गाँव से अच्छी खबरें आनी बंद हो गयी हैं।बस हादसे की खबरें आती हैं।दुर्गा को लकवा हो गया है,पँड़ाइन आजी मर गयीं।गुड्डी के ससुराल वालों ने छोड़ दिया है।
गाँव से अच्छी खबरें आनी बंद हो गयी हैं
इस बार गाँव में लंबा रहना हुआ,लगभग 15 दिन लगातार।याद भी नहीं पिछली बार कब 15 दिन के लिए गांव में रुका होऊंगा।शायद एम ए के बाद रुका होऊंगा।अब नौकरी में आने के बाद एक दिन के लिए भी गांव जाना हो तो कुछ न कुछ टूटा फूटा या बदला दिखता है।यह बदलाव 90 प्रतिशत बार सकारात्मक नहीं होता।गाँव पहले भी उदास से थे लेकिन पंद्रह दिन रहने के बाद और गांव से लगातार संवादी होने के बाद पता चला है कि गांव उदासी से आगे डिप्रेशन सो भी सीवियर डिप्रेशन का शिकार है।पहले गांव को गुदगुदाओ तो हंस देता था अब गुदगुदाओ को खिसियाई हंसी हंसता है जो हंसी नहीं रोना है।दवा दारू के अभाव में लोग असमय मर रहे हैं वह एक तरह की हत्या है पर जिसके लिए कोई जिम्मेदार नही है जिसका कोई कातिल नहीं है।
गांव में अब बुढापा धीरे धीरे नहीं अचानक आता है।छप्पर और खपरैल की जगह बेरंग पक्के उदास मकान हैं।पहले पूरे गांव में रौनक होती थी अब कुछ ही घरों में हैं।बेरोजगार बाप बड़ी होती जा रही बेटी को देखकर हैरान है बेटी खुद अपने बढ़ने पर शर्मिंदा हैं।महिलायें अब भी रेलिया बैरी के गीत गा रही हैं।पति दिल्ली मुम्बई और श्रम की नई नई मंडियों में जवानी बेच रहा है।बच्चे टाई लगाकर 'अंग्रेजी'स्कूल में जा रहे हैं।जवानी गिरवी रख चुका पिता हैरान है उसकी जिंदगी चूल्हे को गर्म रखने पर ही खर्च हो रही है।हर बार सोचता है पति कि इस बार पत्नी को वीडियो कॉल वाला फोन दिलाएगा।वह बच्चों का मुंह देखना चाहता है।पत्नी की आंखों में उग आए इंतज़ार के जंगल में झांकना चाहता है।
गाँव से अच्छी खबरें आनी बंद हो गयी हैं।बस हादसे की खबरें आती हैं।दुर्गा को लकवा हो गया है,पँड़ाइन आजी मर गयीं।गुड्डी के ससुराल वालों ने छोड़ दिया है।बच्चा देने वाली भैंस मर गयी।धान को बनैले पशु और जंगली सुअर खा गए हैं।कुछ लोग अश्लील ढंग से अमीर हो गए हैं तो बहुसंख्यक लोग अश्लीलता की हद तक गरीब हैं।महिलायें बीमार हैं बच्चे कुपोषित हैं।युवा अपने सारे सपने जिओ के नाम कर चुका है मुंह मे गुटके का दो दाना डाल कर वह जियो के जरिये जन्नत की ज़ुस्तज़ू में लगा है।शादी के इंतज़ार में बैठी लड़कियां कताई,बुनाई और क्रोशिया सीखकर छोड़ चुकी हैं।अब वे कनपटी के पास उपट रहे सफेद बाल को सस्ती मेहदी से ढंकती हैं।व्रत और उपवास रखती हैं।देवता भी शायद यह भूल चुके हों भारत आज भी गांवों का देश है।पेंशनभोगी बुजुर्गों के घर में पेंशन के लिए तलवारें खिंची हैं।बीमारी से पस्त चंदर काका जब अपनी जवानी में दिल्ली में सिलवाया झोले जैसा ढीला ढाला कुर्ता पहन कर कूबड़ खींच कर खड़े होते हैं तो लगता है वह कुर्ता नहीं दुःख ही पहन लिया है।पूरी जिंदगी तन कर खड़े काका को यूं बेबस देखना संताप है।कई बार लगता है गाँव अंधे कुएं में गिर गया है वह बाहर निकलना चाहता है उसकी हर बार छलांग कम पड़ जा रही है बाहर निकलने के लिए।बार बार छलांग से कुएं में दलदल हो गया है।गांव दलदल से पुकार रहा है ..
दिल्ली आने के बाद भी गांव मेरे भीतर पके फोड़े सा टपक रहा है।गाँव भी भीष्मपितामह की तरह शर शैया पर पड़ा है।पर जिसे अपनी मुक्ति की तिथि पता नहीं है।
- शंखधर दूबे
दिल्ली
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