सूरदास के काव्य में वियोग वर्णन सूरदास का वियोग वर्णन सूरदास वियोग श्रृंगार के विलक्षण कवि हैं सूरदास के विरह वर्णन की विशेषताओं का वर्णन गोपियों का व
सूर के काव्य में वियोग वर्णन
सूरदास के काव्य में वियोग वर्णन सूरदास का वियोग वर्णन सूरदास वियोग श्रृंगार के विलक्षण कवि हैं सूरदास के विरह वर्णन की विशेषताओं का वर्णन - सूरदास ने अपने काव्य साहित्य में वियोग श्रृंगार का अनूठा चित्रण किया है।उनका वियोग- शृंगार वर्णन उस समय से प्रारम्भ होता है, जब कृष्ण गोकुल से मथुरा चले जाते हैं। श्रीकृष्ण को मथुरा ले जाने के लिए अक्रूर जी जब आते हैं, उसी समय गोकुल में हलचल मच जाती है। सबके मन में यह आभास हो गया कि कृष्ण हम सबको छोड़कर मथुरा चले जायेंगे। गोपियों की व्याकुलता की तो कोई सीमा नहीं रह जाती है। वे विलखने लगती हैं। उनकी भावदशा का चित्रण प्रस्तुत है-
जसोदा बार-बार यौं भाखै।
हैं कोऊ ब्रज हितू हमारौ, चलत गुपालहिं राखै।
पता नहीं, अपने किस कार्य की सिद्धि के लिए नृप (कंस) ने मेरे 'छगन मगन' कृष्ण और बलराम का मथुरा बुलाया है।अक्रूर के प्रति भी यशोदा का क्रोध फूट पड़ता है-
कहा काज मेरे छगन-मगन कौं, नृप मधुपुरी बुलाया।
सुफलक-सुत मेरे प्रान-हरन कौं, काल रूप है आयौ ।।
श्रीकृष्ण के वियोग में ब्रज-मण्डल के पेड़-पौधों का तो बुरा हाल है ही, गायों की दशा और भी दयनीय है। जब कोई कृष्ण का नाम लेता है, तो उसे सुनकर गायें रँभाने लगती हैं। यही नहीं, कृष्ण ने जहाँ-जहाँ उनका दूध दुहा है, जब वे उस स्थान पर पहुँचती हैं, तब-
परति पछारि खाइ तिहि-तिहि मिलि, अति आतुर है दीन।
मानहुँ सूर काढ़ि डारी है, वारि मध्य तैं मीन ।।
श्रीकृष्ण के लिए गोपियों का विरह गान
ब्रज में गोपियों की दशा को तो कुछ कहना ही नहीं। वे श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी और बाल-क्रीड़ाओं का स्मरण करके ही अपने को संतोष दिला रही हैं। जिधर ही वे निहारती हैं, उन्हें श्री कृष्ण का स्मरण हो आता है। मथुरा प्रस्थान के पश्चात् ही कृष्ण की याद गोपियों को आने लगी थी कि किस प्रकार वे संध्याकाल में गाय चराकर बाँसुरी बजाते हुए घर वापस आते थे। उन्हें राधा के मान का वह प्रसंग याद आ जाता है कि जब राधा जी ने मान किया था और कृष्ण उन्हें मनाते-मनाते हार गये तब उनका चरण-स्पर्श कर लिया। गोपियों को यह विश्वास नहीं है कि श्रीकृष्ण के वियोग में कोई भी पूर्ववत् रह सकता है। तभी वे हरे-भरे मधुबन को देखकर उसे कोसती हुई कहती हैं-
मधुबन तुम कत रहत हरे।
विरह वियोग स्याम सुन्दर के, ठाढ़े क्यों न जरे ।।
गोपियाँ कृष्ण के विरह में इतनी व्याकुल हैं कि हरी-भरी प्रकृति को देखकर भी उनके तन में नख से शिख तक आग लग जाती है। उनका शरीर एक तो कृष्ण के विरह- जनित ताप से उत्तप्त है दूसरी ओर उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही है। तभी तो वे कहती हैं-
ब्रज तैं द्वै ऋतु पै न गई।
पावस अरु ग्रीषम प्रचंड सखि, हरि बिनु अधिक भई ।
ऊरध स्वाँस समीर, नयन घन, सब जल जोग जुरे।
बारसि जो प्रगट किये दुख दादुर, हुते जु दूरि हरे ।
विषम वियोग दुसह दिनकर सम दिन प्रति उदय करे।
हरि बिधु विमुख भए कहि सूरज, की तन ताप हरे ।।
वियोग में गोपियों की विषम स्थिति उस समय और भी दयनीय एवं विडम्बनापूर्ण हो जाती है, जब कृष्ण की 'पाती' आती है। सब की सब अपने प्यारे के पत्र को पढ़ने के लिए व्यग्र हो उठती हैं। दुःख का उद्वेग और बढ़ जाता है-
पाती मधुबन ही तै आई ।
सुन्दर स्याम आप लिखि पठई, आइ सुनौ री माई । ।
अब सब उसे देखती है-
निरखति अंक स्याम सुन्दर के, बार-बार लावति लै छाती।,
लोचन जल कागद मसि मिलि के, है गड़ स्याम स्याम जू की पाती
मार्मिक वर्णन
सूरदास ने विरह-वर्णन को अधिक मार्मिक और स्वाभाविक बनाने के लिए पावस, शरद आदि ऋतुओं, चन्द्रमा, रात्रि, बादल, पपीहा, निकुंज आदि की व्यंजना की है। ये सभी प्राकृतिक उपादान संयोगावस्था में तो अतिशय आनन्ददायक थे, किन्तु वियोगावस्था में उतने ही कष्टदायक प्रतीत हो रहे हैं। पावस ऋतु में झूलने पड़ते थे। सारी ब्रजबालाएँ हिँडोल लीला करती थीं, लेकिन आज आँखों की दशा पावस ऋतु जैसी हो गयी है। सभी ऋतुएँ तो समाप्त हो रही हैं, किन्तु पावस ऋतु ब्रज से जाने का नाम ही नहीं ले रही है-
निसि दिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति बरसा-रितु हम पर, जब तैं स्याम सिधारे।
दृग अंजन न रहत निसि वासर, कर कपोल भये कारे।।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि सूर का विरह-वर्णन हिन्दी-साहित्य में अद्वितीय है। विरह की जितनी स्थितियाँ सम्भव हैं उन सबकी स्वाभाविक एवं मार्मिक व्यंजना सूर के पदों में प्राप्त होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- “वियोग की जितनी अन्तर्दशाएँ हो सकती हैं। जितने ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यतः हो सकता है, वे सब उसके भीतर मौजूद हैं।"
Sur viyog par tipani
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