फटा पतलून / हिंदी कहानी

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इस कहानी का प्रारंभ उस समय से होता है जब मैं और कांति लाल एक ही कालेज में पढ़ते थे। मैं एक स्कूल टीचर का बेटा था और उसके पिता एक सरकारी विभाग में अधिक

 फटा पतलून


स कहानी का प्रारंभ उस समय से होता है जब मैं और कांति लाल एक ही कालेज में पढ़ते थे। मैं एक स्कूल टीचर का बेटा था और उसके पिता एक सरकारी विभाग में अधिकारी। अधिकारी होते हुए भी उन्हें घमंड छू भी नहीं गया था। वह एक सहृदय व्यक्ति थे और उनकी धर्मपत्नी एक धार्मिक महिला। जिन्हें मैं चाची जी कहकर संबोधित करता था। हमारी मित्रता के बीच हमारे रहन-सहन का स्तर कभी आड़े नहीं आया। कालेज में हमारी दोस्ती की चर्चित हो चुकी थी।

 मैं शहर में किराए के एक छोटे से कमरे में रहता था और वह सभी सुविधाओं से युक्त एक बड़े से बंगले में अपने माता-पिता के साथ।

 मैं कभी कभी उसके साथ चला जाया करता था। उसकी माता जी मुझे बिना नाश्ता कराये वापस नहीं आने देती थी। मुझे उनकी आंखों में ममता झलकती दिखाई देती थी , उन्होंने प्यार के मामले में मुझमें और अपने पुत्र में कोई भेद नहीं किया।

फटा पतलून

हमारी शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी और मैं पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने माता-पिता के पास गांव लौट आया। कुछ दिनों बाद मैं शहर के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक बन गया था और वह अधिकारी। मैंने उसके अधिकारी बनने की खुशी में उसे बधाई पत्र भेजा था।

  माता-पिता ने मेरा विवाह एक साधारण परिवार में कर दिया था और मैं अपनी धर्मपत्नी श्रीमती कुसुम को अपने साथ ही लेकर शहर आ गया।

 क्योंकि मेरी नौकरी शहर में ही थी। मैंने कांति लाल को चाचा-चाची सहित अपनी शादी में शामिल होने के लिए निमंत्रण पत्र भेजा था परन्तु व्यस्तता के चलते वे शादी में शामिल नहीं हो पाये। उनका आशीर्वाद पत्र के माध्यम से मिल चुका था।शादी के कुछ वर्ष बाद मेरी पत्नी ने एक साथ दो पुत्र रत्नों को जन्म दिया।

जब यह सुखद समाचार मेरे माता-पिता को मिला तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा और उन्होंने अपने परिचित के हाथों नवजात शिशुओं के लिए नये वस्त्र, मिठाई व फल भिजवाने के साथ ही एक पत्र भी भेजा, जिसमें माता जी के घुटनों में अत्यधिक कष्ट होने के कारण अपने न आने की असमर्थता जाहिर करने के साथ साथ पुत्र रत्नों के लिए हृदय से निकले आशीष वचन भी शामिल थे । उधर जब कांति लाल और उसके माता-पिता को पुत्र रत्न प्राप्ति का सुखद समाचार मिला तो उन्होंने व्यस्तता के चलते आने से असमर्थता जताई, परंतु उन्होंने नवजात शिशुओं के लिए वस्त्र, फल व मिठाईयां पार्सल से भिजवाते हुए दूरभाष पर उनके दीर्घायु की कामना प्रकट की और आशीर्वाद दिया। दो दो मांओं का नवजात शिशुओं के लिए आशीर्वाद पाकर तो जैसे मैं निहाल हो गया था।

  एक दिन जब मैं स्कूल से लौटा तो मेरी श्रीमती ने चाय के साथ ही एक निमंत्रण पत्र भी मेरे हाथ में रख दिया। बहुत खूबसूरत था वह निमंत्रण पत्र, जिससे मन प्रफुल्लित करने वाली भीनी भीनी खुशबू आ रही थी। मैंने चाय पीने के बाद उस निमंत्रण पत्र को खोल कर देखा तो वह मेरे मित्र की शादी का निमंत्रण पत्र था, जिसमें पृथक से एक चिट में मुझे सपत्नीक आने का मनुहार भरा आग्रह था। मेरी श्रीमती जी ने बच्चों के छोटे होने के कारण साथ चलने में असमर्थता जताई।

मुझे दूसरे दिन इंदौर के लिए रवाना होना था, जहां लड़की वालों ने कांति लाल के विवाह का प्रबंध किया था। मेरी श्रीमती जी ने सवेरे जल्दी उठकर मेरे लिए रास्ते में खाने को नाश्ता तैयार किया और मेरे वस्त्र आदि बैग में सलीके से जमा कर रख दिए। मैं भी स्नान आदि से निवृत होकर तैयार होने लगा, मुझे इंदौर के लिए शीघ्र ही ट्रेन पकड़नी थी इसलिए मैंने आनन फानन में वस्त्र धारण किए और अपने बैग में अपनी नई पतलून को रख , स्टेशन निकल पड़ा।

इंदौर पहुंचने पर मैंने देखा कि लड़की वालों ने विवाह में शामिल होने आए सभी मेहमानों के लिए वातानुकूलित कमरे आरक्षित करा रखे थे। चाची जी और उनके परिवार के सदस्यों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था थी। मैं तुरंत उस कमरे की तरफ बढ़ा जहां चाची जी और उनके परिवार के सदस्य ठहरे हुए थे। चाची जी मुझे देख कर बहुत प्रसन्न हुई और खुशी से पागल होकर मुझे अपनी बाहों में भर लिया। पल भर के लिए मुझे लगा कि जैसे मैं अपनी मां के आंचल में छुपा हूं। चाची जी ने अपने परिवार के अन्य सदस्यों से मेरा परिचय करवाया। विवाह में लड़की वालों की ओर से भोजन का बहुत बढ़िया इंतजाम किया गया था। दुल्हे और दुल्हन के आशीर्वाद समारोह के लिए एक ऊंचा स्टेज़ ,जिसे विभिन्न सुगंधित पुष्पों से सजाया गया था, बनाया गया था। साथ ही स्टेज़ तक पहुंचने के लिए कुछ छोटी सीढ़ियां भी थीं। मैं सभी से मिलने के बाद अपने कमरे में गया और वहां पहुंच कर अपने साथ लेकर आई पतलून पहनी और नयी शर्ट बदली । स्वादिष्ट भोजन का आनंद लेने के बाद मैं स्टेज़ की ओर चल दिया । स्टेज़ तक पहुंचने के लिए बनी सीढ़ियों से चढ़ कर स्टेज़ पर पहुंचा और दुल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद दिया तभी मेरे कानों में तेज हंसी के ठहाके सुनाई पड़े, जो मुझे इंगित करते हुए थे। तभी अचानक मेरा एक हाथ पीछे की ओर चला गया, मुझे सारा माजरा समझ आ गया था। मेरी नई पतलून न जाने कब फट गई थी। मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही थी।

विवाह अच्छे ढंग से संपन्न हो गया था। मैंने भी अपने घर जाने की अनुमति चाही तो आते वक्त चाची जी ने मेरे साथ बच्चों के लिए फल, मिठाइयां बांध दी ।

इंदौर से आकर मैंने अपनी श्रीमती जी को जब यह वाकया सुनाया तो उनकी हंसी छूट गई फिर ‌श्रीमती जी ने मुझे समझाते हुए कहा कि इस घटनाक्रम को एक बुरा स्वप्न समझ कर भूलने की कोशिश करें।आज भी जब मैं और मेरी धर्मपत्नी किसी शादी पार्टी में शामिल होते हैं तो मुझे वह पुरानी घटना याद आ जाती है और मेरे होठों पर हंसी दौड़ जाती है।



- विनय मोहन शर्मा
अलवर

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