मुफ्त शिक्षा और मिड-डे मील के बावजूद सरकारी स्कूलों में छात्रों के ड्राप आउट में कमी नहीं आ रही है। आंकड़े बताते हैं कि एक तरफ जहां इन स्कूलों में शिक्षकों के खाली पद इसका एक बड़ा कारण है तो वहीं दूसरे अन्य कारकों में घर से स्कूल की दूरी भी ड्रॉप आउट की प्रमुख वजह बनती जा रही है।
दूर है स्कूल बच्चे पढ़ाई छोड़ने को मजबूर
मोदी सरकार ने 2020-21 के बजट में शिक्षा के क्षेत्र में पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना अधिक खर्च करने की घोषणा की है। यह राशि प्राथमिक शिक्षा के स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक में खर्च की जाएगी। सरकार का यह कदम शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाने के प्रति उसकी गंभीरता को दर्शाता है। अक्सर बजट में उच्च शिक्षा ढांचा को मज़बूत बनाने पर अधिक ज़ोर दिया जाता है। अधिक से अधिक कॉलेज और तकनीकि विश्वविद्यालय खोलने पर ज़्यादा फोकस किया जाता है। ऐसे में प्राथमिक शिक्षा की बात पीछे छूट जाती है। जबकि शिक्षा का बुनियादी स्तर प्राथमिक विद्यालय होता है। लेकिन विडंबना यह है कि आज भी देश के अधिकतर राज्यों में प्राथमिक विद्यालय की स्थिती उसके भवन की तरह ही जर्जर होती जा रही है।
मुफ्त शिक्षा और मिड-डे मील के बावजूद सरकारी स्कूलों में छात्रों के ड्राप आउट में कमी नहीं आ रही है। आंकड़े बताते हैं कि एक तरफ जहां इन स्कूलों में शिक्षकों के खाली पद इसका एक बड़ा कारण है तो वहीं दूसरे अन्य कारकों में घर से स्कूल की दूरी भी ड्रॉप आउट की प्रमुख वजह बनती जा रही है। इसका एक उदहारण राजस्थान के करौली जिला स्थित परमा का डांडा नाम की बस्ती है। एक लाख की आबादी वाले करौली जिला मुख्यालय से 8 किलोमीटर दूर शहर के बाहरी क्षेत्र में स्थित वार्ड नंबर 5 से जुड़ी इस बस्ती में 30 परिवार आबाद हैं। विद्यालय समय के दौरान इस बस्ती की कई बच्चियों को खेलते देखकर महसूस हुआ कि आखिर पढ़ाई के समय यह बच्चियां विद्यालय में क्यों नहीं है? जबकि करौली शहर में सात सरकारी उच्च प्राथमिक विद्यालय और एक उच्च माध्यमिक विद्यालय तथा 2 बालिका विद्यालय के साथ साथ सैकड़ों की संख्या में निजी विद्यालय चल रहे हैं। जिज्ञासावश लड़कियों के पास जाकर जब उनसे जानकारी ली तो पता चला कि बस्ती के लगभग 40 लड़के और लड़कियां विद्यालय नहीं जाते हैं।
बच्चे पढ़ाई छोड़ने को मजबूर |
स्कूल छोड़ चुके अधिकतर लड़के और लड़कियों की उम्र दस साल या उससे अधिक ही थी। उन्हीं लड़कियों में से एक पूजा ने बताया कि उसने पांचवीं के बाद विद्यालय जाना बंद कर दिया, क्योंकि सरकारी स्कूल बस्ती से पांच किलोमीटर दूर है जहां उसके माता-पिता उसे भेज नहीं सकते और घर के करीब संचालित निजी विद्यालय में पढ़ाने के लिए उनके पास पैसे नहीं है। वही उच्च प्राथमिक विद्यालय भी बस्ती से करीब छह किमी दूर होने के कारण करीब 40 बच्चे पांचवी कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ चुके हैं और उनके आगे पढ़नेकी संभावना नहीं के बराबर है।
पूजा ने बताया कि वह और स्कूल छोड़ चुकी अन्य लड़कियां गाय भैंसों को चरा कर घर की आय में अपना योगदान दे रही हैं। लड़कियों के स्कूल छोड़ने का कारण बताते हुए दाखा देवी ने कहा कि लड़कियों के बड़े हो जाने पर कोई भी अभिभावक उन्हें अकेले घरसे इतनी दूर भेजने का जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं। इसी बस्ती के मदन लाल सैनी ने बतायाकि मां बाप अपने बेटों को 6 किलोमीटर दूर बगैर किसी सुरक्षा के स्कूल नहीं भेजना चाहते हैं क्योंकि रास्ते में राष्ट्रीय राजमार्ग और स्टेट हाईवे है, जहां से तेज़ रफ़्तार गाड़ियां गुज़रती हैं। ऐसे में बच्चों के जान की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। उन्होंने बताया कि यह समस्या केवल उनके बस्ती की ही नहीं है बल्कि ऐसी परिस्थिती आस पास के कुम्हारों का मोहल्ला और एक अन्य माली बस्ती की भी है। मोहल्ले से विद्यालय जाने के रास्ते में सड़क नहीं होने के कारण अभिभावक बच्चों को बाहर पढ़ने नहीं भेजना चाहते हैं। जो लड़के पढ़ाई छोड़ देते हैं, गरीबी के कारण माता पिता उन्हें कम उम्र में ही बाल मज़दूरी में झोंक देते हैं।
इस बस्ती के अधिकतर परिवार आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं। ऐसे में वह अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाने और उसकी फीस भरने में अक्षम हैं। हालाँकि प्राथमिक विद्यालय भी बस्ती से तीन किमी दूर होने के कारण कई छोटे बच्चे विद्यालय जाने से वंचित रह जाते हैं। यही कारण है कि अधिकतर बच्चे 6 माह से एक वर्ष के अंदर ही स्कूल जाना छोड़ देते हैं। आस पास के मोहल्लों को मिलाकर करीब 100 बच्चे हैं, जो कि कक्षा 1 से 8 तक की पढाई से वंचित हैं। जबकि ज़मीनी हकीकत से उलट शिक्षा विभाग करौली द्वारा 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों का नामकरण और उपस्थिति विद्यालय में दर्ज होने का दावा किया जा रहा है।
इस संबंध में मुख्य ब्लॉक शिक्षा अधिकारी राम निवास जैन ने कहा कि उन्हें मामले की कोई जानकारी नहीं है, लेकिन अगर मोहल्लेवासी क्षेत्र में ही प्राथमिक और उच्च विद्यालय के निर्माण के लिए उन्हें कोई आवेदन आदि देते हैं तो वह उसकी जांच करवाकर नियमानुसार कार्यवाही के लिए उच्च अधिकारियों को अवश्य अवगत कराएँगे। इस संबंध में बाल कल्याण समिति के सदस्य और शिक्षाविद फजले अहमद ने बताया कि निशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अंतर्गत 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है। राज्य सरकार को इस दिशा में प्रयास करनी चाहिए ताकि एक भी बच्चा शिक्षा प्राप्त करने से वंचित न रह जाये। उन्होंने कहा कि यदि बस्ती में बच्चों की पढाई के लिए सरकारी प्राथमिक या उच्च प्राथमिक विद्यालय नहीं खुला हुआ हैतो वे निरिक्षण कर इस संबंध में राज्य सरकार और संबंधित संस्थाओं को कार्यवाही के लिए लिखेंगे और जल्दी ही बच्चों से मुलाकात कर इस बारे में समुचित जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। याद रहे कि राजस्थान निशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार नियम 2012 में यह स्पष्ट प्रावधान है कि बच्चों के निवास से एक किलोमीटर के अंदर प्राथमिक विद्यालय तथा दो किलोमीटर के अंदर उच्च प्राथमिक विद्यालय की स्थापना अनिवार्य है।
2019 के आखिरी हफ्ते में नीति आयोग की जारी रिपोर्ट में शिक्षा के क्षेत्र में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले राज्यों में राजस्थान देश का दूसरा सर्वश्रेष्ठ राज्य घोषित हुआ है। हालांकि ज़मीनी स्तर पर वास्तविकता कुछ अलग ही नज़र आया है। घर से सरकारी स्कूलों का दूर होना और प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने में अक्षमता के कारण पूजा जैसे हज़ारों बच्चों को शिक्षा से वंचित कर रहा है। जो विकसित समाज की कल्पना के लिए लाभकारी साबित नहीं हो सकता है। (चरखा फीचर्स)
- अरुण जिंदल
करौली, राजस्थान
COMMENTS