पिताजी और मैं | हिंदी कहानी

SHARE:

पिताजी और मैं आज नींद देर से खुली। बगल वाले बिस्तर पर देखा तो पिताजी अभी भी रज़ाई के अंदर थे, शांत और स्थिर। उनकी खर्राटें जो हर सुबह मुझे उठा देती थी

 पिताजी और मैं


ज नींद देर से खुली। बगल वाले बिस्तर पर देखा तो पिताजी अभी भी रज़ाई के अंदर थे, शांत और स्थिर। उनकी खर्राटें जो हर सुबह मुझे उठा देती थी आज कहीं भी नहीं है। लगता है अभी सुबह नहीं हुई है। लेकिन दरवाज़ें के नीचे से रौशनी की लंबी आड़ी लकीर मुझे दिख रही है। भोर हो गयी है। सूरज सामने वाले घर के ऊपर ज़रूर चढ़ चुका होगा। मैं एक बार फिर से पिताजी के बिस्तर की ओर देखता हूँ। पिताजी रज़ाई के अंदर सिर घुसाये लेटे हुए है। उनका आकार मुझे उनका रज़ाई बता रहा है। चौकी से छोटा, सर्दियों में सिकुड़ा, बच्चों सी करवट लिए वह सोये हुए हैं। मैं पिताजी को देख रहा था और अचानक एक पल के लिए मैं भयभीत हो गया। पिताजी का स्थिर शरीर मुझे भयभीत कर गया। जाड़े की शुरुवात से भीतर बनी आ रही डर पता नहीं क्यूँ आज सच हो गयी है इसका डर मुझे सताने लगा। मैं उठ कर बैठ जाता हूँ। ठंड में मेरा शरीर ठिठुरता है। तकिये के ऊपर रखे शॉल को उठा कर मैं ओढ़ लेता हूँ। और तभी इतनी देर में कुछ ऐसा हुआ जिससे सबकुछ रफ़ादफ़ा हो गया। मेरे भीतर पिताजी को लेकर बनता डर अपनी सीमा पर थम गया और बहुत ही थोड़े देर के लिए बिलकुल सतह पर मैंने एक राहत की अनुभूति की। मैं वापस रज़ाई के गरमाई में लौट आया। पिताजी के अंधेरे में घुल गए चेहरे को मैं देखने लगा। क्या ऐसे ही अंत होता है? रुक-रुक कर। डरा-डरा कर। हर सुबह परिजनों को भयभीत करते हुए है। मुझे मेरे नाना की याद आ रही है। हमेशा गर्मियों के छुट्टियों में आते थे मगर एक बार वह सर्दियों में आए थे। सुबह उठने पर उनका चेहरा सूजा होता था। आँखों के नीचे के गड्ढे फूल जाते थे, गाल फूल जाती थी और आवाज़ भारी सी बैठी सी जान पड़ती थी। उस वक़्त मैं बच्चा था मुझे नहीं मालूम था मृत्यु क्या होती है। लेकिन हर सुबह जब नाना को देखता था तो एक पल के लिए लगता था यही मृत्यु है। पिताजी को देखकर वैसी अनुभूति नहीं होती। पिताजी के गाल हल्के से फूलते है मगर वो मृत्यु की झलक नहीं दिखती जो नाना के चेहरे में दिखती थी। पिताजी स्वस्थ भी नहीं दिखते जिससे यह डर खत्म हो जाये। ऐसा प्रतीत होता है पिताजी हर रात जीवन के घर को बाहर से बंद करके मृत्यु के पथ पर चल पड़ते है और भोर होते ही वापस मेरे बगल वाले बिस्तर पर लौट आते हैं। हो सकता है एक दिन वह ऐसे ही दरवाज़ा बंद कर निकल पड़े और रात इतनी लंबी हो कि भोर का उन्हें आभास ही ना हो। दरवाजें के नीचे से आती रौशनी इतनी फींकी पड़ जाये कि उन्हें कुछ पता ही न चले। हो सकता है उस रात के बाद वह कभी लौट कर नहीं आए! मैं रज़ाई से चेहरा बाहर निकाल लेता हूँ। अप्रत्याशित रौशनी से मेरी मुलाक़ात होती है। रौशनी खिड़की और दरवाजे दोनों से आ रही है। बगल वाली बिस्तर पर पिताजी नहीं है। पिताजी की ओढ़ी रज़ाई उलटी पड़ी है। मैं दरवाजे के बाहर देखता हूँ। धूप ऊपर को चढ़ चुकी है और सीधे मेरे तकिये पर गिर रही है। मैं रज़ाई से बाहर आ जाता हूँ। शॉल ठीक कर आँगन में चला आता हूँ। पिताजी लौट आए है। आज रात देर नहीं हुई। आज की सुबह वह सुबह नहीं है! पिताजी आँगन में रखी चौकी पर सूरज को पीठ दिखाये कंबल ओढ़े बैठे है। वह झुककर बैठे है, पता नहीं नीचे अपनी गोद में क्या तलाश रहे हैं। 

“पिताजी!” मैं आवाज़ लगाता हूँ। पिताजी ने कोई प्रतिकृया नहीं दी। मैं एक बार फिर से आवाज़ लगाता हूँ। वह वैसे ही झुककर बैठे हैं। मैं धीरे से उनके करीब जाता हूँ। उनके कंधे पर हाथ रखता हूँ और फिर से उन्हें पुकारता हूँ। वह मुड़कर मेरी ओर देखते हैं। अंधेरे में आधा घुला चेहरा मुझे विस्मय में ताकता है। पिताजी शायद सो गए थे। वह आजकल बैठे बैठे सो जाते हैं। कुछ रोज पहले सोफ़े पर धूप सेकते सेकते वह सो गए थे। दिन का अधिकांश समय वह अर्धनिंद्रा में बिताते है। शायद यह भी चले जाने की प्रक्रिया का ही हिस्सा हो जैसे रात को चले जाना होता है। जागती सोचती अवस्था से धीरे धीरे अर्धनिंद्रा वाली अवस्था में चले जाना और फिर जड़ हो जाना। 

“पिताजी चाय पीजिएगा?” ठंडी हवाओं में काँपता मैं पूछता हूँ। पिताजी एक आवाज़ निकालते हैं जिसका मतलब हाँ होता है। उनके साथ समय बिताते बिताते उनके इस नवीन भाषा के पुकारों को मैं समझने लगा हूँ। शुरुवात में कठिन लगता था, उनकी आवाज़ से हाँ और न का पता लगाना, दोनों लगभग एक जैसी सुनायी पड़ती है घरघराहट एक जैसी। मैं आजकल हमेशा सही साबित होता हूँ। शायद पिताजी भी कोशिश करना छोड़ दिये है। जो मैं समझता हूँ उसी को वह भी मान लेते है। मैं रसोई में आ जाता हूँ। धूप का आयतकार टूकड़ा यहाँ चूल्हे पर गिर रहा है। मैं चूल्हे पर पतीला चढ़ा देता हूँ और कुछ देर तक खाली पतीले को देखता रहता हूँ। पतीले में पानी डालूँगा तो उसे चूल्हे की आग गर्म करेगी या धूप की गर्माहट? मैं अपने बेतूके सोच पर सोचकर हँसता हूँ और फिर पतीले में पानी उबलने के लिए डाल देता हूँ। दोनों हाथों को मलता हुआ मैं वापस कमरे में आता हूँ। पिताजी की बिस्तर और मेरी बिस्तर दोनों ठीक हो चुकी है। ओढ़ी हुई रज़ाई एक तरफ चपोत कर रख दिये गए है। मैं वापस आँगन में आता हूँ। पिताजी इस बार सूरज की ओर मुँह करके बैठे है मगर वैसे ही झूके हुए हैं, अपनी गोद में कुछ ढूँढ रहे है या फिर यह बस उनका इंतज़ार करने का तरीका है। मैं उन्हें देखकर देहरी से ही लौट आता हूँ। चूल्हे पर चढ़ा पानी उबल चुका है, धूप की गर्माहट से उबला है या चूल्हे की आग से?...

“पिताजी...” चाय का कप हाथ में लिए मैं पूछता हूँ। पिताजी शायद फिर से सो गए हैं। मैं उन्हें फिर से पुकारता हूँ। वह मुड़कर मुझे देखते है और अपना हाथ आगे बढ़ा लेते है। मैं उन्हें चाय का कप देकर उनसे दूर आँगन के एक किनारे खड़े हो जाता हूँ। हवा रुकी हुई इसलिए किनारे पर खड़ा हो पा रहा हूँ, नहीं तो ठंडी गीली पछिया हवा के सामने चेहरा लेकर खड़ा होना आसान नहीं है। कल दुपहर बिलकुल बचपन के दिनों की याद आ गयी जब चमकती धूप में दौड़ती हवाओं और ठिठुरते शरीर को महसूस किया, बिलकुल बचपन का वह समय जब हमारा स्कूल पिकनिक पर शहर से दूर जंगलों की तरफ जाता था...

“आज बाज़ार जाओगे?” पिताजी पूछते हैं। 
“हाँ! मम्मी के लिए अंगूठे वाले मोजे लेने है” मैं कहता हूँ।
“मेरे लिए एक जूता ले आना... वो जो कपड़े की होती है, मोटी सी, जो पैरों को गर्म रखती है...”

पिताजी और मैं | हिंदी कहानी
पिताजी इतना कह कर फिर से वही घरघराहट वाली आवाज़ निकालकर चुप हो गए। पिताजी जब ऐसी बातें करते हैं तो भीतर का डर कम हो जाता है। मगर पिताजी ऐसी बातें बहुत कम किया करते हैं। अक्सर चुप ही रहते हैं। मैं जब भी उनके पास होता हूँ वह कुछ एक लाइने बोल देते हैं। जैसे कल रात जब हम बिस्तर पर लेटे थे तो दूर जंगलों से जाती रेलगाड़ी की आवाज़ सुनकर वह कहते हैं “आज राजधानी लेट से जा रही है”। मैं हैरान था। मुझे अलग अलग ट्रेनों की आवाज़ों की समझ नहीं है। मगर पिताजी को है। पिताजी रेल्वे में काम नहीं करते थे। वह तो एक मामूली कॉलेज के मामूली शिक्षक थे। मगर हर दिन उन्हें रेल की पटरी पार करके कॉलेज जाना पड़ता था। मैं आँगन के किनारे से हट जाता हूँ। हवा फिर से बहने लगी है। मैं शॉल को माथे के ऊपर कर लेता हूँ। पिताजी ने चाय पी ली है। मैं चाय की खाली कप उनके पैरों के पास से उठाने के लिए झूकता हूँ। मेरी नज़रें उनकी बाएँ पैर के एक हिस्से पर पड़ती है, मोजे और पजामे के बीच कहीं। फटे पैरों की सफ़ेद गोलाकार लकीरों के पीछे झुर्रीदार पुरानी सी चमड़ी है। चमड़ा हड्डी को छोडता मालूम पड़ रहा है, उस पर बड़े मछलियों के जैसे चकते चकते से दिख रहे हैं। देखकर लगता नहीं यह पिताजी का ही पैर है। उनके पैरों की जो छवि मेरे दिमाग में बैठी हुई है वह पहले कभी की है। मैं उनके पजामे को नीचे करता हूँ और चाय का कप उठा लेता हूँ। पिताजी ने कोई प्रतिकृया नहीं दी। वह वैसे ही पहले की भांति गोद में सिर गड़ाए बैठे हुए हैं। चाय के जूठे कप को रसोई में रखकर मैं वापस आँगन में आता हूँ। पिताजी पहली दफ़ा सामने की ओर ताकते हुए नज़र आयें। 

“क्या देख रहे हैं?” मैंने पूछा।
पिताजी ने फिर से वही आवाज़ निकाली, घरघराहट वाली, जिसका मतलब मैं समझ नहीं पाया। मैं उधर की ओर ही देखने लगा जिधर पिताजी की नज़रें है।

“कुछ नहीं!” उन्होनें थोड़ी देर बाद जवाब दिया।

आँगन के फर्श पर, हमसे थोड़ी दूर, धूल के रंग के दो पक्षी बैठे हुए है। कुछ और वैसे ही नीचे खाली खेत में मंडरा रहे हैं। देखकर जंगली जान पड़ते है। क्या पता पीछे के जंगल से इधर खाने की तलाश में आए हो! मैं जेब से फोन निकाल लेता हूँ। पक्षियों के जोड़े की तस्वीर खीच कर वापस उसे जेब में रख लेता हूँ। इस दौरान पिताजी मुझे देखने लगे थे। पिताजी कभी कबार मुझे ऐसे देखने लगते है। मैं लिख रहा होता हूँ तो वह पीछे सोफ़े पर बैठ कर, वही सोफ़ा जिसपर खिड़की से दुपहर की सीधी धूप गिरती है, मुझे देखते हैं। उनकी ढकी-ढकी सी प्रतिबिंब को मैं अपने लैपटॉप के स्क्रीन पर देखता हूँ। वह बस मुझे देखते हैं, कुछ कहते नहीं। टोपी और स्वेटर पहने वह इंतज़ार करते दिखायी पड़ते हैं। पिताजी के दिन का लगभग सारा समय इंतज़ार में बीतता है। मानों सुबह उठकर वह वापस रात होने का इंतज़ार करने लगते हैं। सर्दियों में दिन छोटी होती है तो उन्हें ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ता। रात तुरंत उनके पास आ जाती है। कभी कभी मैं पिताजी को इंतज़ार करते देखता हूँ तो वह मुझे बहुत अकेले दिखते हैं। न कोई इंसानी साथी, न किताबी साथी और न ही संगीत के साथी। पिताजी के पास कोई भी नहीं है। एक सूरज ही है जो उनके साथ बैठता है। एक शिक्षक किताबों से दूर हो जाएगा इसकी कल्पना मैंने कभी नहीं की थी। वही शिक्षक जो अपने बच्चों से ज़्यादा अपनी किताबों से प्रेम करता था, वह आज किसी से प्रेम नहीं करता है, सोचकर मन भयभीत हो उठता है।

“खाना खा लिए?” पिताजी पूछते हैं।

“अभी बन रहा है” मैं कहता हूँ।

बस उनकी यही एक चिंता बचपन के दिनों से कायम है – मैंने खाना खाया या नहीं। वह खुद के खाने की फिक्र नहीं करते। वह खुद की चिंता नहीं करते। शायद अब वे खुद से प्रेम नहीं करते। खुद से प्रेम करना क्या इतना आवश्यक होता है? मैं पिताजी से कहता हूँ कुछ लिखने को, कलम को कागज़ पर चलाने को, इतिहास के पन्नों से कुछ चुराकर लिख डालने को, किसे ही पता चलेगा कि यह देश का इतिहास है या इंसान? उनके लिए मैं कलम और कॉपी भी लाया था मगर वह दोनों सामाग्री उनकी पुरानी पुस्तकों में कहीं घुसी पड़ी है, वही पुस्तक जिनके पर लगे धूल को वह लगभग हर दिन साफ करते थे मगर अब वो वहाँ हैं भी या नहीं उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं है। पिताजी को अब किसी भी चीज़ का शौक नहीं रहा। जीने का शौक भी कम होता जा रहा है। मुझे लगता है जीने का शौक अन्य शौक से बढ़ता है और चूंकि पिताजी के अब कोई अन्य शौक नहीं रहे इसलिए उनका जीने का शौक भी कम होता जा रहा है जैसे सर्दियों में दिन छोटे होते जाते हैं। कुछ ऐसे देश भी है इस धरती पर जहाँ सर्दियों में सुबह भी नहीं होती। सबकुछ रात में समाया होता है। शायद पिताजी वहीं जाने की तैयारी कर रहे हैं। शायद पिताजी उसी समय का इंतज़ार कर रहे हैं जब वह रात से उठें तो रात ही रहे और वह इतमीनान से वापस सो जाये। 

“मैं देख कर आता हूँ खाना बना या नहीं” पिताजी कहते है और घर के अंदर चले जाते हैं। मैं वहीं बैठा रहता हूँ। धूप और भी ऊपर को चढ़ चुकी है। पश्चिम से आती शीत की लहरें अपनी चरम सीमा पर है। उनका असर सामने के घर के आम के वृक्ष में देखा जा सकता हैं। आँगन में फुदक रहे वो दो जंगली पक्षियों में से एक आकर पिताजी के स्थान पर बैठ जाती है। मुझे अपनी जंगली नज़रों से एक बारगी देखती है, जैसे पिताजी देखते रहते है बिना किसी प्रतिकृया के वैसे ही, और फिर उड़कर अपने छः साथियों के पास नीचे खेत में चली जाती है। थोड़ी देर बाद मैं अपनी जगह से उठता हूँ और पिताजी के स्थान पर जाकर बिलकुल उन्हीं के मुद्रा में बैठ जाता हूँ, नीचे गोद में ताकते हुए, और इंतज़ार करने लगता हूँ...   



- संजीव तिवारी
मोबाइल: 8653673958

COMMENTS

Leave a Reply: 1
  1. मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
    पिता का स्थान जीवन में क्या होता है, उनके जीते जी जिसने समझ लिया वह समझो सौभाग्यशाली है

    जवाब देंहटाएं
आपकी मूल्यवान टिप्पणियाँ हमें उत्साह और सबल प्रदान करती हैं, आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है !
टिप्पणी के सामान्य नियम -
१. अपनी टिप्पणी में सभ्य भाषा का प्रयोग करें .
२. किसी की भावनाओं को आहत करने वाली टिप्पणी न करें .
३. अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका