ठहर गई है खानाबदोशों की ज़िंदगी

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ठहर गई है खानाबदोशों की ज़िंदगी कोरोना के खतरे के बीच भले ही धीरे धीरे व्यावसायिक गतिविधियां शुरू हो गईं हों, लेकिन इस महामारी ने अपने पीछे जो निशान छोड़ा है, उसे सदियों तक मानव जाति भुला नहीं पायेगी। इससे न केवल लाखों लोग असमय काल के गाल में समा गए बल्कि पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ध्वस्त गई है।

ठहर गई है खानाबदोशों की ज़िंदगी


कोरोना के खतरे के बीच भले ही धीरे धीरे व्यावसायिक गतिविधियां शुरू हो गईं हों, लेकिन इस महामारी ने अपने पीछे जो निशान छोड़ा है, उसे सदियों तक मानव जाति भुला नहीं पायेगी। इससे न केवल लाखों लोग असमय काल के गाल में समा गए बल्कि पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ध्वस्त गई है। कोरोना के दुष्प्रभाव से भारत भी अछूता नहीं रहा। इसका सबसे ज़्यादा नकारात्मक प्रभाव देश के गरीब, पिछड़े और मुश्किल से दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करने वाले मज़दूरों की ज़िंदगी पर पड़ा है। जिनके सामने आज अपने परिवार के पेट को पालने की चुनौती है। लॉक डाउन और चरमराती अर्थव्यवस्था ने उनके काम धंधे को ठप्प कर दिया है, रही सही कमर सरकारी दांव पेंच ने तोड़ दी है। 

कोरोना से ठप्प हुई अर्थव्यवस्था से प्रभावित होने वालों में राजस्थान का घुमंतू (ख़ानाबदोश) समुदाय भी है। जिनके काम धंधे पर बहुत अधिक प्रभाव पडा है। इस समुदाय का रोज़गार पलायन से ही जुड़ा हुआ है, यह समुदाय राज्य से बाहर जाकर ऊनी कंबल, ऊनी कपड़े, मिर्च मसाला तथा सूखे मेवे बेचकर अपना गुजारा करते रहे हैं। इस ख़ानाबदोश समुदाय में अधिकतर मुस्लिम बंजारा समुदाय की संख्या है। जो साल में दो बार महाराष्ट्र, गुजरात तथा दिल्ली आदि जगहों पर जाते हैं। पहली बार अक्टूबर-नवंबर में जब जाते है तब माल उधारी पर देकर आ जाते हैं तथा दूसरी बार मार्च-अप्रैल में जब जाते हैं तो उधारी पर दिये माल की वसूली करते हैं। इन्हीं पैसों से इनका घर और कारोबार का मामला टिका हुआ रहता है। 

खानाबदोशों की ज़िंदगी
खानाबदोशों की ज़िंदगी
लेकिन कोरोना महामारी से उत्पन्न लॉक डाउन ने इनकी समस्या को न केवल बढ़ा दिया है बल्कि इनके सामने रोज़ी रोटी की समस्या खड़ी हो गई है। कोरोना के कारण जिस समय लाॅक डाउन हुआ, उस वक्त इस समुदाय के अधिकतर लोग उधारी की वसूली पर या तो जाने वाले थे या फिर चले गये थे। परन्तु संपूर्ण लाॅकडाउन की घोषणा के बाद इन्हें वसूली का काम अधूरा छोड़कर वापस आना पड़ा या फिर कुछ लोग तो जा ही नही पाये। यह समुदाय जो वसूली करके आता था, उसी से इनके पूरे साल भर का काम चलता था। इससे होने वाले लाभों से जहां परिवार का भरण पोषण होता था वहीं अगले साल बेचने के लिए माल खरीदने लायक पैसा भी जमा हो जाया करता था। लेकिन अब सबकुछ ठहर गया है।

इस समय इनके पास कोई रोज़गार ना होने के कारण पूरा समुदाय परेशान है। अब इनके सामने घर का खर्चा चलाना भी मुश्किल हो रहा है। समुदाय के एक सदस्य नूर मुहम्मद बताते हैं कि अब इस व्यवसाय में इतना कोई लाभ नही है। बस किसी प्रकार परिवार का गुजारा चल जाता है और कुछ लोग तो यह भी नही कर पा रहे हैं क्योंकि इस काम में पहले पैसा लगाना पड़ता है, माल खरीदना होता है। लेकिन जिनके पास माल खरीदने का भी पैसा नही होता वह मज़दूरी करने लग जाते हैं। चिंता की बात यह है कि इस समुदाय में शिक्षा का स्तर ना के बराबर है। महिलाओं में शिक्षा का स्तर लगभग नगण्य है। कुछ ऐसा ही हाल पुरूष वर्ग का भी है। पढ़ा लिखा नही होने की वजह से काम धन्धें में हिसाब किताब रखने में इन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता है। 

वकील खां बताते हैं कि वसूली का समय अन्तराल लंबा होने के कारण इन्हें लिखित में वसूली का हिसाब रखना जरूरी होता है। लेकिन समुदाय के कई पुरुष अशिक्षित होने के कारण ऐसा नहीं कर पाते हैं। जिसका खामियाज़ा अक्सर उन्हें भुगतनी पड़ती है। कई बार मौखिक हिसाब किताब रखने के कारण दुकानदार धोखे से माल से कम भुगतान करते हैं। लॉक डाउन की लंबी अवधि के बाद तो इन्हें अपना उधारी पैसा वापस मिलना भी मुश्किल नज़र आ रहा है। अब जबकि लाॅकडाउन लगभग खुल गया है, बावजूद इसके कोरोना के बढ़ते रफ्तार के कारण यह लोग राज्य से बाहर जाने में डर व झिझक रहे हैं। इनका कहना है कि इस समय जब सभी का काम तथा रोज़गार बंद है और मार्केट भी मंदा हो गया है तो ऐसे में शायद ही कोई दुकानदार उधारी वापस करेगा, हमें वसूली करने में भी बहुत परेशानी उठानी पड़ेगी या फिर बार बार जाने की नौबत भी आ सकती है जो हमारे लिए संभव नही हो सकता है।

घुमन्तु समुदाय में ही घूम घूम कर कपड़ा बेचने के अलावा अन्य जातियां जैसे मदारी, कलन्दर, सिघवाडी, गाडिया लुहार भी हैं। यह सभी दैनिक मज़दूरों की तरह रोज काम रोज खर्च करके अपने परिवार का गुजारा चलाते हैं। मदारी और कलन्दर समुदाय पहले भालू बन्दर का खेल तमाशा दिखा कर अपना जीवन यापन करते थे, परन्तु पशु पक्षियों आदि का इस्तेमाल कर खेल दिखाने पर प्रतिबंध लगने के कारण अब यह लोग अपने ही छोटे बच्चों को जमूरा बनाकर खेल दिखाते हैं। इस कारण न केवल इनके बच्चों की शिक्षा छूट रही है बल्कि बालश्रम की आग में उनका बचपन भी छीन रहा है।

आमतौर पर देखे तो सभी घुमन्तु समुदायों की आर्थिक स्थितियां बहुत अधिक खराब है। इन्हें रोज़गार की सबसे अधिक आवश्यकता है। लेकिन सवाल उठता है आखिर यह कौन सा रोज़गार कर सकते हैं? क्योंकि इस समुदाय में शिक्षा और दक्षता दोनों की कमी है। इस संबंध में निसार अहमद कहते हैं कि उन लोगों को घर पर रहकर ऐसा कार्य मिले जिससे घर की महिलाएं कच्चा माल तैयार कर दें और पुरुष बाजार में उसे सप्लाई करें क्योंकि सप्लाई और बाजार का काम करने का समुदाय का अच्छा अनुभव है। जैसे साड़ियों से जुड़े काम, मिर्च मसाला तैयार कर बेचने का कार्य, खिलौना बनाने तथा इसी तरह के अन्य कार्य। फिलहाल इस समुदाय की महिलाएं सिर्फ घर का कामकाज करती हैं या फिर गांव में ही नरेगा के तहत मजदूरी जैसा कार्य करती हैं। वहीं सलीम खां का मानना है कि शिक्षा की कमी अवश्य है, लेकिन वह भी पढ़े लिखे समाज की तरह जीना चाहते हैं और अपने बच्चों को भी पढा लिखाकर आगे बढ़ाना चाहते हैं। ऐसे में यदि इन्हें घर पर रहकर काम मिल जाएगा तो न केवल इनके पलायन की समस्या हल हो जाएगी बल्कि इनके बच्चों को आगे बढ़ने का मौका मिल पायेगा। 

फिलहाल कोरोना के चलते अभी इन समुदायों का रोज़गार भी बंद हो गया है और अब इनके सामने भीख मांगकर खाने की नौबत आ गई है। ऐसी मुश्किल घड़ी में इस समुदाय को भी रोज़गार की बहुत अधिक आवश्यकता है। अब तक तो सरकार व कुछ सामाजिक संस्थाओं के सहयोग से इनका गुजारा चल गया परन्तु ये लम्बे समय तक नही चल सकता। ऐसे में ज़रूरी है कि इन अति पिछड़े समुदायों के लिए सरकार कोई ठोस योजनाएं बना कर इन्हें भी समाज की मुख्यधारा से जोड़े। कहने को तो समाज में हाशिये पर खड़े लोगों के लिए ढ़ेरों सरकारी योजनाएं हैं, लेकिन अब समय आ गया है कि इन्हें धरातल पर उतारा जाए ताकि खानाबदोशों की ठहरी हुई ज़िंदगी फिर से रफ़्तार पकड़ सके। (चरखा फीचर)



- रमा शर्मा
जयपुर, राजस्थान


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