मैंने आहुति बनकर देखा कविता का भावार्थ व्याख्या

SHARE:

मैंने आहुति बनकर देखा कविता का भावार्थ व्याख्या maine ahuti bankar dekha class 12 explanation Maine aahuti bankar dekha hindi class 12 hindi kavyanja

मैंने आहुति बनकर देखा कविता का भावार्थ व्याख्या


मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित मैंने आहुति बनकर देखा शीर्षक पाठ से अवतरित है। 

प्रसंग - मनुष्य जीवन की सार्थकता बताते हुए कवि स्पष्ट करता है कि दु:ख के बीच पीडा सहकर अपना मार्ग-प्रशस्त करने वाला तथा दूसरो की पीड़ा हरकर उनमें प्रेम का बीज बोने वाला व्यक्ति ही वास्तविक जीवन जीता है।

व्याख्या- मैं यह कभी नहीं कहता कि संसार मेरी कठिन गति के साथ चले और यह भी नहीं कहता कि जीवन रूपी रेगिस्तान में देवताओं के उद्यान का पुष्प खिले । काँटा कितना भी कष्टदायक हो, उसी में उसकी मर्यादा है अर्थात् कष्ट में ही वास्तविक सुख निहित है। कवि आगे कहता है कि मुझे युद्ध में कष्ट न मिले, मैं इसकी कामना नहीं करता और प्यार करने पर प्राप्ति की आड़ भी नहीं चाहता। विजय करके ऊँचे महल की चाह नहीं है। मैं चाहता हूँ कि मेरा मार्ग प्रशस्त रहे । नेतृत्व छिनने का भय भी मुझे नहीं है। चाहे नगर की मिट्टी धूल बन जाय, किन्तु मैं उपस्थित हूँ। उस धूल का प्रत्येक कण चाहे मेरी गति में बाधक बने, किन्तु मुझे, इसका दुःख नहीं है। 

काव्य-सौन्दर्य- उपरोक्त पंक्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं - 
(1) भाषा-साहित्यिक खड़ीबोली। 
(2) रस-वीर। 
(3) अलंकार-अनुप्रास । 

मैंने आहुति बनकर देखा कविता का भावार्थ व्याख्या
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश कवि 'अज्ञेय' द्वारा रचित 'पूर्वा' से उद्धृत है, जिसका शीर्षक 'मैंने आहुति बन कर देखा' है। अज्ञेय निरन्तर चिन्तन और मनन के कवि रहे हैं। वे निरन्तर व्यक्ति के मन के विकास की यात्रा को महत्त्वपूर्ण मानकर चलते रहे हैं। 

प्रसंग - जीवन का आनन्द प्राक्ति में नहीं बल्कि त्याग में है। सुख-भोग की अपेक्षा तिल-तिल कर जलना, उपलब्धि के स्थान पर अभिदान करना श्रेयस्कर है। इस भाव को लेकर कवि कहता है- 

व्याख्या- वे लोग स्वस्थ नहीं रोगी हैं, जो प्रेम की अनुभूतियों को कड़वा प्याला मानते हैं, अर्थात् जो मानते हैं क प्रेम का रस सदैव कडुवा होता है। वे लोग मुर्दे की भाँत निर्जीव हैं, जो प्रेम को मुग्ध कर देने वाली शराब मानते हैं। मैंने प्रेम में अपने को तपाकर इसके वास्तविक रहस्य का पता लगा लिया है। प्रेम कुण्ड की यह धधकती हुई ज्वाला है, जिसकी आहुति बन कर मैंने इसे अत्यन्त ही निकट से देखने का अवसर प्राप्त कर लिया है। 

मैं अपने जीवन में जो संकल्प लेता हूँ, उसके अनुसार आगे बढ़ता हूँ। कार्यरत होता हूँ और आकाश में उन्नति की चोटी पर निरन्तर बढ़ता जाता हूँ। मैं संघर्षों से कभी नहीं डरता। धूल की भाँति अवरोधक शक्तियों द्वारा कुचला जाने पर भी आँधी की तरह भयावह और विद्रोही बनकर जीवन में उमड़ता चलता हूँ। 

मैं चाहता हूँ कि जीवन में सदैव चुनौतियों से जूझता रहूँ। मेरी असफलताएँ ही मुझमें तीव्रता लावें और मैं तलवार की भाँत संघर्षों को काटने के लिए सक्षम होऊँ। इस जीवन के निर्मम युद्ध में भले ही मुझे रुकना पड़ जाय, किन्तु मेरा वह अवरोध मुझमें और भी तीव्रता लावे और मैं पहले से अधिक विप्लवकारी बनूँ । 

तेरे लिए मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर कर रहा हूँ, जिससे सब कुछ जल प्रज्ज्वलित कर अंगारे बन जायँ जिसमें तप कर मेरा मौन प्रेम भी तुम्हारी पुकार की भाँति कठोर बन जाय । अर्थात् त्याग और बलिदान की अग्नि में तप कर मेरा प्रेम पवित्र और दृढ़ हो जाय। 

विशेष-  उपरोक्त पंक्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -
(1) प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने आत्माभिव्यक्ति को बड़ा ही सजीव रूप प्रदान किया है। वह जीवन-संघर्षों का स्वागत करता है। पराजय से हतोत्साह नहीं होता, बल्कि नयी प्रेरणा के साथ अग्रसर होता है। 
(2) काव्य की अभिव्यक्त ओज गुण प्रधान है। 


Keywords - मैंने आहुति बनकर देखा कविता की व्याख्या class 12 maine ahuti bankar dekha class 12 sachidanand hiranand vatsyayan agay maine aahuti bankar dekha मैंने आहुति बनकर देखा कविता की व्याख्या maine aahuti bankar dekha explanation अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएँ अज्ञेय की रचनाएँ मैंने आहुति बनकर देखा कविता मैंने आहुति बनकर देखा explanation Maine aahuti bankar dekha hindi 

COMMENTS

Leave a Reply: 1
आपकी मूल्यवान टिप्पणियाँ हमें उत्साह और सबल प्रदान करती हैं, आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है !
टिप्पणी के सामान्य नियम -
१. अपनी टिप्पणी में सभ्य भाषा का प्रयोग करें .
२. किसी की भावनाओं को आहत करने वाली टिप्पणी न करें .
३. अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका