अचानक उनसे मेरी नजरें मिल गयीं। मैं उन्हें तो तत्क्षण ही पहचान गया। सच्चिदानंद शांडिल्य सर जी को पहचानता भी कैसे नहीं? वे केवल मेरे ही नहीं,
गुरु शिष्य
अचानक उनसे मेरी नजरें मिल गयीं। मैं उन्हें तो तत्क्षण ही पहचान गया। सच्चिदानंद शांडिल्य सर जी को पहचानता भी कैसे नहीं? वे केवल मेरे ही नहीं, बल्कि मेरे पिताजी के भी अध्यापक रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई के क्षेत्र में वे बहुत कड़े और अड़ियल स्वभाव के थे I वे स्वयं कड़ी मेहनत करते और विद्यार्थियों से भी कड़ी मेहनत करवाया करते थे। बच्चों को अधिक से अधिक पढ़ा देने की उनकी लालसा मुझ जैसे विद्यार्थियों को अक्सर बहुत ही बुरा लगता था I मैं तो उनका शिष्य-पुत्र के अतिरिक्त शिष्य भी रहा हूँ I अतः मुझ पर तो उनका अपना विशेषाधिकार ही प्राप्त था I मेरी छोटी-छोटी गलतियों पर उनकी पैनी दृष्टि रहती और वे मुझे बहुत दण्डित किया करते थे। मेरे पिताजी आज्ञाकारी छात्र की भांति उनकी सभी बातों को देव-वाणी की तरह सम्मान देते और अक्सर उनके कठोर तमाचें मुझे सहने पड़ते थे I यह बात अलग थी कि मुझ जैसे ही कुछेक विद्यार्थियों को छोड़कर अन्य सभी विद्यार्थी ‘शांडिल्य’ सर से अति सन्तुष्ट रहा करते थे। ‘शांडिल्य सर जी’ उन विद्यार्थियों के लिए आदर्श थे I
अब तो वे सेवानिवृत हो चुके हैं I फिर जीवन के लम्बे अरसे से बच्चों के शिक्षा-कर्म से जुड़े होने के कारण ‘मास्टरी’ का रंग उन पर इतना गाढ़ा चढ़ा हुआ है कि वे आज भी अपने उसी रंग में रंगे हुए स्वयं को बच्चों और शिक्षा-कर्म से दूर नहीं कर पाए हैं I अंतर इतना ही रह गया है कि पहले वे स्कूल में बच्चों को पढ़ाया करते थे और पारिश्रमिक सरकार से लिया करते थे, पर आजकल आस-पास के मुहल्लों के तमाम गरीब बच्चों को अपने मकान के सामने के ही एक छायादार पीपल वृक्ष के नीचे ईंट-बालू-सीमेंट से बने एक चबूतरे पर ही बैठा कर निःशुल्क पढ़ाया करते हैं और पारिश्रमिक स्वरुप उन बच्चों तथा उनके गरीब अभिभावकों के चहरे पर उभरी मधुर मुस्कान से संतुष्टि प्राप्त कर लिया करते हैं I वही चबूतरा उनके दिनचर्या का कर्म-स्थल रहा है I बच्चों को पढ़ाने के उपरांत जो समय बच जाता, वह मुहल्ले भर के परिचित-अपरिचित लोगों के विभिन्न ‘आफिस’ सम्बन्धित आवेदन पत्रों के लेखन आदि कार्य पर अर्पण हो जाया करता है I
"चलो उधर छाँव में चलते हैं।" – क्या करता? मन मारकर उनके साथ ही पास के ही चाय-नास्ते की एक दुकान से लगे बाहर टीन की छाँव में गया I एक टेबल से लगी एक कुर्सी पर स्वयं बैठ कर बगल वाली कुर्सी पर उन्होने मुझे बैठने का इशारा किया I मैं बैठ गया I धूर्त दूकानदार भी शायद इसी ताक में था I वह अपना काम छोड़कर तुरंत ही हमारे सम्मुख हाथ जोड़े हाजिर हो गया और आग्रह पूर्वक बोला, - "प्रणाम गुरु जी! गरमा गरम कचौड़ियाँ निकल रही है, ले आऊँ?"
इच्छा हुआ कि साफ़ इंकार ही कर दूँ I कोशिश की, पर वह न कर सका I मन मार कर पास के ही दवा की एक दूकान से तीन सौ बीस रूपये खर्च कर सारी दवाइयाँ लेकर आया तो देखा गुरु जी चाय की चुस्की ले रहे हैं I कचौड़ियों का प्लेट गायब देख कर प्रतीत हुआ, सारी कचौड़ियाँ इतनी जल्दी अकेले ही साफ़ कर चुके हैं I मन तो पहले से ही खट्टा था ही, अब तो और भी कडुवा हो गया I
(चैत्र कृष्णपक्ष पंचमी तिथि, शुक्रवार, ‘गुड फ्राइडे’, विक्रम संवत् 2077, 2 अप्रेल, 2021)
- श्रीराम पुकार शर्मा,
24, बन बिहारी बोस रोड,
हावड़ा – 711101
(पश्चिम बंगाल) सम्पर्क सूत्र – 9062366788.
सुंदर
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