हिमाद्रि तुंग श्रृंग से कविता की व्याख्या मूल भाव प्रश्न उत्तर

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हिमाद्रि तुंग श्रृंग से कविता की व्याख्या भावार्थ अर्थ 

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती 
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती 
'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो, 
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!' 
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से कविता की व्याख्या मूल भाव प्रश्न उत्तर

सन्दर्भ -
गांधार के समवेत सैनिकों को उद्बोधित करते हुए राजकुमारी अलका जिसमें देश और जाती के लिए बलिदान का भाव प्रबल है ,प्रस्तुत गीत गाती हैं और कर्तव्य का बोध कराते हुए समयानुसार उनका मनोबल ऊँचा करती हुई उन्हें प्रोत्साहित करती हैं। 

व्याख्या - पर्वतराज हिमालय के ऊँचे शिखरों से ज्ञान और पवित्रता की मूर्ति देवी सरस्वती ,जो अपने प्रकाश से स्वयं प्रकाशित हैं ,स्वतंत्रता का प्रतिरूप हैं ,प्रत्येक भारतवासी से पुकारकर कहती रहती हैं कि तुम न केवल साहसी ,वीर और अमरों की संतान हो ,देवजाति के रक्त से उत्पन्न कालजयी हो बरन अपने निश्चय पर अडिग रहनेवाले भी हो। वीर पुरुष मृत्यु पर विजय प्राप्त करते हैं। दृढ़संकल्प के साथ बढ़ने वाले न तो अपने मार्ग से विचलित होते हैं और न तो पाँव पीछे की ओर रखते हैं। भारतीय पाँव बढाकर पीछे नहीं हटते ,इतिहास इसका साक्षी है। कर्तव्य का पवित्र मार्ग मुक्त रूप में तुम्हारे सामने स्वागत के लिए फैला हुआ है। एक बार सोच लो ! पूर्व पुरुषों की परंपरा से अपने को मिलाकर यदि तुम अपने जातीय गौरवपूर्ण इतिहास को स्थायी रखना चाहते हो तो अपने समयोचित त्याग और बलिदान के मार्ग पर बढ़ो और बढ़कर सफलता तथा सम्मान का अर्जन करो ! अन्यथा तुम किसी भी निर्णय के लिए स्वतंत्र हो। पर उचित कर्तव्यपालन के मार्ग का सही चुनाव ही तुम्हारे लिए श्रेष्ठ और योग्य है। 

विशेष - नाद सौन्दर्य एवं ओजपूर्ण सम्पन्न इन पंक्तियों में जातीय गौरव का प्रस्तार है। भाव और भाषा का सुन्दर समनव्य है। 


असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी 
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी! 
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाडवाग्नि से जलो, 
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!

सन्दर्भ - प्रस्तुत अंश जयशंकर प्रसाद जी के नाटक चन्द्रगुप्त के चौथे अंक के छठे दृश्य से लिया गया है जो प्रयुक्त गीत का अंतिम अंश है। गांधार की राजकुमारी अलका ,जिसमें देश और जाती का प्रेम पूर्णता को प्राप्त है ,अपने समवेत सैनिकों को उद्बोधित करते हुए प्रस्तुत गीत गा रही है। 

व्याख्या - तुम जिन पूर्वजों की संतान हो उनकी यश गाथाएं अपने दिव्य प्रकाश से आज भी मानव जाति का मार्ग निर्देशन कर रही हैं। तुम उनके यश के दिव्य मार्ग पर बढ़ो और नित्य प्रकाशित यश अर्जन करो। तुम देश के सच्चे सपूत हो ,तुममे शौर्य ,साहस ,पौरुष ,पराक्रम और रणकौशल है। तुम वीरों में श्रेष्ठ हो ,सच्चे योद्धा हो। रुकना और विचारों में खोना तुम्हारे लिए अशोभनीय है। कर्तव्य का निश्चय हो चुका है। पूर्वजों के कर्तव्य पथ पर बढ़ो और अक्षय कीर्ति अर्जित करो। शत्रु की विशाल वाहिनी से विचलित होना तुम्हारा स्वभाव नहीं हैं। तुम बाडव - ज्वाला के समान जलकर अपने रण कौशल से ,पौरुष और पराक्रम से ,उन्हें मत डालो। वे स्वयं समाप्त हो जायेंगे और तुम सकुशल विजयी बनकर एक श्रेष्ठ और कुशल योद्धा के रूप में मान पाकर निखरोगे। अतः कर्तव्य के पथ पर अविलम्ब बढ़ो और अपनी जातीय परंपरा की रक्षा करो। 

विशेष - कवि ने ऐतिहासिक नाटक के सन्दर्भ से संघर्षरत अपने देश के राष्ट्रीय सेनानियों को उद्बोधित किया है। छंद विधान ,शब्द चयन ,प्रवाह ,लय ,गति ,स्वरों का आरोह - अवरोह ,नाद - सौन्दर्य ,भाव - गाम्भीर्य ,अर्थ विस्तार ,विषय - निरूपण और भाषा योजना तथा ओज गुण का अद्भुत प्रयोग किया गया है। 


हिमाद्रि तुंग श्रृंग से कविता का सारांश मूल भाव प्रतिपाद्य

जयशंकर प्रसाद जी भारतीयता के पुजारी हैं। उन्हें अपने पूर्वजों के शौर्य और पराक्रम पर त्याग और बलिदान पर गर्व है। सिल्यूकस की विशाल वाहिनी भारत को पराजित करने के उद्देश्य से देश की पश्चिमत्तर सीमा पर पड़ाव डाले हुए हैं। गांधार के राजकुमार आम्भिक को मित्रता पसंद है ,पर राजकुमारी अलका को मातृभूमि की पूर्ण स्वतंत्रता प्रिय है। वह नारी जाती के त्याग का प्रतिनिधित्व करती हैं और समवेत सैनिकों को समयोचित कर्तव्य पालन के लिए उद्बोधित और उत्साहित करती हैं। नाटक के कथावृत्त में प्रस्तुत गीत त्याग और बलिदान का मूलमंत्र देता है। शब्दों में ध्वनि मैत्री और नाद सौन्दर्य के साथ गीत और प्रवाह का सनुदरी है ,अर्थ की दृष्टि से गंभीरता और गरिमा है। 
जयशंकर प्रसाद

आज देश स्वाधीन है। जिस समय गीत लिखा गया था ,उस समय अंग्रेजों का शासन था ,देश परतंत्र था। देशवासियों में स्वतंत्रता की भावना बलवती हो उठी थी। आन्दोलन चल रहा था। स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न किया जा रहा था। कवि और कलाकार समाज के लिए सजग प्रहरी और मार्ग निर्देशक हुआ करते हैं। प्रसाद जी के अंतर में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल है ,उनमें जातीय अभिमान है। पूर्वजों की यशगाथा को सामने रखकर कवि देशवासियों को त्याग और बलिदान के लिए प्रोत्साहित करता है। उसकी दृष्टि में उत्सर्ग ही सर्वोत्तम कर्म है। देश और जाति के लिए बलिदान होने वाले का जीवन ही सार्थक है। कर्तव्य का जीवन पथ त्यागपूर्ण है और प्रत्येक व्यक्ति को इस पथ का पथिक होना चाहिए। 


आज देश के स्वतंत्र होने पर भी प्रस्तुत कविता का महत्व बना हुआ है। राजनितिक स्वतंत्रता तब तक अपूर्ण है जब तक आर्थिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो जाती है। प्रसाद जी परंपरावादी आदर्श के समर्थक प्रबुद्ध रचनाकार है। उनकी दृष्टि में समाज और देश को प्राणशक्ति के रूप में बराबर त्याग और बलिदान करने वालों की आवश्यकता बनी रहती है। निर्भय व्यक्ति ही सफल होता है। साहस और शक्ति के साथ प्राणों का मोह त्यागकर संघर्ष करने वाला ही सच्चा वीर होता है। ऐसा व्यक्ति ही सफल होता है ,विजयी होता है। देश और जाती को ऐसे ही वीर पुरुष गौरव प्रदान किया करते हैं।


हिमाद्रि तुंग श्रृंग से कविता के प्रश्न उत्तर


प्र.१.  अमर्त्य वीर पुत्र हो ,का क्या तात्पर्य है ?

उ. अमर का अर्थ है न मरने वाला या देवता। किसी समय इसी भूमि पर देवजाति के लोग रहते थे। उन्हें प्रकृति ने समृद्ध बनाया था। वे धन - धान्य से परिपूर्ण और प्रसन्न थे। रूप ,यौवन ,शक्ति और समृद्धि ने उन्हें उदंड बना दिया था। उन्होंने धर्मपथ का त्याग किया है। प्रकृति उन पर क्रुद्ध हो उठी थी। जलप्लावन के द्वारा खंड प्रलय हुआ। आदि मानव के रूप में देवजातीय मनु शेष रहे। मनु और श्रधा से मानव सृष्टि हुई ,जिसके हम वंसज है। हमारे भीतर देवजाति का रक्त प्रवाहित है। अतः हम भी अमर हैं। 

आत्मा अमर है। भारतीय दर्शन शरीर हो नहीं ,आत्मा को विशेष रूप से स्वीकार करता है। आत्मा ही परमात्मा का अंश है। अंश और अंशी में धर्म और गुण का साम्य होता है। परमात्मा अजर और अमर है। अतः आत्मा भी अमर है। यह मानकर हमें शरीर के मोह का त्यागकर अपने देश और जाती के सम्मान के लिए तत्पर रहना चाहिए। समय आने पर शरीर त्याग से पीछे नहीं हटना चाहिए। अमरत्व का भाव व्यक्ति को साहसी और निर्भय बनाता है। अमर्त्य वीरपुत्र का यही तात्पर्य है। 

प्र.२. प्रशस्त पुन्य पंथ का आशय स्पष्ट कीजिये। 

उ. प्रशस्त का अर्थ है - प्रशंसित। पुन्य का अर्थ है - पवित्र या निर्मल। पंथ का अर्थ है मार्ग ,पथ या कर्तव्य बोध। जीवन में कर्तव्य का मार्ग ही प्रशंसा तथा यश प्रदान करने वाला सच्चा मार्ग है जिससे व्यक्ति को कभी विचलित नाह होना चाहिए क्योंकि इसी से सम्मान प्राप्त होता है। 

प्र.३. वीर पुत्र कहकर कविता में किसे संबोधित किया गया है ?

उ. चन्द्रगुप्त नाटक में राजकुमारी अलका गांधार के समवेत सैनिकों को वीर पुत्र कहती हैं। अपने समय के सन्दर्भ में प्रसाद ने यह संबोधन देशवासियों के लिए दिया है। आधुनिक समय में यह संबोधन स्वतंत्र भारत के वासियों के लिए है जिन्हें देश के भीतर और बाहर की विरोधी शक्तियों से जूझना है और राष्ट्र को समृद्ध तथा उन्नत बनाना है। 

प्र.४. कीर्ति रश्मियों को दिव्य दाह क्यों कहा गया है ?

उ. पूर्वजों की शौर्य गाथाएं ही कीर्ति रश्मियाँ है ,जिनसे भारतीय इतिहास उज्जवल है। उनके त्याग और बलिदान की गाथा आज भी अमर है। दिव्य दाह से तात्पर्य भष्म रहित अंगारे से है। पूर्वजों की यश गाथाएं कभी भी धूमिल होने वाली नहीं है। काल का प्रभाव उन पर पड़ने वाला नहीं है। किरणों से युक्त प्रकाश आँखों को अँधा बनाता है और व्यक्ति अपने पथ पर अग्रसर नहीं हो पाता है ,पर यश किरणों से युक्त प्रकाश बढ़ने की प्रेरणा देता है। आज के समय में पूर्वजों की गाथाएं हमारे मार्ग का स्वस्थ रूप से निर्देशन करती हैं। इसी भाव से कीर्ति रश्मियों को दिव्य दाह कहा गया है। 

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