भारत में सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के

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भारत में सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के Bharat Mein Cinema Ke Janak Class 8 CBSE पाठ का सारांश पाठ के प्रश्न उत्तर वितान हिन्दी पाठमाला मनमोहन चड्ढा

भारत में सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के



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भारत में सिनेमा के जनक पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ या जीवनी भारत में सिनेमा के जनक , जीवनीकार मनमोहन चड्ढा जी के द्वारा लिखित है । आज सिनेमा के जिस स्वरुप को हम अपने मनोरंजन का सशक्त माध्यम मानते हैं, कभी यह भारतीयों के लिए कल्पनातीत था । अब से तकरीबन सौ साल पहले दादा साहब फाल्के ने इसे हमारे लिए संभव बनाया था, जिस सिनेमा का आज विस्तृत रूप हम देख पा रहे हैं ।

भारत में सिनेमा कला के जनक और दादा साहब फाल्के नाम से विख्यात घुंडीराज गोविंद फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को नासिक ज़िले के त्र्यंबकेश्वर गाँव के एक ब्राहमण परिवार में हुआ था । जब फाल्के जी के पिता मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में अध्यापक नियुक्त होकर आए, तब फाल्के जी की रुचियों (चित्रकला, नाट्य अभिनय और जादूगरी इत्यादि) को विकसित होने का सुनहरा अवसर मिला । दसवीं की परीक्षा पास होने के पश्चात् फाल्के जी ने मुंबई के ‘जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स’ में दाखिला ले लिया । यहाँ पर उन्होंने ललित कलाओं का प्रशिक्षण लिया । इसी दौरान छायांकन की कला ने उन्हें विशेष रूप से आकर्षित किया । इसके बाद उन्होंने बड़ौदा के कला भवन से छायांकन का विधिवत प्रशिक्षण लिया और फिल्म प्रोसेसिंग की तकनीक से परिचित हुए । 1910 की बात है, ‘दि अमेरिका इंडिया सिनेमाटोग्राफ’ नामक मुंबई के सैंडहर्स्टन रोड पर एक तंबू सिनेमाघर हुआ करता था । इसमें विदेशों में बनी फ़िल्में दिखाई जाती थीं । क्रिसमस के आसपास वहाँ क्राइस्ट का जीवन फ़िल्म दिखाई जा रही थी, जिसे फाल्के जी भी देखने गए । फ़िल्म देखने के बाद फाल्के जी काफ़ी प्रभावित हुए । घर लौटने पर वे सारी रात बेचैन रहे । पत्नी सरस्वती बाई फाल्के ने बैचैनी का कारण पूछा तो अगले दिन पत्नी को भी सिनेमा दिखाने ले गए । फिल्म की समाप्ति पर उनकी पत्नी ने उनसे पूछा कि वे तस्वीरें चल कैसे रही थीं ?  फाल्के जी ने उन्हें प्रक्षेपण कक्ष के पास ले गए और बताया कि इस मशीन द्वारा ही सब कुछ होता है । अगले दो माह वे घर में तभी चैन से बैठते थे, जब मुंबई के सिनेमाघरों में लगी सभी फ़िल्में देख चुके होते थे । घर लौटकर उन सभी फ़िल्मों का विश्लेषण करते और यह सोचते कि क्या ऐसी फ़िल्में यहाँ भी बनाई जा सकती हैं ? हमारे देश में भी यह उद्योग फल-फूल सकता है ?  फाल्के जी हर दिन कोई न कोई प्रयोग करते रहते । लंदन से छपनेवाली सिनेमा संबंधी पत्रिकाएँ मँगाने लगे । अगले छह महीने केवल तीन घंटे ही सोना नसीब हुआ । लगातार फ़िल्में देखने, अनिद्रा और प्रयोगों में जुटे रहने से उनकी आँखें थकने लगीं और दिखना लगभग बंद हो गया । आँखों के कार्निया में अल्सर हो गया था । एक वर्ष तक डॉक्टर प्रभाकर के इलाज़ के बाद आँखों में रौशनी वापस लौटी । बीमारी के दौरान ही उन्होंने अपनी कला के प्रदर्शन का सही तरीका खोज लिया था । बीमारी से उठने के बाद उन्होंने एक मटर का दाना खुले गमले में बो दिया और धैर्यपूर्वक उसके अंकुरण और विकसित होने के चित्र लेने लगे । एक दिन जब पौधा पूरा उग आया तो फाल्के की पहली फ़िल्म मटर के पौधे का विकास भी बनकर तैयार हो गई । इस फ़िल्म को देखने के बाद एक व्यापारी मित्र नाडकर्णी ने सूद पर रकम देने का प्रस्ताव रखा ताकि लंदन जाकर फ़िल्म निर्माण संबंधी उपकरण लाए जा सकें । 

भारत में सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के
फाल्के जी बायस्कोप नामक जो पत्रिका लंदन से मँगाया करते थे, फरवरी 1912 में लंदन पहुँचने पर इसी पत्रिका के संपादक कैबोर्न ने उपकरणों की खरीददारी में फाल्के की मदद की और ए.बी.सी ऑफ़ सिनेमेटोग्राफी के लेखक सिसिल हैपबर्थ से मिलवाया । वह वाल्टन फ़िल्म कंपनी में फ़िल्में बनाने का काम करते थे । उन्होंने फाल्के को फ़िल्म निर्माण का प्रशिक्षण दिया । पहली अप्रैल, 1912 को फाल्के जी ने एक विलियमसन कैमरा, फ़िल्म धोने और मुद्रित करने के उपकरण, कच्ची फ़िल्म और एक पर्फोरेटर सहित हिंदुस्तान की धरती पर कदम रखा । फ़िल्म निर्माण के उद्योग में फाल्के जी के पहले सहायक उनके परिवार के सदस्य बने । फाल्के जी तय किया कि पहले एक छोटे बजट की फ़िल्म बनाई जाए । उन दिनों राजा हरिश्चंद्र विषय पर एक नाटक मुंबई में हिट जा रहा था । इसलिए फाल्के ने भी राजा हरिश्चंद्र पर फ़िल्म बनाना तय किया । उस समय के नाटकों में भी स्त्री पात्रों की भूमिका पुरुष ही किया करते थे । फाल्के अपनी फ़िल्म में स्त्री पात्रों की भूमिकाएँ स्त्रियों से ही कराना चाहते थे जो एक असंभव इच्छा थी । उस ज़माने में किसी भी महिला से फ़िल्म में अभिनय करने के विषय में पूछना कठिन था । निराश फाल्के जब एक रेस्तरां में बैठे थे, तब उन्हें एक युवक दिखाई दिया जो बावर्ची का सहायक था । इस युवक के कोमल अंगों और पतली-नाज़ुक उँगलियों को देखकर फाल्के जी ने उसे अभिनेत्री बनाने का निर्णय लिया । बाद में लंकादहन फ़िल्म में सालुंके नाम के इस युवक ने दोनों भूमिकाएँ कीं । उस समय सालुंके देश का सबसे लोकप्रिय अभिनेता और अभिनेत्री था । 

1912 में मानसून के बाद मुंबई के दादर इलाके में राजा हरिश्चंद्र के फिल्मांकन का काम आरंभ हुआ । दिनभर फ़िल्म की शूटिंग चलती और सभी काम करनेवालों के लिए खाना बनता । रात को फ़िल्म को प्रोसेस करने और संपादन का काम किया जाता । रात-दिन लगकर पति-पत्नी ने छह माह में फ़िल्म तैयार की । 21 अप्रैल, 1913 को मुंबई के ओलम्पिया सिनेमा में राजा हरिश्चंद्र का पहला शो गणमान्य नागरिकों और प्रेस के प्रतिनिधियों को दिखाया गया । 3 मई, 1913 को कोरोनेशन थिएटर में फ़िल्म का नियमित प्रदर्शन आरंभ हुआ । वहाँ यह लगातार 23 दिन तक चली, जो एक रिकॉर्ड था । 3 अक्टूबर, 1913 को दादा साहब फाल्के अपना स्टूडियो मुंबई से नासिक ले गए । जहाँ उन्होंने मोहिनी-भस्मासुर फ़िल्म बनाई । 

नए उपकरण खरीदने के लिए फाल्के जी फिर विदेश गए । अपने साथ अपनी फ़िल्में मोहिनी-भस्मासुर और सावित्री-सत्यवान के प्रिंट भी ले गए । वह इनके ज़रिए विदेश में अपनी भावी सफलता को परखना चाहते थे । जून 2014 को फाल्के जी लंदन गए, जहाँ उनकी फ़िल्मों को ख़ूब सराहा गया । ब्रिटिश समाचार-पत्रों में छपा कि तकनीकी दृष्टि से ये फ़िल्में उच्चकोटि की हैं । फाल्के जी को इंग्लैंड में ही रहकर फ़िल्में बनाने का आमंत्रण दिया गया, लेकिन वे हिन्दुस्तान लौट आए और अपने मानस-सुत भारतीय सिनेजगत को नई ऊँचाइयों तक ले जाने में जुटे रहे । फाल्के जी की फ़िल्म लंकादहन 1917 में बनकर तैयार हुई, जिससे ख़ूब आय हुई । इसके पश्चात् फाल्के जी ने कृष्ण-जन्म और कालिया मर्दन फ़िल्में बनाईं । फाल्के जी की रूचि सिनेमा के रचनात्मक पक्ष में भी थी । इसलिए इन कथा फ़िल्मों के साथ-साथ वे लघु फ़िल्में भी बनाया करते थे । 1930 तक बनी तमाम फ़िल्में मूक हुआ करती थीं । उनमें चल-चित्र तो थे मगर सभी पात्र मूक अभिनय किया करते थे । 1931 में भारत में पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा थी । फाल्के जी ने भी एक बोलती फ़िल्म गंगावतरण बनाकार अपनी फ़िल्म यात्रा को फ़िल्मों के दूसरे दौर पर लाकर विराम दिया...।।   


भारत में सिनेमा के जनक पाठ के प्रश्न उत्तर

प्रश्न-1- दादा साहब फालके अपना स्टूडियो मुंबई से किस शहर में ले गए ? 
उत्तर- दादा साहब फालके अपना स्टूडियो मुंबई से नासिक शहर में ले गए । 

प्रश्न-2- बड़ौदा के कला भवन से इन्होंने क्या-क्या सीखा ? 
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, बड़ौदा के कला भवन से इन्होंने छायांकन का विधिवत प्रशिक्षण लिया और फ़िल्म प्रोसेसिंग की तकनीक भी सीखा । 

प्रश्न-3- कोई अपने बच्चे को रोहिताश्व का अभिनय क्यों नहीं करने देना चाहता था ? 
उत्तर- कोई अपने बच्चे को रोहिताश्व का अभिनय इसलिए नहीं करने देना चाहता था, क्योंकि कथा में रोहिताश्व की साँप के काटने से मृत्यु हो जाती है । 

प्रश्न-4- भारत में बनी पहली मूक फ़िल्म का नाम क्या था ? 
उत्तर- भारत में बनी पहली मूक फ़िल्म का नाम ‘राजा हरिश्चंद्र’ था । 

प्रश्न-5- इस पाठ में दादा साहब फालके के बचपन के विषय में क्या जानकारी मिलती है ? 
उत्तर- दादा साहब फालके का जन्म 30 अप्रैल, 1870 को नासिक ज़िले के त्र्यंबकेश्वर गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । परंपरानुसार उन्हें संस्कृत और पुरोहिताई की शिक्षा दी गई । वे जल्द ही चित्रकला, नाट्य अभिनय और जादूगरी में रूचि लेने लगे । उन्हें अपनी रुचियों को विकसित करने का सुनहरा अवसर मुंबई आकर मिला जब उनके पिता मुंबई के एलफिन्स्टन कॉलेज में अध्यापक नियुक्त होकर आए । 

प्रश्न-6- दादा साहब का रुझान फ़िल्म बनाने की ओर कैसे हुआ ? 
उत्तर- 1910 की बात है, ‘दि अमेरिका इंडिया सिनेमाटोग्राफ’ नामक मुंबई के सैंडहर्स्टन रोड पर एक तंबू सिनेमाघर हुआ करता था । इसमें विदेशों में बनी फ़िल्में दिखाई जाती थीं । क्रिसमस के आसपास वहाँ क्राइस्ट का जीवन फ़िल्म दिखाई जा रही थी, जिसे फाल्के जी भी देखने गए । फ़िल्म देखने के बाद फाल्के जी काफ़ी प्रभावित हुए । घर लौटने पर वे सारी रात बेचैन रहे । यहीं से दादा साहब का रुझान फ़िल्म बनाने की ओर अग्रसित हुआ । 

प्रश्न-7- फ़िल्म निर्माण में दादा साहब को किन कठिनाईयों का सामना करना पड़ा ? 
उत्तर- दादा साहब को उस दौरान अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा, जैसे – फ़िल्मों में काम करने के लिए स्त्री पात्र नहीं मिला करते थे, लड़कों से ही स्त्री पात्र का भी अभिनय करवाना पड़ता था । उन्हें फ़िल्मों में काम करने के लिए अन्य पात्रों की तलाश के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था । फ़िल्म निर्माण में बेहतर तकनीक की आवश्यकता की चुनौती के साथ-साथ बजट की समस्या भी सर्वज्ञात है ।     

प्रश्न-8- लंकादहन फ़िल्म की क्या-क्या विशेषताएँ थीं ? इससे कितनी आय हुई ? 
उत्तर- लंकादहन फ़िल्म का मुख्य आकर्षण का केंद्र था हनुमान की समुद्र पर उड़ान । हनुमान उड़ता हुआ आकाश में पहले बहुत ऊँचाई तक जाता है और फिर धीरे-धीरे छोटा होता जाता है । यह एक देखने लायक दृश्य था । इस फ़िल्म से केवल दस दिन में मुंबई के वेस्टएंड सिनेमा में बत्तीस हज़ार रूपए की आय हुई । मद्रास में इस फ़िल्म की टिकटों की बिक्री से जमा हुए सिक्कों को बैलगाड़ी में लादकर लाना पड़ा था । 


व्याकरण-बोध 
प्रश्न-9- निर्देशानुसार उत्तर दीजिए - 
उत्तर- निम्नलिखित उत्तर है - 
‘कठिनतम’ और ‘पुरोहिताई’ शब्द से प्रत्यय अलग कीजिए– (कठिन+तम)और(पुरोहित+आई) 
‘फल-फूल’ समास-विग्रह करते हुए समास का नाम – फल और फूल (द्वंद्व समास) 
‘गाँव’ और ‘बहू’ शब्द का तत्सम रूप – ग्राम और वधू 
‘शुरू’ और ‘खतम’ शब्द का हिंदी पर्याय – आरंभ और अंत 
‘चिन्ह’ और ‘सनयासी’ की शुद्ध एवं मानक वर्तनी – चिह्न और संन्यासी 
‘पत्रिकाएँ’ और ‘पुस्तकें’ का वचन बदलिए – पत्रिका और पुस्तक 
‘घुप्प अँधेरा’ में विशेषण शब्द को बदलिए – घोर अँधेरा  
 
प्रश्न-10- निर्देशानुसार सही विकल्प चुनकर लिखिए - 
उत्तर- निम्नलिखित उत्तर है - 
नकारात्मक वाक्य कौन-सा है ? – वे तसवीरें चल नहीं रही थीं । 
संदेहवाचक वाक्य कौन-सा है ? – शायद वे विदेश में नहीं रहना चाहते थे । 
सकारात्मक वाक्य कौन-सा है ? – मौसम बहुत अच्छा है । 
विस्मयादिबोधक वाक्य कौन-सा है ? – ओह ! अब फ़िल्म कैसे बनेगी ? 

प्रश्न-11- वाक्यों को शुद्ध करके पुनः लिखिए – (‘ने’ की अशुद्धियाँ) 
उत्तर-निम्नलिखित उत्तर है - 
मैंने जाऊँगा । - मैं जाऊँगा । 
मैं लिखना शुरू कर दिया है । - मैंने लिखना शुरू कर दिया है । 
हम तुमको मना किया था । - हमने तुमको मना किया था । 
विशाल खाना खा लिया है । - विशाल ने खाना खा लिया है । 
माली बगीचे को पानी दिया । - माली ने बगीचे को पानी दिया । 
रमेश ने तो चले जाना है । - रमेश को तो चले जाना है । 



भारत में सिनेमा के जनक पाठ के शब्दार्थ

मनोसंसार – मन का संसार 
प्रक्षेपण कक्ष – जहाँ से प्रोजेक्टर से फ़िल्म रिले की जाती है 
उपकरण – मशीन, साधन 
विश्लेषण – किसी चीज़ का अलग-अलग विवेचन करना 
बावर्ची – खाना बनानेवाला 
अनिद्रा – नींद न आना 
अंबार – ढेर, भंडार 
आश्वस्त – निश्चिन्त 
उच्चकोटि – ऊँचा स्तर 
सराहा – प्रशंसा या तारीफ़ की
छायांकन – फोटोग्राफी 
प्रयोगात्मक – ज्ञान को अमल में लाना 
उर्वरता – क्रियाशीलता, उपजाऊपन ।  

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