीर पुरुषों की कमी नहीं है। वीर पुरुष बलिदान करने में भी पीछे नहीं रहते। कहने का तात्पर्य है कि कोई भी भारत भूमि पर आक्रमण करने की बात नहीं सोचे नहीं तो दुश्मन को तबाह कर देंगे । 


इंसान बनकर आ रहा सवेरा है का सारांश

इंसान बनकर आ रहा सवेरा है कविता में कवि ने यह आशा व्यक्त की है कि सामाजिक स्थितियों से जो निराशा का भाव प्रकट हो रहा है, वह शीघ्र ही दूर हो जाएगा तथा नया सवेरा आएगा। आज समाज की रचना कुछ इस प्रकार से हुई है कि हमारे पुराने सम्बन्ध टूट गए हैं और हम दुनिया के सामने अनजाने बन गए हैं। आधी दुनिया सोई हुई है और आधी जागी हुई है। लेकिन जो आदमी दुःखी है वह कहता है कि सवेरा होने में ज्यादा देर नहीं है। हम यद्यपि मिट्टी के पुतले हैं, लेकिन हर बार हमने युद्ध करने में विजय प्राप्त की है। एक दीपक यहाँ पर जल रहा है वह भी सूर्य के बराबर प्रकाश करता है। धरती रूपी दीपक में मनुष्यों रूपी बाती जल रही है। कोई भी व्यक्ति दिखाई न दे। संसार में मनुष्य ही मनुष्य के दुःखों को दूर करे। मार्ग में आँधी-तूफान आ रहे हैं, दीपक धीमी रोशनी दे रहा है, काली रात है और मंजिल पर वर्षा हो रही है। फिर भी इनसान प्रगति के पथ पर चल रहा है दीपक के नीचे अँधेरा है। जहाँ धन का वास है वहाँ अनीति दिखाई दे रही है। इनसान को इनसान का दुःख मिटाना है। इनसान जब सवेरा बन कर आएगा तभी इनसान का दुःख दूर होगा । 

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