एक शिक्षक के नोट्स

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एक अच्छे शिक्षक के अध्यापन की कला फैंटेसी पर निर्भर करती है।यह फैंटेसी साल-दर-साल बदलती रहती है।फलतःक्लास नोटस भी बदलते रहते हैं।शिक्षक का काम अपनी भाषा को छात्र के अंदर उतार देना नहीं है,बल्कि वह तो छात्र की भाषा को बदल देता है।

एक शिक्षक के नोट्स


एक शिक्षक के नोट्स मैंने जब सन् 1989 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रवक्ता पद पर काम करना शुरू किया यहां का हिन्दी विभाग और यहां काम कर रहे शिक्षकों के पढ़ाने की परंपरा को समझना सबसे पहली चुनौती थी।सामान्य तौर पर विद्यार्थियों की पढ़ने-पढ़ाने की आदत बनाने में विभाग की सामूहिक जिम्मेदारी
नोट्स
होती है।पढ़ाने की दूसरी बड़ी चुनौती छात्र-छात्राओं की अकादमिक अभिरूचियों को जानना था। कक्षा में मुझे हिन्दी साहित्य का इतिहास, संस्कृत काव्यशास्त्र और पाश्चात्य काव्यशास्त्र पढ़ाना था।बाद में हिन्दी पत्रकारिता पढ़ाने की जिम्मेदारी दी गयी।

मैं जब पहलीबार अप्रैल1989 में कक्षा में गया तो विद्यार्थियों से पूछा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल या हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहासग्रंथ पढ़े या देखे हैं,तो कक्षा में सबने कहा न तो देखे हैं और न पढ़े हैं। यह मेरा पहला अनुभव था।मैं कई साल तक एम ए प्रथम वर्ष में आने वाले विद्यार्थियों से नियमित यही सवाल पूछता रहा और हमेशा उनको शुक्लजी और द्विवेदीजी के इतिहास ग्रंथ पढ़ने के लिए कहता रहा।तकरीबन छ-सात साल बाद पहलीबार यह सुनने को मिला कि हां शुक्लजी या द्विवेदीजी के इतिहास ग्रंथ देखे या पढ़े हैं।इससे आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि बीए ऑनर्स के स्तर तक किस तरह के पठन-पाठन की दशा थी और मेरे यहां आने के पहले कलकत्ता विश्वविद्यालय में इतिहास किस तरह पढाया जाता था.अनुभव से यह भी पता चला कि मुक्तिबोध को हमारे यहां न तो पढ़ते हैं और न पढ़ाते हैं। खैर,तब से लेकर आज तक बहुत कुछ बदला है।लेकिन यह सिर्फ झांकी मात्र है। इस समस्या की जिसकी ओर मैं आपको ले जाना चाहता हूं।

मूल समस्या यह है एक शिक्षक के नोट्स कैसे हों ॽ नामवरसिंह के क्लास नोटस सामने आ चुके हैं।उन पर कभी फुर्सत में विस्तार से लिखने का मन है।इधर उनके नोटस पर कुछ लिखा भी है,जो आपको मेरी नई किताब ´नामवर सिंहः समीक्षा के सीमान्त´में देखने को मिलेगा। सवाल यह है क्लास नोटस कैसे हों ॽ खासकर जब किताब की शक्ल में आएं तो उनको किस रूप में पेश करें ॽहिन्दीवालों के सामने सबसे बेहतरीन मानक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रखा है ´हिन्दी साहित्य का इतिहास´ लिखकर।यह इतिहास ग्रंथ आज भी साहित्येतिहास में मील का पत्थर है।

मैंने पत्रकारिता के अपने सारे नोट्स ´हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका´के नाम से लिखकर हिन्दी के पत्रकारिता के विद्यार्थियों के हवाले कर दिए।मैंने महसूस किया कि एक शिक्षक के नोटस वे होते हैं जो नए
जगदीश्वर चतुर्वेदी
जगदीश्वर चतुर्वेदी
नजरिए और विश्लेषण के नए उपकरणों को सामने लाएं,विषय से संबंधित नयी खोज,अवधारणाओं आदि के विश्लेषण पर जिनमें जोर दिया गया हो। एक शिक्षक के नोटस पहले कही गयी बातों की पुनरावृत्ति मात्र न हों।
मैं जिस समय पत्रकारिता पढ़ा रहा था तो देश बड़ी गंभीर समस्याओं में उलझा हुआ था,उन सभी समस्याओं की अभिव्यंजना पत्रकारिता की कक्षाओं में भी होती थी और वो मेरी किताब में भी है।मैं अपने तरीके से पत्रकारिता के पठन-पाठन का एक नया मॉडल लेकर चल रहा था,मेरे सामने किसी भी विश्वविद्यालय का पत्रकारिता का पाठ्यक्रम नहीं था।´हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका´ नामक किताब सन् 1997 में प्रकाशित हुई,मैंने अपनी पत्रकारिता या मीडिया संबंधी समझ,धारणाएं आदि बनाने में हेबरमास,रेमण्ड विलियम्स,एस.हॉल,एडोर्नो आदि से मदद ली।

मैंने उस किताब की भूमिका में लिखा ´पत्रकारिता अध्ययन का एक स्वतंत्र अनुशासन है।इसे अधिरचना के किसी क्षेत्र या अनुशासन का विस्तारित केन्द्र वहीं मान लेना चाहिए।साथ ही राजनीतिक आंदोलन का यह प्रतिबिम्ब मात्र नहीं है,अपितु यह एक स्वतंत्र अधिरचना है।इसका अधिरचना के अन्य रूपों से गहरा संबंध एवं संपर्क है।आधार की शक्तियों के संघर्ष इवं अंतर्विरोधों ,वैचारिक अंतर्वस्तु एवं रूपों,अभिरूचियों एवं आदतों के निर्माण में इसकी निर्णायक भूमिका होती है।इसकी प्रक्रिया,विचारधारा एवं संरचना का अद्ययन जनमाध्यमों के नियमों,प्रक्रियाओं एवं सिद्धान्तों की रोशनी में ही संभव है।माध्यमों की प्रक्रिया का बहुआयामी प्रभाव होता है।इसीलिए इसके किसी एक किस्म के प्रभाव को खोजने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।

शिक्षण के मामले में मैं रोलां बार्थ के पढ़ाने की कला का कायल हूं।संभवतःपढाते समय वे मेरे जेहन में रहते हैं। मैं रोलां बार्थ से सहमत हूँ कि शिक्षण को फैंटेसी की तरह होना चाहिए।यानी इसमें आपकी इच्छाएं आएं और जाएं,शिक्षक उनको अंतहीन रूप में अभिव्यंजित करे।एक अच्छे शिक्षक के अध्यापन की कला फैंटेसी पर निर्भर करती है।यह फैंटेसी साल-दर-साल बदलती रहती है।फलतःक्लास नोटस भी बदलते रहते हैं।शिक्षक का काम अपनी भाषा को छात्र के अंदर उतार देना नहीं है,बल्कि वह तो छात्र की भाषा को बदल देता है।शिक्षण का काम है तीसरी भाषा पैदा करना है,अन्य अर्थ की सृष्टि करना । कक्षा लेना असल में भाषणशक्ति के जरिए विरेचन करना भी है।जब आप पढ़ाते हैं तो मैं और तुम की भाषा में नहीं पढ़ाते,बल्कि तीसरी भाषा में पढ़ाते हैं,’ नेचुरल भाषा´में पढ़ाते हैं।वायनरी अपोजीशन की भाषा में नहीं पढ़ाते,बल्कि ´नेचुरल भाषा´में पढ़ाते हैं।तटस्थ भाव से पढ़ाते हैं।आप सपनों से मुक्त होकर पढ़ाते हैं।पाठ के अर्थ से मुक्त होते हुए पढ़ाते हैं।पाठ के अर्थ से बंधकर पढ़ाने में मुश्किल यह है कि आप तीसरे अर्थ की सृष्टि नहीं कर सकते,नए अर्थ की सृष्टि नहीं कर सकते,विरेचन नहीं कर सकते,नई भाषा की सृष्टि नहीं कर सकते।शिक्षण का अर्थ है नई भाषा और नए अर्थ की सृष्टि करना।


- जगदीश्वर चतुर्वेदी

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