अपना बचपन खोने को मजबूर बच्चे

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लड़कियां अपने माता-पिता की आर्थिक तंगी और क्षेत्र की खराब होती स्थिति के कारण विस्थापित होकर अपना बचपन खोने को मजबूर हैं

 भरण-पोषण की तलाश में खोता बचपन


सम के बारपेटा क्षेत्र के चरचापुरस की सात वर्षीय अमरीन अपनी सबसे अच्छे दोस्त अमू को याद करती है, जो अपने परिवार के साथ उत्तर प्रदेश के लखनऊ में चंदन बस्ती में रहने के लिए आ गई है. अमू, स्कूल नहीं जाती है बल्कि घर पर रहती है और घर की देखभाल करती है, जबकि उसके परिवार में हर कोई दूसरों के घरों से कचरा इकट्ठा करने में व्यस्त है. हालांकि वह अपने घर के बाहर बाल श्रम में शामिल नहीं है, लेकिन इतनी कम उम्र में घर की देखभाल का बोझ उसी के कंधे पर है. भाषा की बाधा के कारण लखनऊ के स्थानीय स्कूलों में उनके लिए कोई जगह नहीं है क्योंकि यहां शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी और हिंदी है. 

बरपेटा में स्कूल नहीं जाने वाले अमू जैसे बच्चों के लिए लखनऊ आकर यहां के स्कूलों में पढ़ना बेहद मुश्किल है. असम में भी उसका जीवन बेहतर नहीं था, जहां वह अमरीन के घर के पास रहती थी. यह इलाका ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे मुस्लिम प्रवासियों की एक छोटी सी बस्ती है. जहां उन्हें बांग्लादेशी अवैध प्रवासी के रूप में संबोधित किया जाता है और इस कारण हमेशा असम में उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता रहा है. भौगोलिक और वित्तीय कमजोरियों ने इस समुदाय को अस्थिर और सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दिया है. उनके बच्चों को कम उम्र से ही कई खतरों का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप उनका भविष्य अनिश्चित होता जा रहा है.

अपना बचपन खोने को मजबूर बच्चे
अन्य बच्चों की तरह अमरीन को भी अभाव और भेदभाव का सामना करना पड़ता है. उसके पिता मोईन किसान हैं जबकि मां सबा गृहिणी है. स्कूल जाने के अवसर से वंचित, अमरीन और उसकी ग्यारह वर्षीय बहन शमा अपने घर और परिवार को पालने में अपनी भूमिका निभा रही है. अमरीन अपनी मां के साथ खेती किसानी के लिए खेत जाती है, जबकि छोटी बहन शमा अपने दादा-दादी की देखभाल और घर के कामों में उनका हाथ बटाती है. अफ़सोस की बात है कि जिन बच्चों को इस उम्र में स्कूल जाना था, वे ऐसा जीवन चुनने को मजबूर हैं जहां उनके लिए स्कूल से बाहर रहने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं है. 

उन्होंने इस बाहरी दुनिया को केवल टेलीविज़न और YouTube वीडियो के माध्यम से देखा है, जो उनके पिता ने अपनी मेहनत की कमाई से सेकंड हैंड स्मार्टफोन खरीद कर दिया है ताकि वह इस दुनिया को देख सकें और खुश रह सकें. उनके पिता एक मालिक के एक छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर मामूली किसान के रूप में काम करते हैं. पारिवारिक भूमि का स्वामित्व चारिस निवासियों को बिना पट्टे (भूमि के स्वामित्व के लिए कानूनी दस्तावेज) के बिना जारी किया जाता है. 

ध्यान रहे कि चारिस ब्रह्मपुत्र नदी पर एक तैरता हुआ द्वीप है, जबकि चरचापुरस का इलाका एक निचली बाढ़ वाली नदी के किनारे है जो जल स्तर के आधार पर आकार बदलती है. यह क्षेत्र पश्चिम से ब्रह्मपुत्र तक फैली हुई हैं. मोइन खेती के अलावा अपने बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों का पेट भरने के लिए काम की तलाश में पड़ोसी जिलों में भी जाते हैं। हालाँकि उनके कई पड़ोसी बेहतर अवसरों के लिए अलग-अलग शहरों में चले गए हैं, लेकिन वे वहीं रहना पसंद करते हैं क्योंकि उनके माता-पिता असम में अपना घर नहीं छोड़ना चाहते हैं, वे अपनी मातृभूमि और मिट्टी से प्यार करते हैं.

2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, बढ़ती जातीय भेदभाव के बाद अब तक करीब 90,000 से अधिक लोग बारपेटा से लखनऊ विस्थापित हो चुके हैं. हालांकि यहां वह पूर्वाग्रहों और जातीय संघर्षों से तो बच गए परंतु शहरों में भेदभाव के नए रूप खुल गए हैं. इसके अलावा असम के बच्चे अपनी मातृभूमि और प्रवासी राज्यों में अपना बचपन खो रहे हैं. अपने दोस्तों को याद करते हुए, नन्ही अमरीन ने अपने जीवन के बारे में बताया और कहा, "पहले मेरे कई दोस्त थे. लेकिन धीरे-धीरे अब सब चले गए हैं. तब से यह जगह मुझे भी अजीब लगने लगी है, उनके बिना मुझे दुख होता है. मैं उनके साथ जाना चाहती थी, लेकिन पिताजी हमें नहीं ले जाएंगे” 

खेती के काम में अपनी माँ की मदद करने के बाद, अमरीन काम से ब्रेक के दौरान नदी के किनारे खेलना पसंद करती है. लेकिन दोस्तों के बिना ही, यही कारण है कि उसे अब खेल का आनंद भी नहीं मिलता है. उसने अफ़सोस और उदास चेहरे के साथ कहा, "काश! अमू यहां होती.' अमरीन चहक कर कहती है कि "वह मुझसे मिलने आई थी तो मेरे लिए एक प्यारा सा गिफ्ट पैक लेकर आई थी." बहरहाल, अमरीन, शमा और अमू जैसी लड़कियां अपने माता-पिता की आर्थिक तंगी और क्षेत्र की खराब होती स्थिति के कारण विस्थापित होकर अपना बचपन खोने को मजबूर हैं. लेखिका डब्लूएनसीबी की फेलो हैं. (चरखा फीचर)



- निधि तिवारी
असम

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