सूरदास का वात्सल्य वर्णन

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सूरदास का वात्सल्य वर्णन आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने सूरदास को वात्सल्य वर्णन का सम्राट सूरदास बाल मनोविज्ञान के पंडित थे ,उन्होंने कृष्ण की बाल सुलभ

सूरदास का वात्सल्य वर्णन


चार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने सूरदास को वात्सल्य वर्णन का सम्राट घोषित करते हुए कहा है कि "सूरदास ने अपनी बंद आँखों से वात्सल्य का कोना कोना झाँका है।" सूरदास बाल मनोविज्ञान के पंडित थे ,उन्होंने कृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाओं का बहुत ही मनोहारी चित्रण किया है। इसीलिए वे कृष्ण को सबके ह्रदय में देखते हैं - 

उर में माखन-चोर गड़े। 
अब कैसेहू निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जु अड़े॥ 
जदपि अहीर जसोदानंदन तदपि न जात छँड़े। 
वहाँ बने जदुबंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े। 
को वसुदेव, देवकी है को, ना जानै औ बूझैं। 
सूर स्यामसुंदर बिनु देखे और न कोऊ सूझैं॥ 

उन्होंने वात्सल्य रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का मार्मिक वर्णन किया है। कृष्ण अपनी बाल्यावस्था में खिलौना को बड़ी हिफाजत से रखते थे और अपनी माँ को यह बार बार सूचित करते थे कि माँ राधा से सावधान रहना ,एक बार कृष्ण जी चन्द्र खिलौना की फरमाईश भी कर बैठते हैं - 

मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं॥
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वै हौं पूत नंद बाबा को , तेरौ सुत न कहैहौं॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं
तेरी सौ, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं॥
सूरदास ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं॥

बचपन में लड्डू की चोरी ,मक्खन की चोरी ( मगर पैसों की नहीं ,यह चोरी तो आज कल के लड़के करते हैं ) तो आम बात है। कृष्ण भी इस बार फँसे हैं ,लेकिन बिना किसी औपचारिकता के ही जमानत हो जाती है - 

मैया! मैं नहिं माखन खायो।
जानि परै ये सखा सबै मिलि मेरो मुख लपटायो॥
देखि तुही छींके पर भाजन ऊँचे धरि लटकायो।
हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो॥
मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो।
डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्रताप दिखायो।
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥

घुटने के बल चलते हुए कृष्ण का चित्र सूर ने इस प्रकार खींचा है - 

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥
कनक-भूमि पद कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रति मनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ॥
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ॥

बच्चे अमूमन दूध पीने से कतराते हैं किन्तु तरह तरह का प्रलोभन देकर बात बना ली जाती है। कृष्ण के साथ में यही घटित हुआ - 

मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी।
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥

सूरदास का वात्सल्य वर्णन
माता यशोदा को अपने पुत्र का बड़ा ध्यान रहता है। कहीं उसकी नींद न खुल जाए ,अभी अभी तो सोया है। वह उसे पालने में झुलाते हुए सुला रही है - 

जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥
इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद-भामिनि पावै॥

वियोग वात्सल्य

श्रीकृष्ण के मथुरा गमन के उपरान्त वियोग वात्सल्य का प्रारंभ होता है। कृष्ण के मथुरा - गमन के अवसर पर सूरदास ने माता यशोदा के ह्रदय की व्याकुलता ,उदिग्नता ,विवशता ,चिंता और खिन्नता का सजीव एवं मार्मिक वर्णन किया है। माता यशोदा का मातृत्व  कराह उठता है और वह भावी आशंका से विह्वल होकर चीख उठती हैं -
 
जसोदा बार-बार यौं भाखै ।
है कोउ ब्रज मैं हितू हमारौ, चलत गुपालै राखै ।।
कहा काज मेरे छगन-मगन कौं, नृप मधुपुरी बुलायौ ।
सुफलक-सुत मेरे प्रान हरन कौं, काल-रूप ह्वै आयौ ।।
बरु यह गोधन हरौ कंस सब, मोहिं बंदि लै मेलै ।
इतनौई सुख कमल-नैन मेरी अँखियनि आगैं खेलै ।।
बासर बदन बिलोकत जीवौं, निसि निज अंकम लाऊँ ।
तिहिं बिछुरत जौ जियौ करम-बस, तौ हँसि काहि बुलाऊँ ।।
कमल-नैन गुन टेरत-टेरत, अधर बदन कुम्हिलानी ।
सूर कहाँ लगि प्रगट जनाऊँ, दुखित नंद जु की रानी ।।

मात्र ह्रदय की कातरता ,दीनता ,विवशता ,क्षोभ गर्भित उदासीनता का विचित्र सन्निवेश वियोग वात्सल्य के इस चित्र में देखा जा सकता है - 
 
संदेसो दैवकी सों कहियौ।
`हौं तौ धाय तिहारे सुत की, मया करति नित रहियौ॥
जदपि टेव जानति तुम उनकी, तऊ मोहिं कहि आवे।
प्रातहिं उठत तुम्हारे कान्हहिं माखन-रोटी भावै॥
तेल उबटनों अरु तातो जल देखत हीं भजि जाते।
जोइ-जोइ मांगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करिकैं न्हाते॥
सुर, पथिक सुनि, मोहिं रैनि-दिन बढ्यौ रहत उर सोच।
मेरो अलक लडैतो मोहन ह्वै है करत संकोच॥

कृष्ण के मथुरा चले जाने पर माता यशोदा के ह्रदय में स्थित वात्सल्य प्रेम रह रहकर उदीप्त हो उठता है। वे उद्धव के माध्यम से अपने लाड़ले मनमोहन कृष्ण को शुभकामनाएँ भेजती हैं - 

कहियौ जसुमति की आसीस।
जहां रहौ तहं नंदलाडिले, जीवौ कोटि बरीस॥
मुरली दई, दौहिनी घृत भरि, ऊधो धरि लई सीस।
इह घृत तौ उनहीं सुरभिन कौ जो प्रिय गोप-अधीस॥
ऊधो, चलत सखा जुरि आये ग्वाल बाल दस बीस।
अबकैं ह्यां ब्रज फेरि बसावौ सूरदास के ईस॥

सूर के काव्य में माता के ह्रदय की झाँकी का अत्यंत ही स्पष्ट चित्र मिलता है। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर यशोदा आदत के अनुसार अब भी उन्ही कार्यों को करती हैं ,जिसे कृष्ण की उपस्थिति में किया करती थी। कृष्ण के लिए वह अब भी माखन तैयार करती हैं ,भोजन का समय होने पर वह कृष्ण की प्रतीक्षा करती हैं ,परन्तु उन्हें जब यह स्मरण हो जाता है कि कृष्ण तो यहाँ नहीं हैं ,वह मथुरा चले गए हैं ,तो वह घायल हरिणी की तरह से व्याकुल हो उठती हैं ,उनका ह्रदय पुत्र प्रेम की पीड़ा से सराबोर हो उठता है। बालक कृष्ण से सम्बन्ध रखने वाली अनेक घटनाएँ यशोदा के सम्मुख आती हैं ,परन्तु सभी के बीच उनका वात्सल्य भाव अविरल बना रहता है। 

संक्षेपतः सूरदास ने अपने वात्सल्य वर्णन में भावनाओं को उर्वरता प्रदान की है ,जो उनकी सर्जनात्मक क्षमता ,संबंधों की गरिमा ,प्रेम एवं कर्तव्य के अनुकूल विस्तार तथा रसमग्न ह्रदय की अनुभूतिशीलता को रमणीय प्रतिपादक शब्दों में बाँधकर मूर्तिमान कर देती है। अंध कवि महाकवि सूरदास जी का वात्सल्य वर्णन हिंदी साहित्य में अनूठा है। उनके इस वर्णन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वात्सल्य के सम्बन्ध में छोटी छोटी सी बात भी उनकी दृष्टि से नहीं छूटी है। कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन भक्त शिरोमणि सूरदास ने बड़े ही मधुर और हृदयहारी पदों में किया है। इनका सरल ,स्वाभाविक और पूर्ण चित्र तो हमारे ह्रदय को तो हरता ही है। माता यशोदा के मात्रु ह्रदय का वात्सल्यपूर्ण सूक्ष्म वर्णन सहृदय पाठक को भाव विमुग्ध कर देता है। 


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