गोदान यथार्थवादी उपन्यास

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गोदान यथार्थ उपन्यास गोदान यथार्थ उपन्यास गोदान उपन्यास की समीक्षा गोदान कृषक जीवन की त्रासदी है गोदान यथार्थ उपन्यास है।इसमें प्रेमचन्द जी ने अपने जीवन के समस्त अनुभव एक सूत्र में बाँध दिये हैं। गोदान में कोई सुधारवादी संदेश नहीं है, अपितु प्रेमचन्द समाज की करुण दशा का नग्न चित्रण प्रस्तुत करते हैं।

गोदान यथार्थ उपन्यास


गोदान यथार्थ उपन्यास गोदान उपन्यास की समीक्षा गोदान कृषक जीवन की त्रासदी है गोदान यथार्थ उपन्यास है।इसमें प्रेमचन्द जी ने अपने जीवन के समस्त अनुभव एक सूत्र में बाँध दिये हैं। गोदान में कोई सुधारवादी संदेश नहीं है, अपितु प्रेमचन्द समाज की करुण दशा का नग्न चित्रण प्रस्तुत करते हैं। इस उपन्यास के माध्यम से प्रेमचन्द जी ने यह संकेत मात्र किया है कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था इस कारुणिक स्थिति के लिए उत्तरदायी है, उसे कभी भी सुधार से दूर नहीं किया जा सकता। उसे तो संगठन से समूल नष्ट ही करना उचित प्रतीत होगा। 'गोदान' में होरी और धनिया का शोषक वर्ग से संघर्ष करते हुए जीवन के दुःखों की चक्की में पिसना और होरी की कारुणिक मृत्यु का यथार्थ चित्रण वर्तमान समाज-व्यवस्था को चुनौती देता है और होरी की मृत्यु के रूप में पूँजीवादी शोषक-व्यवस्था को मृत होने का भी संकेत करता है ! गोदान में प्रेमचन्द क्रान्ति का स्पष्ट संकेत नहीं देते, इसे गाँधीवाद के बढ़ते हुए प्रभाव की छाया ही कहा जा सकता है। 'गोदान' में होरी के माध्यम से भारत के उस कृषक वर्ग की यथार्थ जीवन-गाथा का चित्रण हुआ है, जो कारुणिक एवं संघर्षशील है। 

गोदान में शुद्ध यथार्थ का चित्रण है। उपन्यास के आरम्भ से होरी जीवन में कटु यथार्थ का सामना करता है तथा जीवन के विभिन्न कोणों पर संघर्षों को सहता हुआ अंत में आर्थिक विषमता में अल्पाय में ही मर जाता है। समाज का शोषक वर्ग किस प्रकार उस असहाय निर्बल प्राणी का शोषण करते हैं। समाज के ठेकेदारों के हर आदर्शों का पालन करता है तथा जेठ की कड़ी दोपहरी में जीविकोपार्जन करने के लिए काम करना पड़ता है। अन्त में उसी गर्मी में लू लगने के कारण अल्पायु में मर जाता है। इस प्रकार प्रेमचन्द जी इस उपन्यास में शुद्ध यथार्थवादी हो गये हैं। 

गोदान यथार्थवादी उपन्यास
गोदान के यथार्थवाद को कतिपय आलोचकों ने उदात्त मर्यादित, उदात्त यथार्थवाद के नाम से भी अभिहित किया। उनके यथार्थ-चित्रण से पाठकों में एक समाज-व्यवस्था के ऊपर क्रोध एवं असहाय निर्बल होरी के प्रति संवेदना एवं सहानुभूति उत्पन्न होती है।'गोदान' के सारे पात्र किसी न-किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनमें व्यक्ति और वर्ग की विशेषताओं का ऐसा समन्वय  हुआ है कि उनका व्यक्तित्व सजीव हो उठा है। उन सारे पात्रों के माध्यम से लेखक ने निष्क्रियता और आलस्य का परित्याग कर स्वाभिमान एवं आत्मरक्षा का संदेश दिया है। इस यथार्थवाद के सफल निरूपण में वे आदर्शवाद को आरोपित नहीं कर पाये। उन्होंने उपन्यास में जहाँ कहीं भी आदर्शवाद को स्थापित करने का प्रयत्न किया है, वहाँ उनकी कथा बोझिल और धूमिल हो गयी है और हाँ, जहाँ उन्होंने शुद्ध यथार्थ के धरातल पर कदम रखा है, वहाँ वे यथार्थ का सशक्त, सजीव और कारुणिक दृश्य प्रस्तुत कर देते हैं। मन अनायास ही उन पात्रों के प्रति संवेदनशील हो उठता है। 

प्रेमचन्द का आदर्शवाद उनकी कृतियों के एक ही पहलू को धूमिल करता है।वह है समस्या के सुन्दर निष्कर्ष निकालने की, परन्तु उनके अन्तर में बसा हुआ यथार्थवाद समस्या की जटिलता को चित्रित करने में बहुत कम सामञ्जस्य रखता है। 

'गोदान प्रेमचन्द की उपन्यास-कला का चरमोत्कर्ष है।इसमें प्रेमचन्द पूर्वाग्रह का त्यागकर आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के धरातल पर पहुँच गये हैं। अव्यावहारिक आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की विफलता देखकर वे गोदान में यथार्थवादी हो गये। अतः उनकी मान्यता और कला का विकास दृष्टि में रखने से गोदान के सम्बन्ध में प्रेमचन्द की यह मान्यता अप्रभावी हो जाती है कि 'उपन्यास' वे ही उच्चकोटि के समझे जाते हैं, जिनमें यथार्थ और आदर्श का पूर्ण सामञ्जस्य हो। 

इस विवेचनात्मक विवरण से ज्ञात होता है कि प्रेमचन्द जी ने अपने अन्य उपन्यासों की भाँति इसमें आदर्शवाद की प्रतिष्ठा करने का प्रयास नहीं किया, वे आदर्शवाद का मोह त्यागकर समाज के चित्रांकन में अधिक रमे हैं। साथ ही वे यह भी संकेत करते हैं कि समाज में व्याप्त करीतियों, अन्धविश्वासों, शोषणों के विरुद्ध क्रांति का उद्घोष करना उचित नहीं बल्कि उसे परिवर्तित करने पर अधिक बल दिया है। विचारक मेहता के रूप में आदर्शवाद की कुछ झलक अवश्य आ जाती है, परन्त यह झलक आदर्शवाद की अव्यावहारिक और पराजय को ही सूचित करती है। जीवन भर कर्मठ रहकर और संघर्षशील होरी दयनीय और कारुणिक स्थिति में दम तोड़ देता है। यहाँ होरी नहीं बल्कि मानव समाज का दम टूटता है, आदर्शवाद की मृत्यु होती है ! अतः गोदान पूर्ण रूप से यथार्थवादी उपन्यास है। इसमें भारतीय समाज की तत्कालीन परिस्थितियों का पूर्णरूपेण आँकलन किया गया है। 


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