सूरदास की भक्ति भावना | Surdas Ki Bhakti Bhavna | सूरदास की भक्ति पद्धति

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सूरदास की भक्ति भावना


सूरदास की भक्ति भावना  सूरदास की भक्ति भावना की क्या विशेषताएं हैं सूरदास की भक्ति भावना को स्पष्ट कीजिए Surdas ki Bhakti Surdas ki Bhakti bhavana सूरदास की भक्ति भावना सूरदास की भक्ति पद्धति  सूरदास की भक्ति भावना Surdas ki bhakti Bhavna सूरदास की भक्ति पद्धति - भक्ति शब्द भज् सवोयाम् धातु में क्तिन प्रत्यय लगाने से बना है, जिसका अर्थ है भगवान् की सेवा। भक्ति शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वर उपनिषद में मिलता है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार - "श्रद्धा एवं प्रेम के योग को भक्ति कहते हैं।" भक्तिकाल में धर्म साधना का विषय नहीं, अपितु भावना का विषय बन गया था। सूरदास भक्तिकाल के सगुण कृष्ण-भक्त कवियों में प्रमुख हैं। उन्होंने वैष्णवातार श्रीकृष्ण के लोकरंजक रूप की प्रतिष्ठा अपने साहित्य में की है। कवि सूरदास पुष्टिमार्गी भक्ति के पोषक थे। उनकी भक्ति का स्वरूप 'सभा-भाव' था। पुष्टिमार्ग की तीनों आसक्तियाँ - 
  1. रूपा शक्ति, 
  2. लीला शक्ति तथा 
  3. भावाशक्ति 
उनकी भक्ति में सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त सूर की भक्ति में नादी भक्ति सूत्र की ग्यारह आसक्तियाँ और वायु पुराण की छः प्रपत्तियों का भी उल्लेख मिलता है। 

अष्टछाप के कवियों में प्रमुख सूरदास 

सूरदास बल्लभाचार्य जी के शिष्य थे तथा अष्टछाप के कवियों में सर्वप्रमुख थे। भक्ति के क्षेत्र में बल्लभाचार्य का साधनामार्ग 'पुष्टिमार्ग' के नाम से जाना जाता है। बल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने के पहले सूरदास एक 'सन्त' थे, जो सभी उपासना पद्धतियों, भक्ति प्रणालियों को समानभाव से देखते थे। पुष्टि मार्ग में आने से पूर्व सूर पर किसी विशेष भक्ति सम्प्रदाय का प्रभाव न था। उनमें ईश्वर भक्ति के प्रति अनन्यता दिखाई देती है- 

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै । 
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै । 
कमल नयन को छाड़ि महातम, और देव को ध्यावै। 
परम गंग को छाड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै । 
जिंहि मधुकर अंबुज रस चाख्यों, क्यों करील फल भावै । 
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै।। 

इसी प्रकार 'आत्म निवेदन' की प्रवृत्ति भी उनके काव्य में उपलब्ध होती है- 

प्रभु जी मोरे अवगुन चित न धरौ । 
इक लोहा पूजा में राखत इक घर बधिक परौ ।
पारस भेदभाव नहिं मानत कंचन करत खरौ ।। 

सूरदास की भक्ति भावना | Surdas Ki Bhakti Bhavna | सूरदास की भक्ति पद्धति
इष्टदेव में दृढ़ विश्वास, उसका गुणगान, सर्वस्व अर्पण की भावना, दैन्य निरूपण भी सूर काव्य में विस्तार से उपलब्ध होता है। उनके प्रारम्भिक पद विनय, वैराग्य, आन्तरिक साधना, गुरु का महत्त्व आदि से सम्बन्धित है, किन्तु पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने के उपरान्त जो पद उन्होंने रचे वे प्रेमलक्षणा भक्ति से सम्बन्धित हैं। सूरदास जी ने सगुण भक्ति का मण्डन तथा निर्गुण भक्ति का खण्डन किया है। उन्होंने सूरसागर में लिखा है- 


अबिगत-गति कछु कहत न आवै । 
ज्यों गूँगै मीठे फल कौ रस, अन्तरगत ही भावै। 
परम स्वाद सबही सु निरन्तर, अमित तोष उपजावै। 
मन वाणी कौ अगम अगोचर, सो जानै जो पावै। 
रूप-रेख-गुन जाति- जुगुति-बिनु निरालम्ब कित धावै। 
सब विधि अगम विचारहिं तातै, सूर सगुन लीला पद गावै ।। 

सूरदास ने सख्य-भाव की भक्ति को अपनाते हुए भी कृष्ण के प्रति नन्द-यशोदा के वात्सल्य भाव का तथा राधा एवं गोपियों के दाम्पत्य एवं मधुर भाव की सुन्दर व्यंजना की है। गोपी लीला के अन्तर्गत कृष्ण एवं गोपियों के जिस प्रेम का चित्रण सूरदास ने किया है, उसमें उनकी भक्ति-भावना पराकाष्ठा पर पहुँची दिखाई पड़ती है।
 

सूर की भक्ति पद्धति

सूर की भक्ति-पद्धति का मेरुदण्ड पुष्टिमार्ग ही है। भगवान् का अनुग्रह ही भक्त का कल्याण करके उसे इस लोक से मुक्त करने में सफल होता है- 

जापर दीनानाथ ढरै । 
सोइ कुलीन बड़ौ सुन्दर सोइ जा पर कृपा करै। 
सूर पतित तरि जाय तनक में जो प्रभु नेक ढरै ।। 

नारद भक्ति सूत्र में आसक्तियों के एकादश रूप बताये गये हैं, जिनमें से सूर का मन सख्यासक्ति, वात्सल्या सक्ति, रूपासक्ति, कान्तासक्ति और तन्मयासक्ति में अधिक रमा है। कृष्ण गोपियों के हृदय में ऐसे गड़ गये हैं कि अब वे किसी तरह निकलते ही नहीं, गोपियों की इसी ' तन्मयासक्ति' का वर्णन इस पद में है- 

उर में माखन चोर गड़े। 
अब कैसे हूँ निकसत नहिं ऊधौ तिरछे है जु अड़े ।। 

संक्षेप में कहा जा सकता है कि सूर मूलतः एक निष्ठावान् भक्त थे। काव्य और संगीत उनकी भक्तिभावना की अभिव्यक्ति के साधन थे। अपने सुदीर्घ जीवनकाल में उन्होंने भक्ति को ही अपने जीवन का आधार माना था। प्रारम्भ में उनकी भक्ति दास्य भाव की थी, किन्तु बल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होने के पश्चात् उनकी भक्ति ने क्रमशः वात्सल्य, सख्य और दाम्पत्य की त्रिवेणी का रूप धारण कर लिया।आज भी उनका हृदयस्थ लीला-भाव उनकी सरसवाणी द्वारा प्रवाहित होकर जन-समुदाय के हृदय को प्रेम से आप्यायित कर देता है। 

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