Panth Hone Do Aparichit | Mahadevi Verma

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Panth Hone Do Aparichit Mahadevi Verma पंथ होने दो अपरिचित कविता की व्याख्या पंथ होने दो अपरिचित कविता का सारांश मूल भाव कविता का अर्थ explanation

पंथ होने दो अपरिचित कविता


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पंथ होने दो अपरिचित कविता की व्याख्या

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
घेर ले छाया अमा बन
आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन
और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ’ पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहां
शत विद्युतों में दीप खेला

व्याख्या - महादेवी वर्मा जी अनंत प्रिय की अन्यतम चिर साधिका हैं। वह इस गीत में साधना के कष्टमय मार्ग पर दृढ संकल्प के साथ अकेले बढ़ना चाहती है। पथ भले ही अपरिचित हो ,कष्टों और कठिनाइयों से पूर्ण हो ,बढ़ते जाना ही जीवन का व्रत है। निराशा की अँधेरी रात हो ,कठिनाइयों के काले बादल की बिघ्न पैदा करने वाली काजलयुक्त वर्षा हो ,पर बढ़ना निश्चित है। आशा शून्य आँखें और होंगे ,प्रकाशहीन पुतलियाँ दूसरी होंगी। मेरी आँखों में प्रेम की आद्रता है ,आशा और विश्वास का प्रकाश है ,दृढ़ संकल्प के शत - शत विद्युत् दीप हैं ,जो आलोक की अभिनव श्रृष्टि करते हैं ,सौन्दर्यलोक की रचना करते हैं। 

Panth Hone Do Aparichit | Mahadevi Verma

अन्य होंगे चरण हारे

और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे
दुखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला

व्याख्या - कवियत्री साधना पथ पर निरंतर बढ़ने का संकल्प लेते हुए कहती हैं कि कठिनाइयों से निराश होने वाले पाँव और होंगे जो संकल्प त्यागकर ,भय के कारण लक्ष्य को प्राप्त करने के पहले ही लौट पड़ते हैं। इनके साथी के रूप में अभाव ,वेदना और पीड़ा देखे जाते हैं। संसार के कल्याण के लिए कष्ट झेलना मेरे जीवन का व्रत है। नवीन सृजन के लिए मैं आकुल अधीर हूँ। मैं अमरता के पथ पर बढ़नेवाली हूँ। मैं लोक जीवन से नैराश्य के अन्धकार को मिटाकर स्वर्णिम प्रकाश फैलाना चाहती हूँ ताकि जीवन आशा और विश्वास से युक्त होकर सौन्दर्य और आकर्षण का केंद्र बन सके। 

दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी
आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला

व्याख्या - साधना के पथ पर वह कहानी और होगी जो मौन में खो गयी हो। धूल में मिल गयी। मेरी यात्रा के पीछे दृढ़ संकल्प का संबल है। मैं प्रिय की याद में अश्रु के मोती लुटाया करती हूँ और वेदना के होते हुए भी आशा का मेला रचती रहती हूँ। कवियत्री की धारणा है कि काल उसके अस्तित्व को नहीं मिटा सकेगा। प्रिय के प्रेम में आँसू और मंगलमय भविष्य की मिलन आशा का एक मनोहर रूप उसके द्वारा लिखा जाएगा ,जो अमर और स्थायी होगा। 


हास का मधु-दूत भेजो
रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला!

व्याख्या - कवियत्री अब उस अवस्था में पहुँच गयी है ,जहाँ विरोधी स्थितियों का महत्व समाप्त हो गया है। वह मिलन वियोग ,प्रसन्नता - अप्रसन्नता का समान रूप से स्वागत करती है। जीवन में वसंत हो या पतझड़ ,दोनों ही स्थितियों में प्रिय का ह्रदय से अभिनन्दन है। निराशा के आँसू और आशा के कमल उसके लिए समान हो गए हैनं क्यों दोनों प्रिय के लिए हैं। सुख और दुःख तुम्हारी इच्छा से मिलने वाले हैं ,अतः मेरे लिए आनंद के कारण हैं। मिलन का महत्व एकाकी होता है। प्रिय पात्र और प्रेमी ,साधक और साध्य मिलकर एक हो जाते हैं और मिलन के सुख का बोध नहीं रह जाता है। विरह में उभय पक्ष की सत्ताएँ बनी रहती हैं और परस्पर स्थिति में बोध का सुख प्राप्त होता है। इस अपरिचित पथ पर बढ़ना मेरे जीवन का स्थिर व्रत हैं और मैं विश्वास के साथ अकेले ही बढती जाउंगी। बढती जाउंगी। 


पंथ होने दो अपरिचित कविता का सारांश

कवियत्री महादेवी वर्मा जी की मान्यता है कि प्रेम और भक्ति का पथ निजी होने के कारण अपरिचित होता है तथा प्रेमी या भक्त को इस पर एकाकी आगे बढ़ना होता है। प्रेम और भक्ति के क्षेत्र में घनत्व की मात्रा अधिक होने के कारण एकाकीपन अनिवार्य है। दोनों ही क्षेत्रों में एकाधिकार की प्रबल भावना विद्यमान रहती है। सच्चा प्रेमी या भक्त प्रिय अथवा आराध्य के लिए मात्र कर्मरत रहता है उसमें प्राप्ति की इच्छा गौण होती है। प्राप्ति की आकांक्षा या मिलन की चाह में जो आनंद की तीव्रता होती है वह प्राप्ति या मिलन के उपरान्त नहीं देखी जाती है। अतः सच्चा प्रेमी या भक्त साधनारत रहता है ,प्राप्ति की अभिलाषा नहीं रखता है। 

वियोग में प्रिय तथा प्रियतम एवं भक्त और आराध्य दोनों का अस्तित्व बना रहता है। अतः विरह मिलन से अधिक श्रेष्ठ है। प्रिय अथवा आराध्य के रूप दर्शन अथवा गुण श्रवण के साथ अपनी निजता का बोध अपने आप में एक भिन्न आनंद का कारण होता है। प्राप्ति अथवा मिलना में निजता का अंत होता है जबकि विरह में प्रिय अथवा आराध्य और अधिक निकट आ जाता है। प्रिय अथवा आराध्य चिरंतन और शाश्वत होने के कारण प्रेमी या भक्त को अपने में मिलाता है। यह विसर्जन औरों की दृष्टि में मुक्ति की महिमा संज्ञा से विभूषित होता है। कवियत्री इस मुक्ति को नहीं स्वीकारती है। अपरिचित पथ पर एकाकी चलने की अदम्य आकांक्षा में उसका दृढ़ संकल्प और आत्म विश्वास प्रशंसनीय है। वे मानती हैं कि विरह ही उन्हें ,प्राप्ति की संभावना का आनंद ,जीवन भर ,स्थायी रूप से प्रदान करता रहेगा। 


Panth Hone Do Aparichit कविता का मूल भाव

अपने साधना पथ को अपरचित बताकर महादेवी वर्मा जी ने उस मार्ग में आनेवाली विविध कठिनाइयों का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि - साधना पथ को अपरिचित होने दो और उस मार्ग के पथिक प्राण को भी अकेला रहने दो। मेरी छाया आज मुझे भले ही अमावस्या की रात्री के गहन अन्धकार के समान घेर ले और मेरी काजल लगी आँखे बादल के समान आंसुओं की वर्षा करने लगे ,फिर भी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार की कठिनाइयों को देखकर जो आँखे सूख जाती ,जिन आँखों के तिल बुझ जाते हैं और जिन आँखों की पलकें रुखी रुखी हो जाती हैं ,वे कोई और आँखें होंगी। इस प्रकार के कष्टों के आने पर भी मेरी चितवन आद्र बनी रहेगी  क्योंकि मेरे जीवन दीप ने सैकड़ों विद्युतों में भी खेलना सीखा है अर्थात कष्टों से घबड़ाकर पीछे हट जाना मेरे जीवन दीप का स्वभाव नहीं है। 

प्रिय पथ के अपरिचित और अनेक प्रकार के कष्टों से ओतप्रोत होने पर भी निरंतर आगे बढ़ते रहने का दृढ़ संकल्प लेकर चलने वाली साधिका महादेवी वर्मा ने कहा है - वे कोई और ही चरण होंगे ,जो हार मान कर मार्ग के काटों को अपने सारे संकल्प समर्पित कर निराश होकर लौट आते हैं। मेरे चरण ऐसे नहीं है। मेरे चरणों ने तो दुःख सहने का व्रत धारण कर रखा है। मेरे चरण नव निर्माण करने की इच्छा से उन्मुक्त है। वे स्वयं को अमर मानकर प्रिय पथ को निरंतर नाप रहे हैं और इस प्रकार दूरी घटती चली जा रही है। मेरे चरण तो ऐसे है कि वे अपनी दृढ़ता से संसार की गोद में छाए हुए अन्धकार को सुनहरे प्रकाश में परिणत कर देंगे अर्थात निराशा का अन्धकार आशा के प्रकाश में बदल जाएगा। 

प्रिय मिलन के दृढ़ संकल्प का वर्णन करते हुए महादेवी वर्मा ने कहा है कि - हे प्रियतम ! चाहे तुम मुस्कान का मधुरदूत भेज कर मुझे अपनी ओर आकृष्ट करो और चाहे अपनी भौहों की वक्रता से क्रोध प्रकट करते हुए पतझड़ को एकत्रित कर लो अर्थात चाहे तुम प्रसन्न हो जाओ अथवा अप्रसन्न ,किन्तु मेरा अडिग ह्रदय वेदना का जल और स्वप्नों का कमल पुष्प लिए तुम्हारी सेवा में अवश्य उपस्थित होगा। मैं तुम से अवश्य मिलूंगी। विरह की स्थिति में ही मैं दुकेला अनुभव करती हूँ। मिलन के क्षणों में तो मैं इतनी तन्मय हो जाती हूँ कि मैं द्वेत का अनुभव ही नहीं होता और इस प्रकार मैं एकाकिनी बन जाती हूँ यद्यपि मेरा साधना पथ अपरिचित है और मेरे प्राणों का पथिक अकेला है ,फिर भी चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि एक न एक दिन मैं अपने प्रियतम को अवश्य पा लूंगी। 


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